11 Mar 2017

टोली के संग होली का आनंद

मोहन लाल मौर्य
मुझे तो अकेले होली खेलना कतई पसंद नहीं है। मैं घर से अकेला होली खेलने निकलता हूं तो घर से निकलते ही दबोच लेते हैं। टोली की टोली तैनात जो रहती हैं। गत वर्ष सीना तानकर होली दंगल में उतरा था। पर जो हाल हुआ था वह मैं ही जानता हूं। होली दंगल में उतरते ही ऐसी पटकनी दी कि चारों खाने चित आया। रंग-गुलाल से सराबोर होकर घर आया और आकर आईने में चेहरा देखा तो आईना भी मुझ पर हस रहा था। जो ओर दिनों खामोश रहता था। आईने से झूठ भी नहीं बोल सकता। उसे सब पता रहता है। वह वहीं बताता है जो खुद देखता है और आईना ही तो है,जो सच बोलता है। खैर,छोड़ों। होली पर्व ऐसा तो होता आया है। पर जो टोली बनाकर होली खेलने में मजा आता है वह भला अकेले में कहां आता है?

होली पर टोली अनायास ही बन जाती है। टोली बनते ही पूरी की पूरी टोली जिस गली से निकलती है तो अच्छे-अच्छों की रंग-गुलाल फीकी पड़ जाती है। बंदा सोचता रह जाता है कि किसके रंग-गुलाल लगाऊं और किसके नहीं लगाऊं। वह एक के लगाएंगा तो उस पर पूरी-पूरी टोली हमला कर देती हैं। इसलिए बचकर निकलना ही मुनासिब समझता है। पर उसका बचना नामुनासिब है। ट्रैफिक हवलदार से बचकर निकल सकते हैं। पर होली पर टोली से बचकर निकलना मुमकिन नहीं नामुमकिन है। क्योंकि उसके पीछे ग्यारह मुल्कों की पुलिस नहीं। बल्कि गली-मोहल्ले के वे लडक़े होते हैं,जो एक साथ टूटकर पड़ते हैं। ऐसा रंगते है कि वह भी टोली में शामिल हो जाता है।
जब टोली की हुड़दंग और होली की मस्ती मिल-बैठते हैं। तब पिचकारी पिचक जाती है और काला पेंट परवान चढ़ जाता है। रंग-गुलाल मुंह ताकते रह जाते हैं। सोचते है कि किसी खूबसूरत लोहे पर जाकर तो मुंह काला नहीं करता। अपुन के पर्व पर आकर अपनी टांग फंसा देता है,कमबख्त कहीं का। होली पर टोली वालों के सम्मुख कोई समझदारी दिखाता है,तो वे कीचड़ को भी रंग-गुलाल समझकर उसके चेहरे पर पोत देते हैं। इनका मानना है कि कीचड़ में कमल खिल सकता है तो कीचड़ से होली खेलने में क्या बुराई है? जो समझदारी नहीं दिखाता है और हंसी-खुशी से टोली के संग होली खेलता है,उसे रंग-गुलाल से सराबोर कर देते हैं। फिर उसका चेहरा नहीं,उसके सफेद दंत भी रंग-बिरंगे दिखते हैं।

अबकी बार मैं भी टोली के संग होली दंगल में उतरुगा। इसके लिए चाहे मुझे गठबंधन क्यों ना करना पड़े? जब राजनैतिक पार्टियां ही चुनावी दंगल में गठबंधन करके उतर सकती हैं,तो भला मैं क्यूं नहीं होली दंगल में उतर सकता? देखना मैं भी किसी ना किसी टोली से गठबंधन करके होली पर ऐसा धमाल मचाऊंगा की सब मेरे रंग में रंग जाएंगे। देखने वाले देखते रह जाएंगे और रंग-गुलाल लगाने वाले रंग-गुलाल लगाकर चले जाएंगे।

5 Mar 2017

होली की होली और भड़ास की भड़ास

होली एकमात्र ऐसा पर्व है। जिस पर भड़ास निकालने वाला होली की होली खेल लेता है और भड़ास की भड़ास निकाल लेता है। अहसास तक होने नहीं देता। उसे पता है कि इनकार करेगा नहीं। इनकार नहीं करेगा तो बुरा मानने का सवाल ही नहीं। किसी कारणवश बुरा मान भी गया तो क्या है? मनुहार करना जानता है। होली पर्व पर बुरा तो कोई मानता ही नहीं। बुरा मानते तो बुरा न मानों होली है’ कोई नहीं कहता। वह मनुहार के तौर पर ‘बुरा न मानों होली है’ कहता है। फिर उसको अच्छी तरह से रंग-गुलाल से रंगकर मुस्कुराता हुआ वहां से खिसक लेता है। वहां ज्यादा देर तक ठहरना नामुनासिब है। वह उस पर गुलाल लगाकर भड़ास निकाल रहा है और उस पर कोई ओर आकर उसकी तरह ही भड़ास निकाल ले। भड़ास निकाल ले तो निकाल ही ले। वह भी तो निकाल रहा है। उसके निकालने में क्या हर्ज है। वह भी कह देगा-बुरा न मानों होली है। होली पर्व पर होता भी ऐसा ही है। जिसके रंग-गुलाल लगाना चाहते हैं,उसके तो लगता नहीं,किसी ओर के लग जाता है। वह तो बच निकलता है। जिसके लगता है,वह उसके लगाता है। इसके उसके रंग लगता है,तबी तो होली खेलने में आनंद आता है। आनंद-आनंद में भड़ास तो स्वत: ही निकल जाती है। क्योंकि आनंद आने पर आनंदित हो जाता है।

भड़ास निकालने वाले का सलीका अलहदा होता है। उसकी विशेषता हस्तकौशल में परिपूर्ण होता है,उसके हाथों में अपेक्षाकृत ज्यादा रंग-गुलाल होता है। पहले आलिंगन प्रवृत्ति अपनाता है। उसके उपरांत होली खेलते-खेलते भड़ास निकाल लेता है। अपनी भड़ास पूर्ण नहीं हो। जब तक रंग-गुलाल लगाता रहता हैं। किसके रंग-गुलाल लगाना है और किससे नहीं। यह नहीं देखता,जो मिल गया वहीं सही। अलबत्ता कई बार विपरीत हो जाता है। सेर को सवा सेर मिल जाता है। जब सेर सवा सेर से मुखातिब होता है। तब भड़ास तो भाड़ में घुस जाती है और दोनों रंग-गुलाल की बौछार से सराबोर हो जाते हैं। फिर होली खेलते-खेलते हमजोली हो जाते हैं। हमजोली मिलकर टोली बनाते हैं। टोली बनाकर हल्ला-गुल्ला करते हुए घर-घर होली खेलने जाते हैं। होली पर टोली की टोली आती देखकर जो दरवाजा बंद कर लेता है। उसको रंगने के लिए अपने-अपने हथकंडे अपनाते हैं। जिसका हथकंडा लगा गया और दरवाजा खुल गया। वह दरवाजा खुलते ही रंग-गुलाल लगाता है और भड़ास निकालने वाला रंग-गुलाल की आड़ में होली खेलते-खेलते भड़ास भी निकाल लेता है।
मन की भड़ास निकालने का सुअवसर होली पर्व पर जो मिलता है। ऐसा अवसर ओर दिन कहां मिलता है? मन से भड़ास निकल जाती है और तन पर रंग-गुलाल चढ़ जाता है। मन-तन की अभिलाषा पूर्ण हो जाती है। जो प्राय: हो नहीं पाती। मन की अभिलाषा पूर्ण होती है तो तन की नहीं होती और तन की होती है तो मन की नहीं होती। जब मन-तन की अभिलाषा एक साथ पूर्ण होती है। तब उसके लिए वह दिन होली दिवाली से कम नहीं होता। जब दिन ही होली का मिल रहा है तो वह अभिलाषा पूर्ण क्यों नहीं करेगा? वह तो अवश्य करेगा। सालभर से वह इसी दिन के इंतजार में तो रहता है। कब होली आए और कब मन की मुराद पूरी करू।


होली पर जो भड़ास निकालना चाहता है। वह गतवर्ष की भरपाई करना चाहता है। गतवर्ष उसके साथ जो सलूक किया था। रंग-गुलाल की आड़ में काला तेल लगा दिया था। ऊपर से कीचड़ उड़ेल दिया था। वह भी ऐसा ही कुछ करना चाहता है। जिसने किया था वह उसके निशाने पर होता है। निशाना सही लग गया तो भड़ास निकल गई। निशाना चुक गया और कहीं ओर निशाना लग गया तो भी कोई बात नहीं। तब भड़ास रंग-गुलाल में तब्दील हो जाती है। होली पर भड़ास की रंग-गुलाल हो,चाहे प्यार-प्रेम की। रंग-गुलाल रंग-गुलाल ही होती है। उसका रंग-रूप वहीं होता है जो होता है। रंग- गुलाल लगने पर बदलते है तो चेहरे बदलते हैं। जब किसी का  चेहरा लाल,पीले,हरे,गुलाबी,रंगों से अच्‍छी तरह से लिपा-पुता हो। तब जाना-पहचाना चेहरा भी अजनबी सा लगता है। अजनबी सा इसलिए लगता है रंगों में समायोजन की भावना जो होती है। एक-दूसरे रंग में समा जाने पर हमारी तरह विरोध नहीं करते। बल्कि प्‍यार-प्रेम से समा जाते हैं।
दरअसल होली पर्व पर जो आप समझ रहे हो,उस तरह की भड़ास नहीं होती। इस भड़ास में तो मिठास होती है। जिसका स्वाद मिठा न होकर अजीब सा होता है। इसे खाना तो कोई नहीं चाहता,पर खानी पड़ जाती है। नहीं खाए तो बुरा मान जाए और होली पर बुरा मानना अच्छा नहीं है। इसलिए सब मिल-बांटकर खाते हैं और खिलाते हैं। आओं मिल-जुलकर होली खेले पर भड़ास नहीं निकाले।