30 Aug 2019

बधाई ही बधाई


आजादी दिवस पर देशभक्तों की देश भक्ति जितनी सोशल मीडिया पर दिखी,उतनी धरातल पर नहीं दिखी। शायद ही कोई ऐसी फेसबुक वॉल बची होगी,जिस पर तिरंगा नहीं लहराया हो। यहां पर लहराते तिरंगे को भले ही सलामी का सौभाग्य नहीं मिला हो,पर लाइक भरमार मिले हैं। जय हिंद की गूंज से कईयों की फेसबुक वॉल के कमेंट बॉक्स मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होते हुए दिख रहे थे। मेरे व्हाट्सएप पर व्हाट्सएप ग्रुप तो आजादी के जश्न में इतने मग्न थे कि दिनभर आने वाले गुड मॉर्निंग जैसे महत्वपूर्ण मैसेज को भी नहीं देख पाए। देश भक्ति से मेरे फोन की इमेज गैलरी खचाखच भर गई थी। किसकी डिजिटल देशभक्ति को डिलीट करूं और किसकी को नहीं। इस दुविधा में मैं तो शाम को डेयरी से दूध लाना भी भूल गया था।
स्कूल व कॉलेजों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों को  देखने वाले प्रत्यक्षदर्शी उतने नहीं दिखे,जितने फेसबुक पर लाइव देखने वाले दिख रहे थे। यह तालियों की जगह लाइक और कमेंट करके बालक बालिकाओं का हौसला अफजाई तो कर रहे थे। मगर मंच तक इनकी हौसला अफजाई पहुंच नहीं पा रही थी। जो लाइव दिखा रहा था वही ग्रहण करके पुलकित हो रहा था। कई तो अपनी फेसबुक वॉल को ही लाल किले की प्राचीर समझकर देशवासियों को संबोधित कर रहे थे। जबकि इनका संबोधन कोई सुन ही नहीं रहा था। बस लाइक करके आगे निकल रहे थे।
फेसबुक पर रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस के उपलक्ष्य में शुभकामना देने वाली पोस्टर पोस्ट तो बहुतायत दिखी। मगर समस्त देशवासियों को शुभकामनाएं देने वाली पोस्ट उतनी नहीं दिखी,जितनी क्षेत्रवासियों को देने वाली दिखी। इन क्षेत्रवासियों की पोस्ट को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कि शुभकामना पर भी जीएसटी लगी हो। जिसके कारण यह समस्त देशवासियों के बजाय अपने ग्रामवासियों तथा शहरवासियों तक ही सीमित रहे हो। 
लेकिन इन क्षेत्रवासियों में कईयों की शुभकामनाएं यूं ही नहीं दी गई है। अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दी गई है। इनमें से कोई चुनाव लड़ने का इच्छुक है तो कोई लड़ चुका है। इसलिए यह लोग इस तरह की शुभकामनाओं के जरिए अपने आप को जनता के समक्ष पेश करते हैं कि आगामी चुनाव में हम भी मैदान में होंगे। हमारा भी ध्यान रखिएगा। यह पोस्ट पर कमेंट्स की बढ़ोतरी देखकर उसी तरह मन ही मन प्रमुदित होते रहते हैं। जिस तरह मतगणना के समय मतों की बढ़ोतरी देखकर नेतागण होते हैं। हर दस मिनट बाद में फेसबुक नोटिफिकेशन देखते रहते हैं। दिल वाली आकृति की इमोजी से लाइक करके रिप्लाई देते हैं।

18 Aug 2019

नाम में कुछ नहीं रखा


कई दिनों से अपने नाम को लेकर हैरान हूँ। हैरान इसलिए हूँ कि एक दिन एक मित्र ने यह कह दिया-अपना नाम बदल लीजिए। मैंने उससे पूछा, 'नाम बदलने से क्या होगा?' उसने जवाब दिया,'एक बार बदलकर तो देखिए। फिर देखना होता क्या है?' दरअसल उसने ही बताया कि आपका नाम यानी की मेरा नाम मेरे मुताबिक जम नहीं रहा है। मैंने सुना है कि मित्र का मंतव्य ही गंतव्य तक पहुंचाता है। इसलिए मैंने अपना नाम बदल लिया। बदले नाम से एकाध रचना भी प्रकाशित करवा ली। मन में उत्कंठा उत्पन्न हुई कि,जो मूल नाम से यश-कीर्ति प्राप्त नहीं हुई,हो सकता है परिवर्तन नाम से हो जाए। यहीं सोचकर मैंने अपने नाम में से मध्यम हटा दिया। प्रथम और अंतिम रख लिया। सम्पूर्ण परिवर्तन तो कर नहीं सकता। सम्पूर्ण परिवर्तन करने का अभिप्राय है अपना जो अस्तित्व है उसे विलुप्त करना।

सुना है कि नाम की बड़ी महत्ता होती है। यह अलग बात है कि कईयों कि नाम के विपरीत मनोदशा होती है। जैसे कि नाम तो रोशन लाल है,पर रहता बेचारा अँधेरे में है। इसी तरह नाम तो शमशेर बहादुर सिंह है,पर मरे ना चूहा भी। कद का ठिगना है,पर नाम लम्बरदार है। रंग का काला है,पर नाम सुन्दर और रंग का गोरा है,पर नाम कालू है। देह दुबली पतली है और नाम मोटूराम है। अष्ट-पुष्ट,लम्बी-चौड़ी कद-काठी है,पर नाम छोटूराम। कई होते तो मर्द हैं,पर उनके नाम में औरत का नाम पहले आता हैं। जैसे कि दुर्गाप्रसाद,लक्ष्मी नारायण,सीताराम,आदि-इत्यादि। कईयों के नाम बड़े-अटपटे होते हैं,पर उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है और कईयों के नाम भगवान के नाम पर होते हैं,फिर भी उन्हें आधे-अधूरे नाम से सम्बोधित किया जाता है। मसलन,नाम तो है ‘हनुमान’ और बुलाते है ‘हड़मान

मैंने अपना नाम परिवर्तन क्या कियाअड़ोसी-पड़ोसी आपत्ति जताने लगे। जबकि नाम मैंने परिवर्तन किया है और आपत्ति वे जता रहे हैं। पड़ोसी गंगाराम ने बताया कि भाई नाम परिवर्तन से कुछ नहीं होता। नाम तो काम से होगा। नाम तो मुंबई,कोलकाता,चेन्नई,वाराणसी,सहित कई शहरों के भी बदले गए है। लेकिन हुआ क्याक्या वे शहर इधर से उधर हो गएयहाँ फिर उनके पंख लग गए,जिधर मन किया उधर की उड़ चले। वे वहीं स्थित हैं,जहाँ थे। पड़सोसियों कि ओर से इस तरह के सुझाव सुनकर मैं असमंजस में हूँ। इस सोच में डूबा हुआ हूँ कि मित्र ने भी कुछ ना कुछ उधेड़बुन कर ही ऐसी राय दी होगी। अन्यथा आज के युग में भला ऐसी  राय कौन देता है?

एक पड़ोसी ने तो यह तक कह दिया,'भाई! नाम अमर रखने से कोई अमर नहीं हो जाता। उसे भी मरना तो पड़ता ही है। लक्ष्मी नाम है तो इसका मतलब यह थोड़ी है कि कुबेर का खजाना उसी के पास है। नाम सत्यराम है तो यह जरूरी थोड़ी है कि वह झूठ नहीं बोलेंगा। इसी तरह नाम दया है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे क्रोध नहीं आएंगा। भाई नाम तो नाम होता है। नाम चाहे बड़ा हो। चाहे छोटा हो। उसके काम के अनुरूप ही उसका नाम बड़ा होता है।'

इत्ती सी बात मेरे समझ में कैसे नहीं आयी और पड़ोसी ने कतिपय नामों के जरिए ही समझा दिया। लेकिन एक बात अब भी समझ में नहीं आयी। मित्र ने नाम परिवर्तन का सुझाव क्यों दियाखैर छोड़िएकई दिनों से जो उलझन बनी हुई थी वह सुलझ गई और नाम की महत्ता का भी ज्ञान हो गया।

2 Aug 2019

खूँटी का खोट


घर के स्टोर रूम में रखा छाता अपने ऊपर बने मकड़ी जाल को हटाकर और धूल मिट्टी को झाड़कर,बारिश से नाता जोड़ने के लिए,बरामदा की खूँटी पर आकर लटक गया है। कई दिनों से अकेलापन महसूस कर रही खूँटी भी छाता के टँगने के बाद फूली नहीं समा रही है। इसे पता है कि छाता बारिश में भीगकर आएगा तो मेरे ऊपर भी कुछ बूँदें तो मेहरबान होंगी। मैं भी बारिश के पानी से स्नान कर ही लूंगी। बारिश में नहाने का मन भला किसका नहीं होता है। हर किसी की इच्छा होती है कि झमाझम बारिश हो तो मैं भी स्नान करूं। स्नान का फेसबुक पर लाइव टेलीकास्ट करूं। अपने एफबी मित्रों को बूँद- बूँद का चित्र दिखाकर,उन्हें जोड़े रखू।
खूँटी पर लटका हुआ छाता भी कुछ इसी तरह के सपने संजोए हुए बादलों को निहार रहा है। बादल है कि कभी बन रहे हैं तो कभी बिगड़ रहे हैं। मगर झगड़ नहीं रहे हैं। मनुष्य की तरह एक-दूसरे की टाँग नहीं खींच रहे हैं। बल्कि हाथ पकड़कर साथ ले चल रहे हैं। जो पीछे रह रहा है उसे आगे वाला अपना हाथ आगे बढ़ाकर अपने साथ कर लेता है। बादलों का इतना आपसी प्यार देखकर छाता भी खूँटी से प्यार का इजहार करने लगता है। लेकिन खूँटी है कि आज तक किसी एक की हुई ही नहीं। कोई भी उसके संग दो-चार दिन से ज्यादा दिन तक टिकता नहीं है। चाहे राशन से भरा थेला हो या परिधान हो या फिर लटकने वाली अन्यत्र कोई भी वस्तु हो। इसमें खूँटी का भी खोट नहीं है। इसके प्यार का तो मनुष्य दुश्मन है,जो कि इस पर टंगी वस्तु से आँखें चार होते ही उसे इस पर से उतारकर अलहदा कर देता है। जबकि मनुष्य अपनी शर्म तक को खूँटी पर टांगते हुए नहीं शर्माता है। मगर जब खूँटी को शर्म से इश्क हो जाता है। तब खुद इतना बेशर्म हो जाता है कि शर्मिंदगी भी शर्म से पानी-पानी हो जाती है। 
छाता भी भली-भाँति जानता है कि बारिश हुई तब भी और नहीं हुई तब भी खूँटी के संग तो जिंदगी व्यतीत करना नामुमकिन है। मगर जब तक हैं,तब तक बादलों की तरह मिलजुलकर रहना चाहिए। जो गरजते भी साथ में हैं और बरसते भी साथ में है। एक हम हैं,जो कि गरजते साथ में है तो बरसते नहीं और बरसते हैं तो गरजते नहीं।
हर छाता खुद भीगकर अपने मालिक को बारिश से बचाकर उसके गंतव्य तक पहुँचाने में ही अपना जीवन सार्थक समझता है। मगर यह सौभाग्य भी हर किसी छाते को नसीब नहीं होता है। कई रंग-बिरंगे छाते तो बेचारे धूप में जलकर इतने काले पड़ जाते हैं कि आईने में अपनी शक्ल देखकर,अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं। 
आज भी कई छातों की आत्मा इसलिए भटक रही है की उन्हें उनकी छोटी सी उम्र में बारिश का वह सुख प्राप्त नहीं हुआ जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। इनकी आत्मशांति के लिए इनके वारिस मनुष्य के सिर के ऊपर सीना तानकर तने रहते हैं। दिनभर चिलचिलाती धूप में जलते रहते हैं,मगर बारिश को कभी भी नहीं कोसते। बल्कि बरसने के लिए,गुहार लगाने में लगे रहते हैं। फिर भी बारिश का दिल नहीं पसीजता है। हम पर नहीं तो कम से कम इन पर तो मेहरबान हो जाए। ताकि यह अपने पूर्वजों की अंतिम इच्छा के पुण्य से कृतार्थ हो जाए।
खूँटी पर लटका छाता अपने मालिक के हाथों का स्पर्श पाने के लिएखुद फर्श पर नीचे आ गिरा। ताकि मालिक भागकर आए और उठाकर कई दिनों से बंद पड़े को खोलकर दुनियादारी से परिचित करवाएगा। लेकिन सोचा जैसा हुआ नहीं। मालिक ने उसे उठाकर वापस खूँटी पर टाँग दिया। यह देखकर छाता ताकता ही रह गया। कहने सुनने की तो उसके मुँह में जबान नहीं थी।