घर
के स्टोर रूम में रखा छाता अपने ऊपर बने मकड़ी जाल को हटाकर और धूल मिट्टी को
झाड़कर,बारिश से नाता जोड़ने
के लिए,बरामदा की खूँटी पर आकर लटक
गया है। कई दिनों से अकेलापन महसूस कर रही खूँटी भी छाता के टँगने के बाद फूली
नहीं समा रही है। इसे पता है कि छाता बारिश में भीगकर
आएगा तो मेरे ऊपर भी कुछ बूँदें तो मेहरबान होंगी। मैं
भी बारिश के पानी से स्नान कर ही लूंगी। बारिश में नहाने का मन भला किसका नहीं
होता है। हर किसी की इच्छा होती है कि झमाझम बारिश हो तो मैं भी स्नान करूं। स्नान
का फेसबुक पर लाइव टेलीकास्ट करूं। अपने एफबी मित्रों
को बूँद- बूँद का चित्र दिखाकर,उन्हें जोड़े रखू।
खूँटी
पर लटका हुआ छाता भी कुछ इसी तरह के सपने संजोए हुए बादलों को निहार रहा है। बादल
है कि कभी बन रहे हैं तो कभी बिगड़ रहे हैं। मगर झगड़ नहीं रहे हैं। मनुष्य की तरह
एक-दूसरे की टाँग नहीं
खींच रहे हैं। बल्कि हाथ पकड़कर साथ ले चल रहे हैं। जो
पीछे रह रहा है उसे आगे वाला अपना हाथ आगे बढ़ाकर अपने साथ कर लेता है। बादलों का
इतना आपसी प्यार देखकर छाता भी खूँटी से प्यार का इजहार
करने लगता है। लेकिन खूँटी है कि आज तक किसी एक की हुई
ही नहीं। कोई भी उसके संग दो-चार दिन से ज्यादा दिन तक
टिकता नहीं है। चाहे राशन से भरा थेला हो या परिधान हो या फिर लटकने वाली अन्यत्र कोई भी वस्तु हो। इसमें
खूँटी का भी खोट नहीं है। इसके प्यार का तो मनुष्य
दुश्मन है,जो कि इस पर टंगी वस्तु से आँखें चार होते ही उसे इस पर से उतारकर अलहदा कर देता है।
जबकि मनुष्य अपनी शर्म तक को खूँटी पर टांगते हुए नहीं शर्माता है। मगर जब खूँटी को शर्म से इश्क हो जाता है।
तब खुद इतना बेशर्म हो जाता है कि शर्मिंदगी भी शर्म से
पानी-पानी हो जाती है।
छाता भी भली-भाँति जानता है कि बारिश हुई तब भी
और नहीं हुई तब भी खूँटी के संग तो जिंदगी व्यतीत करना
नामुमकिन है। मगर जब तक हैं,तब तक बादलों की तरह मिलजुलकर
रहना चाहिए। जो गरजते भी साथ में हैं और बरसते भी साथ
में है। एक हम हैं,जो कि गरजते
साथ में है तो बरसते नहीं और बरसते हैं तो गरजते नहीं।
हर
छाता खुद भीगकर अपने
मालिक को बारिश से बचाकर उसके गंतव्य तक पहुँचाने में ही अपना जीवन सार्थक समझता
है। मगर यह सौभाग्य भी हर किसी छाते को नसीब नहीं होता है। कई रंग-बिरंगे छाते तो
बेचारे धूप में जलकर इतने काले पड़ जाते हैं कि आईने में अपनी शक्ल देखकर,अपनी जीवन लीला समाप्त कर लेते हैं।
आज
भी कई छातों की आत्मा इसलिए भटक रही है की उन्हें उनकी छोटी सी उम्र में बारिश का
वह सुख प्राप्त नहीं हुआ जिसके लिए उनका जन्म हुआ था। इनकी आत्मशांति के लिए इनके वारिस मनुष्य के सिर के ऊपर सीना तानकर तने रहते हैं। दिनभर चिलचिलाती धूप में
जलते रहते हैं,मगर बारिश को कभी भी नहीं कोसते। बल्कि बरसने के लिए,गुहार लगाने में लगे रहते हैं। फिर भी बारिश का दिल नहीं पसीजता है। हम पर नहीं तो कम से कम इन पर तो मेहरबान हो
जाए। ताकि यह अपने पूर्वजों की अंतिम इच्छा के पुण्य से
कृतार्थ हो जाए।
खूँटी
पर लटका छाता अपने मालिक
के हाथों का स्पर्श पाने के लिए, खुद फर्श पर नीचे आ गिरा। ताकि मालिक भागकर आए
और उठाकर कई दिनों से बंद पड़े को खोलकर दुनियादारी से परिचित करवाएगा। लेकिन सोचा
जैसा हुआ नहीं। मालिक ने उसे उठाकर वापस खूँटी पर टाँग दिया। यह देखकर छाता ताकता
ही रह गया। कहने सुनने की तो उसके मुँह में जबान नहीं
थी।
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