13 Apr 2017

जुगाड़ की जुगत

मोहन लाल मौर्य
आज कल जिसे देखों वहीं किसी ना किसी जुगाड़ की जुगत में लगा हुआ है। खुद से जुगाड़ हो गया तो पौ बारह पच्‍चीस। अन्‍यथा किसी ओर से सांठगांठ कर जुगाड़ की जुगत करता है। मेरा पड़ोसी जुगलकिशोर भी अपने पुत्र को सरकारी दामाद बनाने हेतु जुगाड़ की जुगत में लगा हुआ है। हर किसी से पहुंचता रहता है। भाई! कोई जुगाड़ होतो बताना। उसे चढ़ाना भी आता है। तुम्‍हारी तो ऊॅपर तक पकड़ है। कहीं ना कहीं टांका फिट करके अपुन के छोरा (लड़का) को भी नौकरी लगवा दो। भाई! यह काम हो गया तो तेरा यह अहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा। इत्‍ता सुनकर भाई टाइप का बंदा पहले तो अपने आप पर गर्व करता है और बाद में कहता है- देखता हूं। सोचता हूं। अंतः में कहेंगा- ठीक है कुछ ना कुछ जुगाड़ करता हूं। जुगाड़ हो गया तो बता दूंगा। अब तुम जाओं। मुझे भी कहीं जाना है। चाहे जाना कहीं भी नहीं हो। पर पर्सनल्‍टी के लिए ऐसा बोल ना पड़ता है।

जुगाड़ के मामले में हम लोग बहुत अग्रणी है। फट से जुगाड़ कर लेते हैं। उसके अंजाम की भी नहीं सोचते। अंजाम क्‍या होगा? जो होगा सो देखा जाएंगा। एक बार जुगाड़ तो हो जाए। जुगाड़ टेक्‍नोलॉजी है ही ऐसी चीज। जिसके बगैर काम भी तो नहीं चलता। बहुत से ऐसे कार्य होते हैं,जो जुगाड़ की जुगत से चलते हैं। चलते ही नहीं सरपट दौड़ते भी है। कहते है कि जुगाड़ टेक्‍नोलॉजी के आगे अच्‍छी से अच्‍छी टेक्‍नोलॉजी भी फेल हो जाती है और जुगाड़ टेक्‍नोजॉजी पास हो जाती है। वह भी अव्‍वल नम्‍बरों से।
मुल्‍क में ऐसे-ऐसे जुगाड़ी है,जो कबाड़ से भी कबाड़ वस्‍तु का ऐसा जुगाड़ कर देते हैं। जिसे देखकर आंखे फटी की फटी रह जाती हैं। ओर कुछेक ऐसे हैं,जो आप चाहो। उसका जुगाड़ कर देते हैं। इस तरह का जुगाड़ गोपनीय होता। क्‍या करें? जिसमें जिसक तरह की जुगाड़ करने की क्षमता होती है। वह उसी तरह का जुगाड़ करता है। यह जरूरी नहीं है कि जुगाड़ वस्‍तुओं का ही होता है। भांति-भांति तरह के जुगाड़ के विकल्‍प खुले हुए हैं। सड़क से लेकर संसद तक जुगाड़ की जुगत चलती है। नौकरी के लिए जुगाड़। नौकरशाही है,तो स्‍थानांतरण के लिए जुगाड़। राजनेता है,तो कुरसी के लिए जुगाड़। व्‍यापारी है,तो मुनाफे का जुगाड़। मजदूर है,तो काम-धाम हेतु जुगाड़। बच्‍चे का ब्‍याह नहीं हो रहा है,तो जुगाड़। ओर भी न जाने किस-किस तरह का जुगाड़ होता है। हमारे यहां तो एक वाहन का नाम ही जुगाड़ है,जो बगैर नम्‍बर प्‍लेट  और बगैर परमिट के चलता है। खूब सवारी एवं सामान ढोता है।
सोचता हूं,जुगाड़ टेक्‍नोलॉजी नहीं होती तो क्‍या होता। जिनके चूल्‍हे जुगाड़ की जुगत से जलते हैं वे नहीं जलते। जो कार्य यूं ही हो जाते हैं। उनके के लिए कई चक्‍कर काटने पड़ते। धक्‍का–मुक्‍की खानी पड़ती। खैर यह सब छोड़ों और किसी ना किसी जुगाड़ की जुगत में लग जाओं। जुगाड़ है तो सब कुछ है और जुगाड़ नहीं है तो कुछ भी नहीं। क्‍योंकि कई बार जुगाड़ की जुगत से भी किस्‍मत चमक जाती है।

3 Apr 2017

गुटखा तो जुगाली

मोहन लाल मौर्य
जिस तरह भूखे पेट भजन नहीं होता। उसी तरह गुटखा खाए बगैर दिमाग की बत्ती नहीं जलती। जब दिमाग की बत्ती जलती है तो ज्ञान प्रवाह अविरल बहता है। अविरल बहती ज्ञान गंगा की गति को गतिमान रखने के लिए गुटखा चबाना पड़ता है। जब तक मुंह में गुटखा है। तब तब ज्ञान और काम कि गंगा की गति गतिमान रहती है। ज्यों ही मुंह गुटखे से खाली हुआ। दिमाग की बत्ती गुल हो जाती है। पीकधारा से बनने वाले भित्तिचित्र अधबना रह जाते हैं। फिर अधबना भित्तिचित्र इस ताक में रहता है कि कब पीकधारा आए ओर मुझे पूर्ण करें। यह अपुन का वक्तव्य नहीं है। यह तो पीकधारा से प्रभावित पीकू का है।

पीकू ने बताया कि एकदम से गुटखा त्यागना पीक संस्कृति के खिलाफ है। गुटखा सेवन कर्ता ही तो है,जो पीक संस्कृति को बचाए हुए हैं। अन्यथा कब की विलुप्त हो गई होती। आज पीक भित्तिचित्र शैली खोजने से भी नहीं मिलती। पीक भित्तिचित्र शैली से तो सार्वजनिक पेशाबघरों की शोभा बढ़ती है। पेशाबघर की हर भीत पीक भित्तिचित्र शैली से रंगी हुई होती है। बस स्टेण्ड,रेलवे स्टेशन,सरकारी अस्पताल की भीतों पर तो पीक सभ्यता के अवशेष सदैव मौजूद रहते हैं। अवशेष तो उन सरकारी भीतों पर भी मिल जाते हैं। जिनके पास गुटखा सेवन कर्ता कार्मिक की कुरसी होती है। किंतु वे अवशेष शेष नहीं रहते हैं। जो शेष रह जाते हैं,वे अवशेष लायक नहीं रहते हैं।
पीकू का मानना है कि भारतीय संस्कृति में पीक संस्कृति का भी योगदान रहा है। तबी तो गुटखा खाने वालों का आपसी सौहार्द इतना प्रबल होता है। एक पाउच को दो लोग मिल बांटकर खा लेते हैं। कई दफा तो एक पाउच का दो से चार में भी बांटवारा हो जाता है। वह भी बिना हुज्जत किए। ऐसी भाईचारे की प्रतीक संस्कृति पर विराम लगाना पीक संस्कृति की तौहीन है। गुटखा बिरादरी पर कीचड़ उछालना है। जब किसी पर कीचड़ उछलता है तो उसके दामन पर दाग नहीं लगते। बल्कि दामन ही दागदार हो जाता है। एक बार दामन का दाग दागदार होने पर फिर किसी भी वॉशिंग पाउडर से नहीं धुलता है। भले ही कितने भी टीवी पर आने विज्ञापन देखकर कोई सा भी वॉशिंग पाउडर खरीद लो कुछ असर नहीं होता है।
अगर किसी दिन पीक भित्तिचित्र शैली में पुरस्कार देने की घोषणा हुई। मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि प्रथम प्राइज पीकू को ही मिलेगा। क्योंकि पीकू के घर की हर भीत पर बने पीक भित्तिचित्र अपने ओर आकर्षित करते हैं।जिन्‍हें देखकर आप भी नाक चढ़ा लेगे। पीकू तो कहता है कि भाई! मुंह में गुटखा है तो जुगाली है अन्यथा मुंह खाली है। खाली मुंह किसी काम नहीं है। मुंह में कुछ ना कुछ होना चाहिए। कुछ लोग च्‍यूंगम मुंह मं चबाते रहते हैं, लेकिन च्‍यूंगम चबाने को हेय दृष्टि से देखने का चलन नहीं है। लेकिन फिर भी मुंह में कुछ तो होना चाहिए,गुटखा भी  हो सकता है।

1 Apr 2017

मूर्ख नहीं डेढ़ गुणा समझदार

आप भले ही उसे मूर्ख समझते होंगे। वह तो अपने आपको समझदार समझता है। समझता क्या है? समझदार है। आप भूल से भी उसे मूर्ख मत समझ लेना। हां,वह भाव-भंगिमा से मूर्ख प्रतीत होता है। रंगमंच पर उसका अभिनय देख,आप मूर्ख समझ बैठते हैं। जबकि वह मूर्खता के नेपथ्य में अभिनयचातुर्य है। उसकी मूर्खता ही उसका पेशा है। वह अपने पेशे में सिद्धहस्त है। वह क्या? आप भी तो अपने पेशे में सिद्धहस्त है। वह मूर्ख प्रतीत तो होता है। आप तो प्रतीत भी नहीं होते। आप तो अपने क्षेत्र में मंजे हुए खिलाड़ी है। खिलाड़ी तो वह भी है पर वह राष्ट्रीय स्तर का नहीं है। आप ठहरे राष्ट्रीय खिलाड़ी। किंतु आप भूल कैसे गए? खिलाड़ी जिला स्तरीय हो,चाहे राष्ट्रीय स्तरीय,खिलाड़ी तो खिलाड़ी होता है। दाव लगते ही चारों खाने चित लाता है। भलाई इसी में है कि अपनी समझदारी अपने पास ही रखिये। कहीं ओर काम आएंगी। यहां ही व्यर्थ कर दी तो कहीं ओर किससे काम चलाओंगे। समझदार होना तो बनता है पर समझदारी दिखाना कहां चलता है। जहां चलता है वहां चलाए। किंतु देखकर चलाए,कहीं कोई चालान नहीं कर दे।
आप उसे मूर्ख कहकर लताड़ते रहते हो। वह निरुत्तर रहता है इसलिए। उसके निरुत्तर में प्रत्युत्तर होता है,पर वह देना नहीं चाहता। आप सोच रहे होंगे। क्यों नहीं देना चाहता? वह आपको ही मूर्ख समझता है। एक दफा उसने मुझे बताया था कि उस मूर्ख से तर्क करना समझदारी नहीं बेवकूफी है। यह सुनकर एक बार तो मैं अवाक रह गया। आपकी नजर में वह बेवकूफ है और उसकी निगाह में आप बेवकूफ है। पेचीदा प्रश्न यह है कि आप दोनों में से मूर्ख कौन है? वह या आप। वह लगता नहीं और आप होंगे नहीं। आप अपने आपको समझदार जो मान बैठे हो। आपको मूर्ख घोषित करना भी उचित नहीं। मैंने घोषित कर दिया तो इल्जाम मेरे सिर पर आ जाएंगा। फिर कोट-कचहरी के चक्कर लगाने पड़ेगे। ऐसा गुनाह मैं करना नहीं चाहता।
कहीं आप मुझे भी तो मूर्ख नहीं समझ रहे है। कुछ लोग मूर्खो की वार्ता करने वालों को भी मूर्ख समझ लेते हैं। लोगों के मुंह से आपने सुना भी होगा,देखों कैसी मूर्खो जैसी बात कर रहा हैं। इसलिए कह रहा हूं। आप मुझे भी मूर्ख समझ रहे है तो ठीक ही समझ रहे है। हो सकता है,मैं भी मूर्ख हूं। अगर मैं मूर्ख हूं तो मेरे लिए तो गर्व की बात है। अब आप कहेंगे इसमें गर्व वाली बात कहां से आ गई,जो आप गर्व कर रहे हो। मैं गर्व इसलिए कर रहा हूं कि मूर्खता में जो सुख-चैन है। वह भला समझदारी में कहां है? मूर्ख से कोई उलझता नहीं है। उलझता है तो गुत्थी झुलझती नहीं। खैर,मेरे संदर्भ में आप जो चाहे सोचों। मैं क्या कर सकता हूं। दिलोदिमाग आपका है। सोचना भी आपको है और करना भी आपको है।
कहां आप हम में उलझ गए। मुद्दे पर आते है। आप जिसे मूर्ख समझ रहे हैं वह आपसे डेढ़ गुणा समझदार है। आप सोच रहे होंगे। वह समझदार ही नहीं है। डेढ़ गुणा समझदार कैसे होगा? यही आपकी गलतफहमी है। इस गलतफहमी के चश्मे को उतारकर,अपनी नंगी आंखों से देखिए। अपने आप आभास हो जाएंगा। चलों कुछ देर के लिए उसे मूर्ख मान लेते है और आपको ज्ञानवान। पहले तो आप यह बताए कि वह मूर्ख क्यूं है? संभवत: आपका वहीं जवाब होगा,जो मैं पहले ही बता चुका हूं कि वह हाव-भाव से मूर्ख प्रतीत होता है। आप उसके भाव-भंगिमा पर न जाकर उसकी विवेक शक्ति का अवलोकन कीजिए। वह जानबूझकर मूर्खता का अभियन करता है और नेपथ्य में रहकर,वे कृत्य कर लेता हैं,जो आप समझदार होकर भी नहीं कर पाते है। उसे शर्म नहीं आती है। जहां आप नहीं आते-जाते वहां वह चला जाता है। अपने कार्यों को अंजाम देना उसे आता है। आपसे अपना स्वार्थ नि:स्वार्थ करवाना उसकी फितरत है। चेहरे पर भोलापन और जुबान में मिठापन नैसर्गिक लगे ऐसे बोल बोलता है,जो उसका हुनर है। अजीबोगरीब वार्ता कर अपना उल्लू सीधा करना उसकी मर्खता नहीं,चालाकी है। अब तो आप मान गए होंगे। मूर्ख नहीं डेढ़ गुणा समझदार है।