मैं जन्म से ही दुबला-पतला था। इसकी
पुष्टि उस फोटू से होती है,जो मेरे शैशवकाल की एकमात्र फोटू है। जिसमें मेरी मां
और दादाजी कुरसी पर बैठी हुई हैं और मैं मां की गोद में बैठा हुआ शायद कैमरे की ओर
निहार रहा हूं। उस वक्त मेरी उम्र यहीं कोई साल-डेढ़ साल की रही होगी। मां बताती
है कि मैं इतना कमजोर पैदा हुआ था कि अड़ोसी-पड़ोसी यह कहते थे कि यह छोरा तो
मुश्किल ही जी पाए। कहते है कि मां की ममता तथा मां के दूध में वह ताकत होती है कि
वह निर्बल को भी बलवान बना देती है। इसी ताकत ने मुझे शक्ति प्रदान की और मैं
आठवें या नौवें महीनें में ही ठुमक-ठुमक कर चलने लगा।
दस-ग्यारह माह की उम्र में एक रोज
आंगन में खेलते-खेलते छत पर जा पहुंचा। और वहीं खेलने में मशगूल हो गया। जब मां को
मेरा ख्याल आया तो मैं नदारद था। इर्द-गिर्द देखा। नहीं मिला। सोचा यहीं-कहीं खेल
रहा होगा। गृहस्थी के कामकाज में जुट गई। घंटा आध घंटा बाद फिर ख्याल आया तो
कहीं नहीं दिखा। फिर मां घर से बाहर निकली। अड़ोसी-पड़ोसियों से पूछा। मोहल्ले
में ढूंढ़ा। लेकिन कहीं नहीं मिला। हताश होकर मां घर लौट आई। एकाएक मां की नज़र
मुझे पर गई और मुझे छत पर देखकर आंखे फटी की फटी रह गई। छत पर कैसे चढ़ा? कब चढ़ा?
जैसे प्रश्न मां के मन में ही कौंधने लगे। मां ने बताया कि उस वक्त
मैं घबरा गई थी। पकड़ने जाऊं और मुझे देखकर भागने ना लग जाए। अगर भागने लगा तो
नीचे आ गिरेगा। यहीं सोचकर मां घबरा गई थी। मां ने सूझबूझ से काम लिया। बिना पदचाप
किए धीरे-धीरे छत पर जा पहुंची। पीछे से मुझे जकड़ लिया। जैसे-तैसे गोद में उठाकर
मुझे नीचे लेकर आई। तब मां ने राहत की सांस ली। इस घटना के बाद मां ने कभी भी मुझे
ओझल नहीं होने दिया।
शैशवकाल के बाद बाल्यकाल में मैंने
आनंदक्रीड़ा का आनंद लिया। उछलकूद,लम्बीकूद,रस्सीकूद तो यह मानों कि आंख मूंदकर
कूदी। साईकल का टायर दौड़ाने में अग्रगामी था। स्कूल की छूट्टी के दिन तो साईकल
के टायर की खूब पिटाई करता था। दिनभर हम सब टायर ही पिटने में लगे रहते थे। ये
देखकर पिताजी कुपित हो जाते थे। हाथ से टायर छीनकर छप्पर पर प्रक्षेपित कर देते
थे। और नसीहत से छोली भर देते थे। पढ़ता-लिखता तो है नहीं और दिनभर टायर पिटता
रहता है। कमबख्त कहीं का। उस वक्त तो मैं पिटाई के डर के मारे चुपचाप पढ़ने बैठ
जाता था। जैसे ही पिताजी इधर-उधर हुए कि छप्पर पर से टायर को उतारने के लिए
उतावला रहता था। जैसे ही मौका मिलता उतार लेता था। छप्पर पर चढ़ने उतरने में
मददगार नीम का पेड़ था। जो कि छप्पर के पास मौजूद था।
एक बार तो मैं बाल-बाल ही बचा। हुआ
यूं कि नीम की जिस डाली को पकड़कर छप्पर पर उतर रहा था वह डाली टूट गई और मैं
सीधे नीचे आ थमा। गनीमत यह रही कि मुझे खंरोच तक नहीं आई। अन्यथा खंरोच पर मरहम
पट्टी की जगह पापाजी से फटकार की मरहम पट्टी बांधनी पड़ती। और टायर छप्पर के
बजाया कुंए में प्रक्षेपित होता। या फिर कई दिनों तक टायर पिटने से महरूम होना
पड़ता।
गिल्ली डंडा,लुका-छिपी,सतोलिया,कंचा
भी बारी-बारी से खेलता था। यह सब खेल मेरे प्रिय खेल थे। कंचा खेलने में तो मैं
उस्ताद था। मकर संक्रांति के दिनों में तो पेंट की दोनों जेब कंचों से भरी रहती
थी। पतंगबाज़ी का तो इत्ता उन्माद था कि कठाके की सर्दी में भी पेंच लड़ाने में पहुंच
जाता था। यह देखकर कठाके की सर्दी भी छुमंतर हो लेती थी। शहरों की मानिंद हम छत पर
पेंच नहीं लड़ाते थे। खेत खलियानों में ही पतंग की डोर खींचते थे। एक बार घर से
पतंग लेकर निकल गए तो शाम को ही वापस लौटते थे।
बचपन में खेलते-कूदते खेत-खलियानों
में घूमते वक्त नीम व पीपल के पेड़ के कोटर से तोते के बच्चे पकड़कर घर ले आता
था। कभी पिल्ला पकड़कर ले आता था। लेकिन कोई भी तोता का बच्चा सप्ताह भर से ज्यादा
दिन का मेहमान नहीं रहा। नहीं रहने के पीछे दो ही कारण थे। पहला- बिल्ली नहीं
रहने देती थी। पकड़कर खा जाती थी। दूसरा कारण था कि खुद खा पीकर फुर्र हो जाते थे।
ऐसा भी नहीं था कि उनके रहने की जगह असुरक्षित थी। बाकायदा तूली का पिंजरा बनाकर
पिंजरा प्रवेश करवाता था। उस में रहने-सहने से लेकर दाना-पानी की उत्तम व्यवस्था
करता था। फिर भी उन्हें पिंजरा रास नहीं आता था और जैसे-तैसे पिंजरे से निकलकर
फुर्र हो जाते थे। उस वक्त बालमन को ये थोड़ी पता था कि उन्मुक्त पंछी पिंजरे
में नहीं रहते। वे तो गगन तले उन्मुक्त उड़ते हैं और बिना किसी भेदभाव,मनमुटाव,जाति-धर्म
से अलहदा किसी भी मंदिर-मस्जिद में अपना आशियाना बनाकर मिल-झुलकर साथ-साथ रहते हैं।
पिल्लों को तो मैं देशी घी के बने
लड्डू खिलाता था। लेकिन वे भी खा-पीकर चलते बनते थे। मैंने एक काला पिल्ला पाला
था,जो खा-पीकर नहीं भागा। भागता कैसे? उसको मैंने देशी घी के लड्डू ही नहीं
खिलाया। बल्कि अपने साथ अपने बिस्तर पर सुलाता था। एक दिन उसे देखकर एक बालमित्र
बोला। बालकपन में बालमित्र ही होता है। ‘ये पिल्ला तो बहुत सुंदर है। लेकिन ये ओर
भी सुंदर दिख सकता’ मैंने पूछा-‘कैसे?’ वह बोला-‘इसके दोनों
कान आधे काट दो। फिर देखना।’ ये सुनकर मैं बोला-‘पिल्ले के कुछ हो गया तो।’ वह
बोला-‘कुछ नहीं होगा।’ उस वक्त बालमित्र से बालमन ने सवाल किया। ‘कान काटेंगा कौन?’ यह सुनकर बालमित्र तपाक से बोला-‘अपन दोनों ही काट देंगे। ऐसा करना तू
तो पकड़ लेना और मैं काट दूंगा।’ मैं बोला-‘ठीक है।’ हम दोनों पिल्ले को लेकर
खेतों में चले गए। उसने एक कान तो काट दिया था। दूसरा कान आधे से कम कटा होगा कि
बालमित्र को काटकर भाग गया। दोनों के दोंनों उसके पीछे-पीछे भागे भी काफी दूर तक
लेकिन पकड़ में ही नहीं आया। कुछेक दिन तो कहीं भी दिखाई नहीं दिया। एक दिन अवारों
कुत्तों के झुंड में नज़र आया तो मैंने पकड़ने की कोशिश की लेकिन हाथ नहीं आया।
जब भी कहीं भी मिलता तो मुझे देखते ही दुम दबाकर भाग जाता था। मुझे ऐसा लगता है
शायद उस दिन के बाद उसे भय हो गया कहीं पकड़कर कान नहीं काट ले। वह जब तक जीवित
रहा मोहल्लें में रहा और अधकटा कान लटकता ही रहा। जब भी मैं उसे देखता तो मुझे
बहुत दुख होता और बालमित्र पर गुस्सा भी आता। उस वक्त भी यहीं सोचता था और आज भी
कि उस दिन बालमित्र की बात टाल देता तो पिल्ला इस तरह दुम दबाकर नहीं भागता।
बल्कि दुम हिलाता हुआ आता।
एक किस्सा तब का है। जब मैं सातवीं
कक्षा में पढ़ता था और गणतंत्र दिवस की तैयारी हेतु एक दिन पूर्व शाला गणवेश के
प्रेस करना था। उन दिनों कोयले की प्रेस का प्रचलन था। होने को तो इलेक्ट्रॉनिक
प्रेस भी थी। लेकिन कोयले की प्रेस खुद के नहीं तो अड़ोसी-पड़ोसी के अवश्य मिल ही
जाती थी। लेकिन उस दिन मुझे किसी के भी प्रेस नहीं मिली। तब मेरे दिमगा में आइडिया
आया कि क्यों ना थाली में कोयले सुलगाकर प्रेस किया जाए। मैं बिना समय गंवाहे
प्रेस करने में जुट गया। जैसे ही शर्ट पर थाली रखी शर्ट थाली के चिपक गई। उस दिन
मैं बहुत रोया। रोया इसलिए कि मास्साब ने कहा था कि जो भी विद्यार्थी यूनिफार्म
नहीं पहनकार आएंगा। उसकी अगले दिन अच्छे से धुनाई होगी। इस भय के कारण में गणतंत्र
दिवस के दिन ही नहीं। बल्कि उसके अगले दिन भी स्कूल नहीं गया। इस तरह के बचपन उन
तमाम लम्हों को आज याद करते हैं तो वे दिन ताजा हो जाते हैं और मन कहता वे दिन
वापस लौट आए तो कितना मजा आए।
यहां बात लेखनी की करे तों मेरे लेखन
की शुरूआत तब से हुई जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ता था। तब मैंने अपने समाज के एक
पाक्षिक अखबार में ‘राजनीति का भंवरा’ शीर्षक से कविता भेजी। लेकिन वह तो छपी नहीं
और किसी ओर की कविता मेरे नाम से प्रकाशित हो गई। मुझे बधाई भी प्राप्त हुई। वह
कविता भी छपी। लेकिन काफी दिनों बाद में। इसके बाद लम्बे अंतराल तक कुछ भी नहीं
लिखा। अक्टुम्बर 2011 से मैंने समाज के ही पाक्षिक अखबार रघुवंशी रक्षक पत्रिका
के लिए सामाजिक खबरें एवं सामाजिक उत्थान एवं सामाजिक करूतियों पर आलेख लिखने लगा।
इन्हें दिनों से यदा-कदा राजस्थान पत्रिका एवं डेली न्यूज के पाठक पीठ में भी छपने
लगा। 10 फरवरी 2015 को दैनिक जनवाणी में मेरी पहली व्यंग्य रचना ‘सम्मान समारोह
में शिरकत’ प्रकाशित हुई और इसके बाद में साल भर के लिए अंतराल का ताला लग गया। इस
अंतराल में तीन कहानी अवश्य छपी। लेकिन व्यंग्य आलेख नहीं छपे। मैं अनवरत व्यंग्य
लिखता रहा। न छपने पर कभी भी हताश नहीं हुआ। इस दौरान फेसबुक के जरिए मेरी मित्रता
श्री निर्मल गुप्त सरजी हुई और उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया। जिनकों मैं अपना
व्यंग्य गुरु मानता भी हूं। इन्हीं के शुभ आशीष से 16 मार्च 2016 को दैनिक ट्रिब्यून
में छपी व्यंग्य रचना के बाद लम्बा अन्तराल नहीं लगा।
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