डॉक्टर सेवाराम टू इन वन है। इनसानों के साथ पशुओं का भी इलाज करता हैं। मोटरसाइकिल के एक बगल में पशु दवा बैग और दूसरी ओर इंसानी दवा का लटका झोला टू इन वन का प्रमाण है। ग्राहक का कब फोन आ जाए और कब जाना पड़ जाए। इसलिए आपातकालीन सेवा के रूप में मोटरसाइकिल को चौबीस घंटे पास में ही खड़ी रखता है। यहाँ ग्राहक मरीज है और मरीज ही ग्राहक है। दुकानदार के लिए ग्राहक भगवान होता है और मरीज के लिए डॉक्टर भगवान होता है। अत: यहाँ पर डॉक्टर और मरीज दोनों ही भगवान है। एक-दूसरे के लिए।
आप
भले ही मोटरसाइकिल को एम्बुलेंस कह सकते है। रहित सायरन एम्बुलेंस। पर इसके
साइलेंसर की ध्वनि ही दूरध्वनि है। जिसके सामने एम्बुलेंस सायरन
ध्वनि की तो फूँक निकल जाती है। मरीज क्लीनिक पर आए। चाहे डॉ.सेवाराम मरीज के घर पर जाए। कोई अतिरिक्त फीस नहीं। फीस व अन्य खर्चा-पानी पहले ही दवाइयों में ऐड कर देता हैं। यह एड़ करता है और सरकारी अस्पताल में एडमिट करते हैं। इसका तो ‘एड़’ भी एड़मिट से महंगा पड़ता है। लेकिन मरीज
को महँगाई की मार से मरने नहीं देता। उधार का इंजेक्शन लगा देता है। जिससे मरीज को बहुत राहत मिलती है। एक बीमार देहाती को राहत मिल गई तो यह
मानों उसे पद्मश्री मिल गया। लेकिन जब उधार इंजेक्शन का चार्ज लिया जाता है। तब एक बार तो भला-चंगा भी कोमा चला जाता है। ऐसी
स्थिति में उपचार करने की बजाय उसे ‘शर्मिंदा ना करें’ की टैबलेट देकर घर भेज दिया जाता है।
अनभिज्ञ
व निरक्षर की दृष्टि में जो सुई लगाता है,वहीं डॉक्टर है। फिर चाहे वह
नर्स ही क्यूँ ना हो? देहात
में फर्जी क्लीनिक खोलकर बैठा ऐरा-गैरा नत्थू -खैरा ही क्यूँ ना हो? इनकों तो इलाज से मतलब है।
ग्रेड व डिग्री से नहीं। थोड़ी बहुत दृष्टि सोचने समझने में लगा भी दी तो झोलाछाप दृष्टि टोक देती है,‘उधेड़बुन में क्यूँ
अपना दिमाग खपा रहा है। मुझ पर विश्वास है ना,फिर काहे को
टेंशन लेता है। ये ले तीन दिन की दवा। इसमें से सुबह-शाम लेनी है। यह एक बखत लेनी
है और यह वाली खाली पेट लेनी है। तीन तरह की, तीन रंग
की,तीन पुड़िया है। समझ में नहीं आई क्या? ठीक है। देख ऐसे समझ ले। लाल पुडिय़ा सुबह-शाम की है। पीली पुडिय़ा एक बखत
की है। और सफेद वाली खाली पेट की है। फिर भी कोई दिक्कत आए तो चुपचाप सीधा यहाँ
चले आना। किसी से भी किसी तरह का जिक्र मत करना। जिक्र किया तो फिक्र होगी और
फिक्र होगी तो दवा काम नहीं करेगी। दवा काम नहीं करेगी तो स्वस्थ नहीं होगा।समझ
गया ना।’ इस तरह से भयभीत कर देता है। चाहकर भी जिक्र
नहीं करता।
अनभिज्ञता
में विश्वास चीज ही ऐसी है। एक बार जिसकी आँखों पर विश्वास की पट्टी बँध गई। उसे
उतारना मुश्किल है। यह पट्टी बंधती नहीं बांधी जाती है। झोलाछाप के पास जो मरहम
पट्टी करवाने आता है । उसके मरहम पट्टी के साथ-साथ विश्वास की पट्टी भी बांध देता हैं। मरहम पट्टी से घाव भरे ना भरे। लेकिन विश्वास की पट्टी से
जरुर भर जाता है।झोलाछाप की मरहम पट्टी रखी-रखी
एक्सपायरी डेट हो सकती है। लेकिन विश्वास की पट्टी कभी एक्सपायर डेट नहीं
होती ।
हर
झोलाछाप डॉक्टर यह भली-भाँति जानता है कि गाँव देहात में भले
ही कुछ मिले ना मिले, पर मरीज पर्याप्त मात्रा में मिल
जाते हैं। जिनके इलाज से दाल-रोटी का बंदोबस्त तो आराम से हो जाता है। गाँवों में
वैसे तो कोई बीमारी खास नहीं होती। फोड़ा-फुंसी,खांसी-जुखाम, सर्दी, पेटदर्द ,उल्टी-दस्त
व बुखार जैसी बीमारियां होती। जो कि बिना दवा के भी ठीक
हो जाती है। लेकिन झोलाछाप कई तरह के रंग बिरंगे
कैप्सूल देकर तथा ग्लूकोज इस तरह से चढ़ाता है, ड्रिप की रफ्तार इतनी धीमी रखता है। एक बूँद आधे घंटे में गिरती हैं। जिसे देखकर मरीज व परिजन
को लगता है दवाई बड़ी मुश्किल से शरीर में जा रही है। बीमारी गंभीर है।
डॉ.सेवाराम पता नहीं क्या जादू-टोना करता है। लोग जरा सा ताप बुखार होते ही सेवाराम की शरण में चले जाते हैं। जो बीमार नहीं हैं,वे चाय-पानी पीने आ जाते हैं। गपशप मारने आ जाते हैं। जब कोई केश बिगड़ता है तो वह इन्हीं को बुलाता हैं। यह दौड़े चले आते हैं। ले-देकर मामला रफा-दफा भी करवा देते हैं। देहात में पाँच व्यक्तियों की बात सर्वप्रिय मानी जाती हैं। ताकि गाँव की बात गाँव तक रहे। कोर्ट-कचहरी तक नहीं जाए। अगर कोई डॉ.सेवाराम के खिलाफ पुलिस तक चल भी गया तो उससे पहले सेवाराम की सेवा हाजिर हो जाती है। जिसकी सेवा है उसकी मेवा तो होनी ही है। मेवा नहीं करें तो सेवा नहीं होती है। सेवाराम का नेटवर्क तगड़ा है। मेडिकल सतर्कता दल के आने से पूर्व ही भनक लग जाती हैं और उनके आने से पहले ही क्लीनिक बंद करके नौ दो ग्यारह हो जाता है।
मोहनलाल मौर्य
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