18 Jun 2017

बीमारी नहीं महामारी है


बीमारी कैसी भी हो। वह अच्छे भले इंसान को इंसान से मरीज बना देती है। जब व्यक्ति किसी भी बीमारी से ग्रस्त होता है। तब वह मनुष्य न होकर एक मरीज होता है। उस वक्त उसे लोग ही नहीं,अपने चिरपरिचित भी उसको मरीज की दृष्टि से निहारते हैं। उसकी देखभाल भी इंसान की तरह नहीं करके मरीज की तरह करते हैं। ताकि वह शीघ्र स्वस्थ हो जाए। मुल्क में एक बीमारी ऐसी है। जिसकी चपेट में आने पर व्यक्ति बीमार तो नहीं होता। पर हालत बीमार से बदतर हो जाती है। आजीविका की गाड़ी सही ढंग से चल नहीं पाती है। घर में आए दिन गृहकलह रहता है। उस बीमारी का नाम है बेरोजगारी। जो सब बीमारियों पर भारी है। यह मौसमी बीमारी नहीं है। मौसमी बीमारी होतो रोकथाम की संभावना रहती है। पर यह तो बारहमासी है। इससे पीडि़त व्यक्ति नहीं सही ढंग से जी पाता है और नहीं मृत्यु को पाता है। रोजगार दवा हेतु दर-दर की ठोकर खाता फिरता है।
बंदा बेरोजगारी बीमारी की चपेट में कैसे आता है। जब रोजगार की तलाश में पस्त हो जाता है। तब बेरोजगारी बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। शिक्षित बेरोजगार इस बीमारी की चपेट में कैसे आता है। यह शिक्षित बेरोजगार दीनू की मनोदशा से समझ सकते है। विविध डिग्रीधारी दीनू ने पहली बार कंपटीशन दिया तो एकाध अंक से लुढ़क गया। दूसरी बार दिया तो मामला कोर्ट में अटक गया। तीसरी बार दिया तो पेपर लीक हो गया। चौथी बार आवेदन किया तो भर्ती निरस्त हो गई। इसके बाद सिलसिला ऐसे ही गुजरता रहा। कभी पेपर लीक तो कभी मामला कोर्ट में चलता रहा और कभी खुद एकाध अंक से लुढ़कता रहा। फिर भी कभी पस्त नहीं हुआ। समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा। जो ख्वाब संजोए थे। वे समय के पहिए के तले कुचलते गए। नौकरी पाने के चक्कर में कब बेरोजगारी बीमारी से पीडि़त हो गया। खुद को भी पता नहीं। ऐसा भी नहीं है कि दीनू होशियार नहीं था। दीनू प्रथम जमात से प्रतिभा का धनी रहा है। आज वहीं प्रतिभा का धनी। धन के पीछे भाग रहा है। फिर भी धन पकड़ में नहीं आ रहा है। जो पकड़ में आ रहा है। वह घर-गृहस्थी से होकर वापस जा रहा है। बचत के नाम पर ठेंगा है। यह कहानी अकेले दीनू की ही नहीं। बल्कि हर उस शिक्षित बेरोजगारी की है,जो बेरोजगारी बीमारी से ग्रस्त है।

पहले नौकरी बाद में छोकरी’ का प्रण लेने वाले। इस बीमारी से पीडि़त होने के उपरांत शीघ्र ही प्राणिग्रहण संस्कार में बंध जाते हैं। इनके घरवाले शादी जल्दी इसलिए कर देते हैं। नौकरी चक्कर में कहीं छोकरी भी नहीं मिली तो जिंदगी भर कुंवारा बैठा रहेगा। इस बीमारी से पीडि़त,चाहकर भी घरवालों के खिलाफ नहीं जा सकता। खिलाफ चल तो जाए। पर खिलाफ जाने के सभी रास्ते अवरुद्ध होते हैं। जाए तो किधर से जाए। दुस्साहस करके अवरूद्ध रास्ते से चल भी गया तो काम से गया। काम से गया तो तमाम से गया। इसलिए अवरूद्ध रास्ते से कोई नहीं जाना चाहता है।

शादी के उपरांत धर्मपत्नी को क्या-क्या चाहिए होता है। इससे तो आप अच्छी तरह से वाकिफ है। पत्नी पतिदेव को आए दिन रसोई से लेकर अपने सौंदर्य प्रसाधनों तक की फेहरिस्त थमाती रहती है। जो इस बीमारी के पीडि़त से कभी पूरी नहीं हो पाती है। जब पत्नी द्वारा दी गई फेहरिस्त पूरी नहीं होती है। तब गृहकलह होता है। गृहकलह होता है तो न जाने पति को क्या-क्या सुनना पड़ता है। कहने की तो हिम्मत नहीं होती। चुपचाप सुनना ही पड़ता है। सुनने में भलाई है। अन्यथा शामत नहीं।
महंगाई की मार का भार शिक्षित बेरोजगार उठा नहीं पाता है। बड़ी मुश्किल से उठाने की कोशिश करता है तो लडख़ड़ा कर गिर जाता है। गिरे हुए को कोई उठाने भी नहीं आता है। सब देखकर चलते बनते हैं। खुद को ही उठना पड़ता है। फिर से खड़े होकर जैसे-तैसे महंगाई की मार का भार उठाना ही पड़ता है। क्या करेंबेरोजगारी बीमारी से पीडि़त है। जिसका इलाज भगवान भरोसे हो जाए तो हो जाए। अन्यथा वह इस बीमारी से जूझता रहता है। इस बीमारी का कोई अस्पताल तो होता नहीं। नहीं कोई डॉक्टर होता है। इसकी नहीं कोई दवा। दुआ ही इसकी दवा है। जो कुछ चमत्कार होता है,वह भगवान भरोसे होता है। होने को तो भरोसा भरसक होता है। पर जिस पर भरोसा होता है और वह भरोसेमंद नहीं निकले। तब भरोसा भरसक न होकर भूसा हो जाता है। भूसा भी ऐसा होता है। पशु मुंह मारकर दूर हट जाते हैं। किंतु भगवान पर भरोसा तो भरोसा ही होता है।

जो शिक्षित बेरोजगार बेरोजगारी बीमारी से पीडि़त है। वह जब देखों तब ही किस्मत का रोना रोता रहता है। उसकी दिलोदिमाग की शक्ति निर्बल पड़ जाती है। वह चाहकर भी अपनी स्थिति सुधार नहीं पाता है। उसको अपनी अर्हता के अनुरूप कार्य मिलता नहीं और देहाड़ी मजदूरी होती नहीं। अर्हता के मुताबिक कार्य मिलता है तो वेतन अर्हता के अनुरूप नहीं मिलता है। ऐसी स्थिति में यह बीमारी दिन-ब-दिन बढ़ती जाती है। हां इस बीमारी का एक रामबाण उपाय है। अपनी अर्हता के मुताबिक प्रतियोगिता परीक्षाओं की निर्धारित आयु सीमा से पूर्व नौकरी मिल जाए तो निजात मिल जाती है। अन्यथा यह बीमारी महामारी बन जाती है। जब महामारी बन जाती है तो इसका इलाज लाइलाज है। जिंदगी भर सताती है। अपनी साथ ओर बीमारियों को भी बुला लेती हैं। 

17 Jun 2017

रामभरोस का भरोसा रामभरोसे

मित्र! रामभरोस यथा नाम तथा गुण चरितार्थ है। उस पर कोई भरोसा करें ना करें। वह तो आंख मूंदकर भरोसा कर लेता है। फिर चाहे सामने वाला भरोसेमंद ही नहीं हो। कई लोग इत्ते भरोसे के साथ यकीन दिलाते हैं कि आपका अमुख कार्य। अमुख तारीख को सुनिश्चित हो जाएंगा। यह सुनकर हम भी सुनिश्चित की चादर ओढ़कर सो जाते हैं। सुनिश्चित की अवधि समीप आने पर हमारी आंखे खुलती हैं तो सुनिश्चित की चादर अनिश्चित में समेटी हुई मिलती है। अनिश्चित में समेटी हुई चादर को आप हम तो दोबारा ओढ़ना मुनासिब नहीं समझते। पर मित्र ! रामभरोस अनिश्चित में समेटी हुई चादर को भी फैलाकर दुबारा सो लेता है। अब रामभरोस को कौन समझाएवह किसी कि मानता भी तो नहीं। कहता है,बेचारे की कुछ मजबूरी रही होगी। वह तो तकरार में भी इनकार नहीं करता। इनकार ही किया है। इकरार तो यथावत है। इकरार है तो भरोसा भरसक है। इसे क्या मालूमऐनवक्त पर मना करने पर वहीं स्थिति होती है। जो चुनाव में नेताजी की ऐनवक्त पर टिकट कटने पर होती है।
कहते है कि जिस पर भरोसा होता है। वहीं मुसीबत में काम आता है। लेकिन भरोसा देकर ऐनवक्त पर टालमटोल कर जाना। मुसीबत में एक ओर मुसीबत झेलना पड़ता है। फिर एक ओर एक मुसीबत मिलकर ग्‍यारह का काम करती हैं। मौका मिलने पर काम भी तमाम कर देती है। मुसीबत यहां तो आती नहीं और आती है जल्दी सी जाती नहीं। खुद तो आती है,जो आती है,अपने संग मानिसक तनाव और ग्रह क्लेश भी साथ लाती है। जेल से कैदी का बाहर निकलता आसान है पर मुसीबत का निकलना मुश्किल है। मुसीबत तो मुसीबत है।
रामभरोस का जिस पर भरोसा कायम है। उसे रामभरोस के नाम में,जो ­‘राम’ है उसमें मर्यादा पुरुषोत्तम ­‘राम’ तो नजर आता है। पर राम के पीछे जुड़ा ‘भरोस’ में भरोसा दिखाई नहीं देता। वह सोचता होगा। जिसका नाम ही राम के भरोसे है यानी रामभरोस है। उस पर क्या भरोसा करें?विश्वास कुमार होतो। कम से कम नाम पर तो विश्वास रहता है। फिर चाहे वह नाममात्र का ही विश्वास कुमार क्यूं ना हो। इसमें रामभरोस का दोष थोड़ी है। मां-बाप दोषी है। जिन्होंन ऐसा नाम रखा। मां-बाप भी क्यूं दोषी हैदोषी तो ज्योतिषी है। ज्योतिषी भी क्यूं दोषीवह तो पंचाग के मुताबिक चलता है। दोषी तो ग्रह है जिसमें इसका जन्म हुआ था। ग्रहों का भी क्या दोष हैदोष तो तुला राशि का है जिसने यह नाम प्रदान किया। इसमें तुला राशि का भी क्या दोष हैतुला राशि ने थोड़ी कहा था कि रामभरोस ही नाम रखना। तुला में रामभरोस के अलावा ओर भी अनेकानेक नाम थे। उनमें से भरोसा लायक नाम रख लेते। खैर,छोड़ों।
रामभरोस ऐसा क्या करेंउसका जिस पर भरोसा है। वह भी उस पर भरोसा कर ले। आप ही कोई सुझाव दीजिए। हो सकता है,आपका सुझाव। उसके दिमाग में घुस जाए और वह भरोसा कर ले। एक भाई साहब! ने बहुत अच्छा सुझाव दिया। भरोसा तो भरोसा है। करें ना करें उसकी मर्जी। इसमें आप-हम क्या कर सकते है सरजी। आप भी किसी के भरोसे आश्वस्त है तो जान लीजिए भाई साहब का सुझाव शाश्वत है। इसके बावजूद भी भरोसा करते हैं तो जिम्मेवारी खुद की होगी। एक दूसरे भाई साहब ने सुझाव दिया- भरोसे पर दुनिया कायम है। भरोसा है तो सब कुछ है। अन्यथा कुछ भी नहीं। सुझाव तो इनका भी वाजिब है। ऐतबार ही है,जिसकी बुनियाद पर रिश्तों की इमारत टिकी हुई है। अन्यथा कब की ध्वस्त हो गई होती। ऐतबार नहीं होता तो प्रेमी-प्रेमियों में प्रेम ही नहीं होता। प्रेम नहीं होता तो प्रेमी-प्रेमिका नहीं होती। ऐतबार है तो प्रेम है और प्रेम है तो प्रेमी-प्रेमिका है।
रामभरोस जिस पर अटूट भरोसा करता है। उसने मुझे बताया कि अधुनातन में भरोसा रहा ही कहांजो निहायत कम बचा हुआ है। उसके भी स्वार्थ की दीमक लग गई है। जो भरोसे को धीरे-धीरे चट कर रही है। जिस पर खुद से ज्यादा विश्वास है। वहीं विश्वास का गला दबा रहा। इसीलिए तो भाई भाई से आंखे नहीं मिला रहा है। उसी ने आगे बताया कि भाई साहब ! होने को तो भरोसा तो भरसक होता है। लेकिन जिस पर भरोसा होता है। वहीं विश्वासघात निकल आए तो इसमें भरोसा भी क्या करे?रही बात रामभरोस की,जिसका नाम ही रामभरोस है। उस पर भरोसा करना भी रामभरोसे ही है।

6 Jun 2017

पर्यावरण संरक्षित खुद के बदलने से संभव

हर वर्ष पांच जून को हम विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं और पर्यावरण के प्रति चिंता जाहिर करते हैं। विचार-विमर्श करते हैं। लोगों में जागरूता लाने के लिए रैलियां निकालते हैं। लेकिन खुद इस दिन के अगले दिन ही भूल जाते हैं। जबकि बचाव और बदलाव खुद के बदलने से ही संभव है। जब तक खुद आगे आकर पहल नहीं करेगें तो दूसरा कैसे करेंगा। यह सोचनीय और विचारणीय प्रश्र है। जिसका उत्तर किसी ओर के पास नहीं है। बल्कि खुद के पास ही है। लेकिन हमारी मानसिकता होती है कि मेरे अकेले से क्या होगा? यह सोचकर कदम पीछे रख लेते हैं। लेकिन अब हमें कदम आगे बढ़ना होगा है। प्रकृति ने हमको जीवन दिया। जीने का अधिकार दिया है। हमारे साथ उन तमाम जीव-जन्तुओं को भी जीवन दिया है,जो प्रकृति पर ही निर्भर हैं। पर समझ से परे है कि मनुष्य को पता भी है कि पर्यावरण है तो जीवन है। उसके बावजूद भी अपने स्वार्थ की खातिर प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है। प्रकृति से खिलवाड़ करना खुद पर कुठाराघात करना हैं। अब भी वक्त हैं बिगड़ते पर्यावरण को संरक्षित करने का। अगर अब भी नहीं चेते तो समझों विनाश भी नजदीक ही है।

आज हम बिगड़ते पर्यावरण के कारण,जो संकट झेल रहे हैं। उनसे हम सब अच्छी तरह से वाकिफ हैं। जल रसातल में पहुंच गया। पीने योग्‍य पानी नहीं बचा है। वायु दूषित हो रही है। श्वास लेने भी लकलीफ होती। स्वार्थलिप्सा की कुल्हाड़ी पेड़-पौधों पर इस कधर चल रही है कि जंगल के जंगल विलुप्त हो रहे हैं। जीवनदायिनी नदियां मिटने के कगार पर हैं। पहाड़ ध्वस्त हो गए है। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ता जा रहा है। इत्ता ही नहीं विकास के नाम पर भी पर्यावरण का विनाश हो रहा है। विकास की राह में जो भी पर्यावरण संसाधन आ रहे हैं उन्हें बचाने के बजाय उनका नेस्तनाबूद कर रहे हैं। जबकि जल,जंगल,नदियां,पहाड़ के बिना जीवन अधूरा है।
रोजमर्रा के कार्यों में हम ऐसे कृत्य करते हैं,जिससे पर्यावरण दूषित होता है। घर का कूड़ा-कचरा पड़ोसी की ओर सरका देते और पड़ोसी अपनी ओर सरका देता है। जिससे मृदा प्रदूषण फैलता है और मक्खी,मच्छर पनपते हैं। अपने आस-पास मच्छर पनपने का अभिप्राय है,मलेरिया,डेंगू,चिकनगुनिया,जैसी जानलेवा बीमारियों को बढ़ावा देना। पड़ोसी की ओर कूड़ा-कचरा सरकाने की बजाय अपना एवं अपने आस-पास कूड़े के लगे ढेर को जला दे। जिससे अपने आस-पास स्वच्छता होगी और प्रदूषण भी नहीं फैलेगा। हम सब करने लग जाए,तो पर्यावरण कितना संरक्षित हो सकता है। इसका आकलन आप खुद कर सकते हैं।
इसी तरह पॉलिथीन के बढ़ते प्रभाव पर नियंत्रण करना होगा। क्योंकि हम साग,सब्जी,फल व अन्य वस्तुओं के साथ जो पॉलिथीन ला रहे हैं। उसी पॉलिथीन का बहुतायत में दुरुपयोग होता है। हम सामान तो रख लेते हैं और पॉलिथीन को घर से बाहर फेंक देते हैं। जो पर्यावरण के साथ-साथ पशुओं के लिए भी नुकसान दायक है। यह नष्ट न होने की वजह से भूमि की उर्वरता क्षमता को भी कम करती है। इसके जलाने से निकलने वाली धुआं ओजोन परत को क्षति पहुंचा रही है। जिससे ग्‍लोबल वार्मिग एक बड़ा कारण है। इसके कचरे के जलाने से कार्बन मोनोऑक्साइड व कार्बन डाईऑक्साइड जैसी विषैली गैस उत्सर्जित होती हैं। अगर पॉलिथीन का पूर्णतया उपयोग बंद हो जाए तो पर्यावरण तो संरक्षित होगा ही,साथ में पॉलिथीने से होने वाला दुष्प्रभावों से भी बचाव होगा।
आज सबसे महत्ती आवश्यकता है बहुतायत में पेड़-पौधे लगाने की। क्योंकि जितने अधिक पेड़-पौधे होंगे। उतना ही पर्यावरण संरक्षित होगा। इसके लिए हमें कुछ अलहदा करना होगा। जैसे कि जन्मदिन,शादी में उपहार के साथ एक पौधा देने की रवायत भी बना ले तो आने वाले समय में पर्यावरण को बचाया जा सकता है। उपहार में मिले पौधे को लगाना और उसकी देखभाल करना एक बच्चे के पालन-पोषण के समतुल्य है। एक पौधे का ख्याल भी अपने बच्चे की तरह करेंगे तो वह पौधा एक दिन पेड़ का रूप धारण करके हमें वह सब प्रदान करेंगा। जिसकी हमें अपेक्षा रहती है। बहुतायत पेड़-पौधे होंगे तो हमें शुद्ध वायु मिलेगी। समय पर बारिश होगी। समय पर बारिश होगी तो जल स्तर ऊपर उठेगा। पेड़-पौधे लगाना और उनकी रक्षा करना मनुष्य के हाथ में ही है। इसमें लागत और श्रम की आवश्यकता नहीं होती है। बस समय पर देखभाल करनी होती है।