29 Aug 2018

मोबाइल की माहिमा


देखा भाईकमाल हो गया। कल का छोरा सब पर भारी हो गया। रामदुलारी भी पढ़-लिखकर कुछ ना कर पाई। जो उस छोरे ने कर दिखाया है। उसे देखकर मेरी तो आँखे ही फटी की फटी रह गई। इत्‍ती सी उम्र में इत्‍ता नॉलेज। वह भी बिना गए कॉलेज। और एक तुम हो जिससे कॉलेज पास आउट होने के बाद भी नॉलेज नहीं आई।
जरा हमें भी तो बताए रामदुलारी के बापू। किसने? राई के नौ पहाड़ कर दिया। जिसका इत्‍ता बखान कर रहे हो।’ मैंने पूछा। क्‍या है कि गाँव के छोटे-बड़े ग्‍यारसी लाल काका को रामदुलारी का बापू कहकर बुलाते हैं। सबके सामने छोटे-बड़ों से अलहदा आदरसूचक को काका निरादर ना समझ ले,इसीलिए मैंने रामदुलारी का बापू कहकर ही सम्‍बोधित किया। अकेले में तो काका कहकर ही सत्‍कार करता हूँ।
अरे! क्‍या बताए बेटा और क्‍या ना बताएं? अरेवह लल्‍लू का छोरा नहीं है क्‍या? उसकी उम्र में हमें तो ढंग से चड्डी भी नहीं पहनी आती थी। अर्धनग्‍न घूमते थे और दिनभर खेलने में मगन रहते थे। और उसे देखों! दुनिया भर के गेम बैठे-बैठे ही ऐसे खेल लेता है जैसे साँप सीढ़ी खेल रहा हो। वह जो गेम खेलता हैं। अगर वे ओलंपिक में होते तो अब से पहले सारे मेडल उसकी झोली में होते तथा गोल्‍ड मेडल तो उसी के नाम होता।’  
यह सुनकर मैं बोला,‘काकाक्‍यूँ मासूम बच्‍चे को झाड़ पर चढ़ा रहे हो? वह और गेम। उसे तो ढंग से गेमों का नेम भी नहीं पता। क्रिकेट,फूटबॉल,बॉलीवाल,बैंडमैंटिन,खेल है या मनोरंजन के साधन। ये भी नहीं जानता। वह तो घर की देहरी ही नहीं लांघता। लक्ष्‍मण रेखा के अंदर ही बंदर की तरह उछलता रहता है।
उसे बंदर समझकर परिहास का पात्र मत समझए। रावण ने भी हनुमानजी को बंदर समझा था। लेकिन जब हनुमानजी ने लंका में डंका बजाया तो सबके तोते उड़ गए थे। ये बंदर भी ना अंदर ही अंदर मोबाइल में किसी ना किसी गेम का गेम बजा रहा होता है।
काका के मुँह से यह सुनकर मेरी हँसी नहीं रुकी। मुश्किल से नियंत्रण करते हुए बोला,‘काका तुम भी ना कमाल करते हो।­’ 
काका बोला,‘मैंने क्‍या कमाल कर दियामैंने तो आँखों देखी लाइव का टेलिकास्‍ट किया है।’ 
मुझे लगता है,काका! तुम्‍हारे पास आज का संगी-साथी स्‍मार्टफोन नहीं है। होता तो तुम्‍हें ज्ञात होता।­’ 
अरे! मोबाइल तो मेरे पास एंड्रॉइड है,पर मुझसे तो ससुरे का लॉक भी दूसरे प्रयास में खुलता है।
तभी तो आपको इल्‍म नहीं है। लल्‍लू का छोरा तो फिर भी अनाड़ी है। लक्ष्‍मी की छोरी और मांगेलाल का छोरा तो  मंजे हुए खिलाड़ी हैं। आपको क्‍या पता?अपने मोहल्‍ले के अक्‍कू-नक्‍कू,चिंटू-पिंटू,रिया-दिव्‍या,बंटी-बबली तो इनके भी बाप हैं। ये तो मोबाइल में गेम नहीं बल्कि अपलोड से लेकर डाउनलोड तक करने में उस्‍ताद हैं।
बाप रे बाप! तुने तो मेरे आँखे खोल दी। मैं तो अनभिज्ञता में उसकी प्रशंसा का झंडा लहरा रहा था। मैं समझा लल्‍लू के छोरे में ही टैलेंटे है। मुझे क्‍या पता?आज के बच्‍चे  स्‍मार्टफोन की तरह स्‍मार्टनैस हैं। मल्‍टी टैलेंटेड हैं।
काका! आजकल के बच्‍चें कच्‍चे नहीं हैं। पक्‍के पकाए आम हैं। मोबाइल चलाने में तो परचम लहराए हुए हैं। जो बच्‍चे उठते-बैठते,सोते-जागते,खाते-पीते मोबाइल के उँगली करते रहते हैं,वे तो मोबाइल के हर एक एप्प को अच्‍छी तरह से चेकअप ना करले उससे पहले सुपुर्द नहीं करते। डिसचार्ज अवस्‍था में भी उससे छेड़छाड़ करे बिना नहीं रहते हैं। क्‍योंकि वे जानते है कि अभी तो सांस चल रही है। और जब तक मोबाइल में सांस है तब तक आस है।
अच्‍छा तो इसीलिए लल्‍लू छोरे को मोबाइल चलता देखकर प्रमुदित होता है।
काका! बच्‍चे को सारे दिन मोबाइल में उँगली करता देखकर माँ-बाप का खिलखिलाना। बच्‍चे के बचपन पर कुठाराघात करना है। सुरम्‍य सृष्टि को निहारने वाली दृष्टि को समय से पूर्व चश्‍में में गिरफ्त करना हैं। मोबाइल से होने वाली नोमोफोबिया जैसी बीमारियों को न्‍योता देना हैं।
यह सुनकर काका हँसने लगा। ‘भला मोबाइल से भी बीमारी होती है क्‍या? मोबाइल में तो दुनिया समाई हुई हैं। जिसे लोग तो दिनभर गर्दन झुकाकर टकटकी लगाए देखते रहते हैं। परसों ही गुलाब की लुगाई की लोकेशन मोबाइल ने ही बताई थी। जिसके साथ गुल खिलाने के लिए भागी थी उसको साथ में पकड़वाया था। जो सबकी खोज-खबर रखता है। भला उससे बीमारी कैसे होगी?
मैंने बोला,'अब तुम्‍हें कैसे समझाऊं? मोबाइल की बीमारी तो रामदुलारी ही बता देगी।
ये सुनकर काका फिर से हँसने लगे। ‘रामदुलारी ओर उसे मोबाइल की जानकारी। उसे जानकारी होती तो वह मुझे जरूर बताती। पहले प्रयास में लॉक खोलने का हुनर सीखाती। वह पारंगत होती तो मैं लल्‍लू को देखकर किंकर्तव्‍यविमूढ़ क्‍यों होतालल्‍लू की मानिंद प्रमुदित होता।
अरे,काका! तुम ना मजे ले रहे हो। रामदुलारी ओर उसे ना हो मोबाइल की जानकारी। ये तो सरासर झूठ है। उसने तो फेसबुक पर मचा रखी धूम है। फेसबुक की दीवानी को यूं ना कहों अज्ञानी। बुरा मान जाएंगी रामदुलारी। लाड़ली है तुम्‍हारी। सच में कमाल तो रामदुलारी ने किया है। रोज मिलनी वाली वन जीबी का हर रोज पूरा इस्‍तेमाल किया है। जिस दिन वन जीबी से भी पार नहीं पड़ी तो हॉटस्‍पॉट से उधार लिया है। अब तो आपका सीना गर्व से फूल गया होगा। और एक पते की बात और बताओं काकादरअसल में रोज मिलनी वाली वन जीबी ने तो अज्ञानी को भी ज्ञानी बना दिया है।
इस बार काका गंभीर होते हुए बोले,‘तुम्‍हारे मुताबिक रामदुलारी को जानकारी होते हुए भी मुझे कुछ ना बताई। यहाँ तक की लॉक खोलना भी नहीं सिखाई। आज उसकी खैर नहीं। लेकिन मोबाइल से होने वाली यह नोमोफोबिया कौनसी बीमारी हैइसके बारे में आज से पहले कभी नहीं सुना। क्‍या टीबी,कैंसर से भी खतरनाक है। यह नोमोफोबिया है क्‍या भला? ’
काका को समझाना तो टेढ़ी खीर है। फिर भी प्रयास किया। मैंने उनसे पूछा ‘ काका! तुम मोबाइल के बगैर कितनी देर रह सकते हो।
काका बोला,‘ मोबाइल के बिना तो एक पल भी जीना मुहाल लगता है। मैं तो रात को भी बगल में रखकर सोता हूँ। बाथरूम भी जाता हूँ तो साथ ले जाता हूँ। आज के युग में मोबाइल ही तो सुख-दुख का संगी-साथी है। जैसा कि कुछ देर पहले तुमने ही बताया था।
इतना सुनते ही मेरे मुँह से तत्काल से निकल गया।‘ जो तुमने बताया वे नोमोफोबिया के ही लक्षण है।’ यह सुनकर काका चलते बने।

19 Aug 2018

मृत्युभोज की लपटें


मुर्दे की राख ठंडी भी नहीं हुई थी। मृत्युभोज की लपटें उठने लगी। उठती लपटों को बुझाने के बजाय सुलगाने लगे। लपटें श्मशान से घर तक आ गई। परिजनों को चपेट में लेने लगी। मृतक की पत्नी बेसुध थी। बच्चे विलाप में डूबे हुए थे। मृत्युभोज की लपटे छूते ही तिलमिला उठे। समाज बोल उठा,‘यह लपटें तो सहनी पड़ेगी। आज नहीं तो कल। इनसे बचना मुश्किल है। हर हाल में सहना होगा। बहरहाल सह लिया तो हर तरह से बच जाओगे।’

सांत्वना देने आए नाते-रिश्तेदारों ने भी समाज के वक्तव्य को विहित बताया। अपने वक्तव्य से चेताया भी। यहाँ हस्तियों को कब तक रखेंगेइन्हें गंगा में विसर्जित करनी होंगी। तभी मृतकी आत्मा को आत्मशांति मिलेगी। नहीं तो भूत-प्रेत बन जाएगा। भूत-प्रेत बन गया तो तुम्हें ही हैरान करेगा। मानते हैं इस वक्त लपटे तीव्र है पर जब तक सहन नहीं करोगे। तब तक धधकती रहेगी। बुझेगी नहीं। बल्कि बाद में तो समाज तानो का केरोसिन डालकर ज्यादा दहकाता रहेगा। उस वक्त तिलमिलाओगे ही नही। तड़पोगे भी। बाद में एक दिन चुपचाप सहन भी करोगे। तो अभी कर लो। मृत्युभोज भारी बोझ है। लंबे समय तक उठाए रखना मूर्खता है। इस बोझ को तो तेरहवीं पर ही उतार देना चाहिए। जो तेरहवीं पर नहीं उतारते हैं। वे इस के बोझ तले दबकर मर भी जाते हैं। कई मर भी गए हैं। जो इस बोझ तले दबकर मरते हैं,वे बोझ पर बोझ छोड़ जाते हैं। जो फिर पीछे वालो से उतारने से भी नहीं उतरता। इसलिए ज्यादा सोच-विचार मत करो,सहन कर लो।
सबकी सुनकर मृतक की पत्नी साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछती हुई बोली,‘सहन कैसे करेसहने के लिए पैसा चाहिए। पैसा है नहीं। जो था मृतक की बीमारी में लग गया। एकमात्र पचास हजार की एफडी बची है,जो बच्चों के भविष्य को संवारने में काम आएगी। एफडी तुड़वाकर सहन कर लिया तो बच्चों का भविष्य चौपट हो जाएगा। जब बच्चे काबिल होंगे। तब सहन कर लेंगे। बहरहाल तो मृत्युभोज की उठती लपटों पर पानी डालिए। हमें बचाइए। यहीं हमारे प्रति तुम्हारी सांत्वना होगी।’
उसकी संवेदना पर किसी ने भी सांत्वना की बाल्टी से पानी नहीं डाला। मरने वाला मर कर भी नहीं मरा था। बस उसका शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ था। मर गया होता तो मृत्युभोज की लपटें नहीं उठती। पता नहीं कब और किसकी मृत्यु पर यह लपटे उठी थी,जो आज तक नहीं बुझ पाई है। लपटे बेकाबू होने लगी। काबू में करने के लिए परिजनों ने संवेदना के पानी से भरी मटकिया उड़ेलने लगे। फिर भी मृत्युभोज की लपटें बुझी नहीं। बल्कि ज्यादा दहकने लगी। दहकती हुई चारों तरफ फैल गई। बचना मुश्किल था। अपनी आगोश में ले उससे पहले ही एफडी व कर्ज की फायर ब्रिगेड से नियंत्रण किया। 

यह देखकर खामोश हस्तियां भी हंसने लगी। बोली,‘यह कैसी रवायत है? हमें गंगा में विसर्जित करने के लिए इस तरह तामझाम। कुटुंब सहित गंगा स्नान। मृत्युभोज के नाम पर सामूहिक भोज। जिसमें एक से बढ़कर एक पकवान। मेहमानों को स्मृति भेट। जानवर भी अपने साथी के मरने पर वियोग करते हैं और यहाँ मनुष्य अपने सगे-संबंधी के मरने पर भोज करने पर तुले हैं। खुशी के मौके पर तो मिठाइयां चलती है पर मरने पर शर्मनाक है। यह व्यर्थ खर्च नहीं तो और क्या है? यह तो पीड़ादायक कुरीति है।’

पर हस्तियों की सुनने वाला कौन था? वे तो मटकी के अंदर थी। ऊपर से मुँह सफेद कपड़े से  बंधा हुआ था। बाहर तो आवाज ही नहीं पहुँची होगी। जिस दिन मटकी के मुँह पर से सफेद कपड़ा हट गया। खुद हस्तियां ही मृत्युभोज पर प्रतिबंध लगा देंगी। अंततः अस्थियां गंगा में विसर्जित की गई और तेरहवीं पर मृत्युभोज होकर ही रहा।