मुर्दे की राख ठंडी भी नहीं
हुई थी। मृत्युभोज की लपटें उठने लगी। उठती लपटों को बुझाने के बजाय सुलगाने लगे। लपटें श्मशान से
घर तक आ गई। परिजनों को चपेट में लेने लगी। मृतक की पत्नी बेसुध थी। बच्चे विलाप में डूबे हुए थे। मृत्युभोज की लपटे छूते ही तिलमिला उठे। समाज बोल उठा,‘यह लपटें तो सहनी पड़ेगी। आज नहीं तो कल। इनसे बचना मुश्किल
है। हर हाल में सहना होगा। बहरहाल सह लिया तो हर तरह से बच जाओगे।’
सांत्वना देने
आए नाते-रिश्तेदारों ने भी समाज के वक्तव्य को विहित बताया। अपने वक्तव्य से
चेताया भी। यहाँ हस्तियों को कब तक रखेंगे? इन्हें गंगा में विसर्जित करनी होंगी। तभी मृतकी आत्मा को
आत्मशांति मिलेगी। नहीं तो भूत-प्रेत बन जाएगा। भूत-प्रेत बन गया तो तुम्हें ही
हैरान करेगा। मानते हैं इस वक्त लपटे तीव्र है पर जब तक सहन नहीं करोगे। तब तक
धधकती रहेगी। बुझेगी नहीं। बल्कि बाद में तो समाज तानो का
केरोसिन डालकर ज्यादा दहकाता रहेगा। उस वक्त तिलमिलाओगे ही नही। तड़पोगे भी। बाद
में एक दिन चुपचाप सहन भी करोगे। तो अभी कर लो। मृत्युभोज भारी बोझ है। लंबे समय
तक उठाए रखना मूर्खता है। इस बोझ को तो तेरहवीं पर ही उतार देना चाहिए। जो तेरहवीं पर
नहीं उतारते हैं। वे इस के बोझ तले दबकर मर भी जाते हैं। कई मर भी गए हैं। जो
इस बोझ तले दबकर मरते हैं,वे बोझ पर बोझ छोड़ जाते हैं। जो
फिर पीछे वालो से उतारने से भी नहीं उतरता। इसलिए ज्यादा सोच-विचार मत करो,सहन कर लो।
सबकी सुनकर मृतक की पत्नी साड़ी के पल्लू से आँसू पोंछती हुई बोली,‘सहन कैसे करे? सहने के लिए पैसा चाहिए। पैसा है नहीं। जो था मृतक की बीमारी में लग गया। एकमात्र पचास हजार की एफडी बची है,जो बच्चों के भविष्य को संवारने में काम आएगी। एफडी
तुड़वाकर सहन कर लिया तो बच्चों का भविष्य चौपट हो जाएगा। जब बच्चे काबिल होंगे।
तब सहन कर लेंगे। बहरहाल तो मृत्युभोज की उठती लपटों पर पानी डालिए। हमें बचाइए।
यहीं हमारे प्रति तुम्हारी सांत्वना होगी।’
उसकी संवेदना पर
किसी ने भी सांत्वना की बाल्टी से पानी नहीं डाला। मरने वाला मर कर भी
नहीं मरा था। बस उसका शरीर पंचतत्व में विलीन हुआ था। मर
गया होता तो मृत्युभोज की लपटें नहीं उठती। पता नहीं कब और किसकी मृत्यु पर यह
लपटे उठी थी,जो आज तक नहीं बुझ पाई है। लपटे बेकाबू होने लगी। काबू में करने
के लिए परिजनों ने संवेदना के पानी से भरी मटकिया उड़ेलने लगे। फिर भी मृत्युभोज
की लपटें बुझी नहीं। बल्कि ज्यादा दहकने लगी। दहकती हुई चारों तरफ फैल गई। बचना
मुश्किल था। अपनी आगोश में ले उससे पहले ही एफडी व कर्ज की फायर ब्रिगेड से नियंत्रण किया।
यह देखकर खामोश
हस्तियां भी हंसने लगी। बोली,‘यह कैसी रवायत है? हमें
गंगा में विसर्जित करने के लिए इस तरह तामझाम। कुटुंब सहित गंगा स्नान। मृत्युभोज के नाम पर सामूहिक भोज। जिसमें एक से बढ़कर एक पकवान। मेहमानों को स्मृति भेट। जानवर
भी अपने साथी के मरने पर वियोग करते हैं और यहाँ मनुष्य
अपने सगे-संबंधी के मरने पर भोज करने पर तुले हैं। खुशी के मौके पर तो मिठाइयां
चलती है पर मरने पर शर्मनाक है। यह व्यर्थ खर्च नहीं तो और क्या है? यह तो पीड़ादायक कुरीति है।’
पर हस्तियों की सुनने वाला कौन था? वे तो मटकी के अंदर थी। ऊपर से मुँह सफेद कपड़े से बंधा हुआ था। बाहर तो आवाज ही नहीं पहुँची होगी। जिस दिन मटकी के मुँह पर से सफेद कपड़ा हट गया। खुद हस्तियां
ही मृत्युभोज पर प्रतिबंध लगा देंगी। अंततः अस्थियां गंगा में
विसर्जित की गई और तेरहवीं पर मृत्युभोज होकर ही रहा।
No comments:
Post a Comment