‘आप
बदल गए हैं।’ यह पत्नी का कहना था। घर में रहना है,तो पत्नी के
कथन में हां में हां और ना में ना मिलाना ही पड़ता है। नहीं मिलाए तो वैवाहिक जीवन
तू-तू मैं-मैं में व्यतीत होगा। इस सबसे तनाव होगा। तनाव होगा तो खींचतान होगी।
खींचतान होगी तो प्रेम का धागा टूटेगा। एक बार धागा टूट गया तो वापस जोड़ने के लिए
फिर गांठ ही लगती है। कई ऐसे भी धागे होते हैं, जिनमें गांठ भी नहीं लगती। उनकी सीधी कोर्ट में पेशी लगती है।अधिकतर पेशियों का अंतिम परिणाम वही तीन बार बोलने वाला कुछ होता है,जिसके पीछे आजकल सरकार पड़ी है।
मुझमें
ऐसा क्या बदलाव आ गया,जो मुझे ही दिखाई नहीं दे रहा है और पत्नी को दिख रहा है! न मोटा हुआ हूं ,न दुबला। न स्वभाव बदला है,न रंग-रूप। मूंछें भी
इंची टेप से नापकर ही कटवा रहा हूं। सोचा पत्नी से ही
पूछ लेता हूं। सो मैंने पूछ
ही डाला।
वह
बोली,‘देखिए जी! कई दिनों से देख रही हूं कि...’ मुझ चिर-
जिज्ञासु ने बीच में ही टोक दिया,‘क्या देख रही हो?’ वह फिर बोली,‘ यही कि आप बदल गए हैं।’ अब
मेरा गुस्सा होना नैतिक रूप से जायज था,मगर पत्नी के सामने
कैसी नैतिकता। नैतिकता के सारे मानदंड पत्नियों के सामने ही तो टूटते हैं! इसलिए
मैंने अपना गुस्सा लोकसभा स्पीकर की तरह पीते हुए मन व झक, दोनों
मारकर कहा,‘हें...हें...हें... कहां बदला हूं पगली, वैसा का वैसा तो हूं। देख जरा! वही चाल वैसा ही बेहाल!’
मेरी
नकली मुस्कराहट को उसने वैसे ही लपक कर पकड़ लिया, जैसे दीवार पर
छिपकलियां मासूम मच्छरों को धप से पकड़़ लिया करती हैं। मुझे गिरफ्त में आता और
गिड़गिड़ाता देख मुझे गुलाम पर उसने तुरुप का इक्का चला दिया, ‘आजकल आप बहुत खिले-खिले रहते हो।’
मैं चौंका!...
और मैं क्या, मेरी सात पुश्तें चौंक गई। मैं तुरंत बोल पड़ा,‘तुम ही तो कहती थी,सूमड़े- सट्ट मत रहा करो, थोड़ा बोला-चाला करो, लोग
पीठ पीछे आपको आलोकनाथ बोलते हैं। जब तुमने इतना सब कहा था तो अपन थोड़ा हंसने-बोलने लगे।’
‘
हां, हंसो-बोलो, मगर
इतना भी खुश मत रहो कि लोग मुझ पर शक करने लगें?’
इस
बार मुझे अपनी सगी पत्नी,
पत्नी वाले रोल में दिखाई दी। वह पत्नी ही क्या, जो पति को खुश रह लेने दे! मैं उसकी
यह पीड़ा समझ गया था कि मैं उसका पति होने बावजूद पीड़ित जैसा क्यों नहीं लग रहा
था! मैंने तुरंत अपना सॉफ्टवेयर बदला। उस दिन से मैं फिर सूमड़ा-सट्ट हो गया।
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