28 Oct 2018

मेरे अरमान कब पूरे होंगें


बस,बहुत हो गया। अब और सहन नहीं होता। यह भी कोई जीना है। जिसमें ऐशों-आराम हराम है। न मद्यपान न धूम्रपान है। सिर्फ सुनसान है। दो दिन की जिंदगी और चार दिन की चाँदनी है। दो दिन तो आने-जाने में निकल जाते हैं। एक दिन आने का और एक दिन जाने का। बची चार दिन की चाँदनी। एक दिन की चाँदनी जिंदगी की भागादौड़ी में और दूसरे दिन की माथाफोड़ी में। तीसरे दिन की हारी-बीमारी में और चौथे दिन की श्मशान की क्यारी में निकल जाती हैं।
लोग खुले आसमान तले उन्मुक्त उड़ रहे हैं। उन्हें देखकर मेरा भी मन करता है। उनकी मानिंद उड़ान भरने का। जब भी उड़ान भरने को आमादा होता हूँ तो घरवाले पर पकड़ लेते हैं। फड़फड़ाता हूँ तो पर काटने दौड़ते हैं। बात-बात पर नसीहत देते हैं। ना ही कहीं जाने देते हैं और ना कुछ खाने-पीने देते हैं।
देश कब का स्वतंत्र हो गया। पर मेरी स्वतंत्रता पर अब भी आधिपत्य है। जबकि मैं तो अठारह की उम्र भी क्रॉस कर गया हूं और मुझे वोट डालने का अधिकार भी मिल गया है। निर्वाचन आयोग द्वारा जारी बाकायदा पहचान पत्र भी है। जब सरकार ने सरकार चुनने का अधिकार दे दिया तो घरवाले क्यों नहीं समझतेलड़के के भी कुछ अरमान हैं। जिन पर मोहर लगाने का अधिकार खुद का है।
मैं भी तो आज का नवयुवक हूं और आज के नवयुवकों की तरह जीना मेरा भी अधिकार है। ये दिल फैशन,हेयर स्टाइल,स्मानर्टफोन मांगता है। बाइक हो तो सोने में सुहागा है। यही तो पर्सनालिटी के साधन हैं। जिनके उपयोग से बेहतरीन पर्सनालिटी दिखती है। आज के युग में जो दिखता है वही बिकता है। जिस दिन यह सब प्राप्त हो गया। उस दिन से मेरा भी फेसबुक,वाट्सएपट्विटरइंस्टाग्राम पर अकाउंट होगा। नए-नए फ्रेंड्स होंगे। रोज अलग-अलग एंगल से सेल्फी लेकर अपलोड करूंगा। लाइक,कमेंट्स बटोरूंगा। पर यह तो तब होगा ना जब मेरे अरमान पूरे होंगे।
अकसर हम सबके घर वालों की सदन शाम को बैठती है। वह भी भोजन के वक्त। क्योंकि इस वक्त सबके वक्तबव्यघ का मत आ जाता हैं। यहीं सुअवसर होता है कहने-सुनने और घर,गृहस्थी संबंधी योजनाएं बनाने का। इसी समय घर के नियम व कानून बनते-बिगड़ते हैं। फेरबदल होता है। जिसको जो कहना होता है वह कहता है। जिसको सुनना होता है वह चुपचाप सुनता है। जो नहीं कहता है और नहीं सुनता है। वह भोजन करके खिसक लेता है। ऐसा पारिवारिक सदन में ही होता है। क्योंकि यहाँ दल रहित सरकार होती है। पर पक्ष-विपक्ष यहाँ भी होता है।
काफी सोच-समझकर मैंने अपने अरमानों का विधेयक सदन में रखा। एक बार तो सबके-सब मेरी तरफ कौतुहल भरी निगाहों से देखें। पहले तो गृहस्वामी ने बात को टालने की कोशिश की। पर किसी ने दबे स्वर में मेरी मांग जायज बता दी। फिर क्या थाबहस आरंभ हो गई। पक्ष पास करवाने पर जोर देना लगा और विपक्ष स्थगित करवाने पर अड़ गया। जैसे-तैसे करके निम्न सदन में पास हो गया। पर उच्च सदन में आकर रुक गया। इस सदन में पूर्ण बहुमत नहीं होने से वहीं का वहीं अटका है।
यहीं हालात उन जनहित विधेयकों के साथ होती है,जो मेरे साथ हो रही है। मैं पूछना चाहता हूँ। मेरे सदन के मुखिया से। तुम्हारे पक्ष-प्रतिपक्ष के चक्कर में मुझे क्यों घसीट रहे होखुद के मतलब का कोई विधेयक होता है तो आनन-फानन में पारित कर लेते हो। कानों-कान किसी को खबर तक नहीं होने देते हो। मेरी बारी आती है तो पक्ष-विपक्ष में बंट जाते हो। ये भेदभाव क्यूँ  क्या यही तुम्हारा कानून-कायदा हैआखिरकार मेरा कसूर क्या हैयह तो बताओं!

No comments: