एक माह से चल
रहा महाराष्ट्र का महानाटक इस तरह से संपन्न होगा। यह किसी ने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा।समापन का पार्ट संपन्न होने वाला ही था कि एकाएक
मुख्य पात्र बदल गए। किरदार निभा रहे पात्र भी
आश्चर्यचकित हैं। पात्र बदल कैसे गए। वो भी एक ही रात में। जो सुबह सुहावनी होनी
थी। वह सुनामी में बदल गई। बगैर ढोल नगाड़े बजे ही शपथ
ग्रहण समारोह हो गया। मुख्यमंत्री की भूमिका निभानी
किसी और को थी और निभा ली किसी और ने। जिसने निभानी थी वह तो चादर तानकर सो गया और
जिसने अलसुबह ही शपथ लेकर निभा ली,वह पूरी रात जागकर यह बता
दिया कि जो सोवत है। वह खोवत है।
जिसने
उपमुख्यमंत्री की भूमिका निभाई,उसने तो कमाल ही कर दिया। सगे चाचा को ही
गच्चा देकर यह बता दिया है कि अब मैं कोई दूध पीता बच्चा तो हूं नहीं। जो कि
सियासत का खेल खेलना नहीं जानता हूं। मुझे सियासी खेल खेलना अच्छी तरह से आता है। समय और मौके का फायदा उठाना गद्दारी नहीं। राजगद्दी
पर बैठने की समझदारी है। मैंने मौके पर जो चौका मारा है,उससे
चौंकिए मत। सोचिए,मौके पर चौका इसी तरह से मारा जाता है।
माना कि आप मंजे हुए खिलाड़ी हैं। पर कब और कैसे पलटी मारनी है। यह मुझसे से
सीखिए। भविष्य में काम आएगी। हमेशा राजनीतिक तजुर्बा ही काम नहीं आता है। कई बार
अपना सरनेम भी पावर क्या होती है दिखा देता है। अपन दोनों का एक ही सरनेम होने के बावजूद भी उसका इस्तेमाल नहीं कर रहे थे। इसलिए मैंने
इस्तेमाल करके सरनेम को अखबारों की हेडलाइन बना दिया। जो कि हेडलाइन बनने के लिए
कब से मचल रहा था। सुर्खियां बटोरने के लिए भी गठबंधन का जोड़-तोड़ करना पड़ता है। बगावत करनी पड़ती है। पाला पलटना पड़ता है। विरोधियों से हाथ मिलाना होता
है। तब कहीं जाकर सुर्खियां प्राप्त होती हैं।
लेकिन
यहां पर चाचा भी कमतर नहीं है। उसने भी होटल में शक्ति प्रदर्शन करके दिखा
दिया कि यह देखिए बहुमत। पूरे एक सौ बासठ हैं। यह देखकर भतीजा भौंचक्का रह गया। उसे इस्तीफा देना ही पड़ा। साथ में जितने शपथ ली थी उसे भी देना पड़ा। अब उसके
अच्छी तरह से समझ में आ गई होगी कि चाचा चाचा ही होता है। लेकिन तीन तिगड़ा और काम
बिगाड़ा वाली कहावत चरितार्थ होती है या नहीं। यह समय के गर्भ में है।
सियासत
में कुर्सी से बढ़कर कोई रिश्ता नहीं है। कुर्सी है तो रिश्ते तो थोक के भाव में
मिल जाते हैं। जिन्हें जब तक मन करे निभाओ और जब मन करे तोड़ डालो। कोई बुरा नहीं
मानता है। अगर कोई बुरा मान भी जाए तो अवसर पड़ने पर उसे प्रलोभन देकर मना लो। कोई
प्रलोभन से भी नहीं माने तो उसके सामने कुर्सी का प्रस्ताव रख दो। फिर देखिए,वह
अपनों को छोड़कर गैरों के पास कैसे दौड़ा चला आता। क्योंकि कुर्सी है तो सत्ता
सुंदरी है। सत्ता सुंदरी के साथ भला कौन नहीं रहना चाहता है। हर किसी की इच्छा
होती है कि सत्ता सुंदरी मेरी हो जाए। लेकिन यह होती उसी की है जिसके पास बहुमत
होता है। फिर चाहे वह अकेली पार्टी का हो या गठबंधन
द्वारा हो। जोड़ तोड़ कर किया हो या खरीद-फरोख्त के द्वारा हो। पर होना होना चाहिए
पूरा बहुमत। आधे अधूरे से तो यह हाथ भी नहीं मिलाती है। इसने सबको अपने संग रहने का बारी-बारी से मौका दिया था। पर बहुमत नहीं
होने के कारण मौका नहीं ले पाए।
मोहनलाल मौर्य