24 Jul 2017

समझने का सलीका सीखना होगा

हम स्कूल में पढ़ते थे तब हिंदी के गुरुजी बहुत समझाते थे। नालायको समझ जाओं। अन्यथा बहुत पश्चताओंगे। उस वक्त गुरुजी बताते थे कि समझना और समझाना में बस एक मात्रा का फर्क है।  ‘झ’ वर्ण में लगी ‘आ’ की मात्रा का और ‘झ’ वर्ण में न लगी ‘आ’ की मात्रा का। यहीं रत्तीभर फर्क जिसकी समझ में गया,उसकी नैया पार है और जिसकी समझ में नहीं आता उसका बेड़ा गरक है। गुरुजी प्यार से भी समझाते और मार से भी। हिंदी के गुरुजी के अलावा अन्य गुरुजी समझाते नहीं थे। अंग्रेजी के गुरुजी तो सीधे मीनिंग लिखवाते और सेंटेंस में प्रयोग करवाते। गणित के गुरुजी सवाल निकलवाते और जिस दिन सवाल नहीं निकलवाते उस दिन सिर से जूं निकलवाते।
दौर बदला और आज जिसे देखों,वहीं समझाने में आमादा है। कोई बात से तो कोई लात से समझाने पर अड़ा हैं। जरा सी चूक हुई तो समझाना और चूक नहीं भी हुई तो भी समझाना। उन्हें कौन समझाए। भाई! समझाना जित्ता सुगम है उत्ता ही समझना मुश्किल है। जिस भाषा में आप समझा रहे हो। वह अगले के समझ में आ रही है या नहीं। पहले यह तो जान लो। उसके बाद समझा लेना। वह भी समझने को तैयार हो तब। जबरन समझाओंगे तो समझदार के भी समझ में नहीं आएंगा। समझना मनुष्य के हाथ में थोड़ी है। यह तो मानव मस्तिष्क पर निर्भर करता है। उसके दिमाग कि क्षमता कित्ती है। स्पेस कितना है। दिमाग में रजिस्टर्ड टोटल सिक्योरिटी एंटी वायरस है या नहीं। एंटी वायरस की वैधता समाप्त तो नहीं हो गई। यह सब जाने रहित ही समझाना तो मूर्खता है।
समझाने का क्षेत्र व्यापक होता जा रहा है। ऐसा लगता मानो समझाना तो एक कारोबार बन गया है। इसके कारोबारी सुबह से लेकर शाम तक अपना माल बेचने में लगे रहते हैं। इनको इनके माल को खरीदने वाला खरीदार नहीं मिलता तब भी यह मायूस नहीं होते हैं। इनका माल साग-सब्जी की तरह तो है नहीं,जो सड़-गल जाएंगी। इनका माल तो खरा सोना है। आज नहीं तो कल बिक ही जाएंगा। इनकी टैग लाइन ही ऐसी है-‘समझ में नहीं आता क्‍या?जहां कहीं भी इस टैग लाइन का प्रयोग हो जाता है। वहां इनका माल या तो बिकता नहीं या फिर ऐसा बिकता है कि माल ही कम पड़ जाता है। इनके माल की कोई गारंटी या वारंटी भी नहीं होती फिर भी यह अपने माल का सरेआम बेचान कर कर देते हैं।

मेरे को समझाने वाले समझाने की जिन विधियों का प्रयोग करते हैं। वे तमाम विधियों 64 जेबी दिमाग मेमोरी युग में मेरी एक जेबी दिमाग मेमोरी में घुसती ही नहीं। मैं तो बहुत कुछ समझने चाहता हूं। दिमाग पर जोर भी खूब डालता हूं। पर ज्यों ही जोर डालता हूं,दिमाग की नसे फुलने लगती है। नसे फुलते ही थोड़ा बहुत समझ में आ रहा होता है,वह भी समझ नहीं आता है। जब समझाने वाला पूछता है कि कुछ समझ में आया। तब मैं हां कहकर झूठी सहमति दे देता हूं। अब आप भी बताए समझने में मेरा कसूर है या फिर समझाने वाले का सलीका अलहदा है। या फिर मुझे भी समझने का वह सलीका सीखना होगा,जो समझाने वाले को आता है। मुझे आपकी राय की प्रतिक्षा है। 

14 Jul 2017

घनघोर मेघ बरसते-बरसते रह गए

मानसून आ नहीं रहा है। उसकी प्रतीक्षा में वसुधा का गला सूखता जा रहा है। आंखों से निकलने वाली अश्रुधारा बह-बह कर सूख गई हैं। अश्रु निकाले से भी नहीं निकल रहे हैं। बार-बार होंठों पर जीभ फेरी जा रही है। ताकि कम से कम गला तो अधगीला रहे वसुधा अपना गला गीला करने के लिए बदरा से कह रही है- बदरा भाई! बरस जाओं। मेरा कंठ सूख रहा है। गले में पानी नहीं गया तो मैं मर जाऊंगी।
बदरा समीर के संग झूमता हुआ कहता है- देखों,बहिना तरस तो तुम पर बहुत आ रहा है। पर क्या करू, विवश हूं। मेरे उच्च अधिकारी एक-एक बूंद का लेखा-जोखा रखते हैं। कहां कितना पानी बरसाना है। यह सब पहले बाकायदा रजिस्टर में दर्ज होता है। उसके बाद उस क्षेत्र में बारिश होती है। कुछ दिन पहले घनघोर मेघ साहब की गैर हाजिर में बिना अनुमति के राजस्थान सूबे पर मेहरबानी कर दी। जब साहब आए तो इतनी लताड़ लगाए कि पूछों मत। एक भी बूंद इधर-उधर नहीं कर सकता। मुझे बूंद-बूंद का हिसाब देना होता है। तुम कहती हो कि बरस जाओं। मेरी भी नौकरी का सवाल है।
बदरा भाई! कुछ भी करों। कैसे भी करों। मेरे गले में थोड़ा सा पानी तो डाल दो। अन्यथा मैं मर जाऊंगी। मैं मर गई तो। सम्पूर्ण पृथ्वी का विनाश हो जाएंगा। पृथ्वी का विनाश हो। ऐसा मैं कदाचित भी नहीं चाहती।
अरे,वसुधा बहिना तुम समझती कैसी नहीं। अब तुम्हें कैसे समझाऊं? जिनके लिए तू बूंद-बूंद के लिए तरस रही हैं। उन्हीं तेरे बांशिदों ने तेरा विदोहन किया है। जिनसे तेरी हरीतिमा है। उन पेड़-पौधों से सम्मोहित होकर मैं बरसने को मजबूर हो जाता हूं। वे उन पर ही स्वार्थलिप्सा की कुल्हाड़ी चला रहे हैं। जिससे तेरे पर ही नहीं। अपितु हमारे समूचे बदरा समुदाय पर भी काले बादल मंडरा रहे हैं।
बदरा भाई! तेरी बात कटू शाश्वत है। प्राकृतिक आपदाओं के माध्यम से मैं भी इन्हें समझाने की कोशिश करती हूं। लेकिन इस बार कैसे भी करके मुझ पर रहम कर। मानसून का दौर है। जमकर बरस जा। हो सकता तेरी मेहरबानी से मेरे बांशिदों का दिल पसीज जाए। उनके ज्ञान चक्षु खोल जाए।
वसुधा की बेबस हालात देखकर बदरा को तरस आ गया। उसने पूछा बताओं! कहां-कहां बारिश करवानी है। यह सुनकर वसुधा का चेहरा खिल उठा और उसने वह फाइल सौंप दी जिसमें राज्यवार बारिश की सूची थी। समीर के माध्यम से फाइल एक बदरा बाबू से दूसरे बदरा बाबू तक पहुंची। दूसरे से तीसरे तक पहुंची। एक तरफ बारिश फाइल यहां से वहां पहुंच रही थी और दूसरी तरफ घनघोर मेघ बरसने के लिए आतुर हो रहा था। तबी घनघोर मेघ साहब के पास बारिश फाइल पहुंच गई। भारत मुल्क की फाइल देखकर घनघोर मेघ काला-पीला हो गया और बरसते-बरसते रह गया और वसुधा गगन की ओर मुंह करके बारिश के प्रतीक्षा में हैं कि बस,मेघ मेहरबान होने वाले ही है।