जब भी मैं किसी
प्रतिष्ठित अखबार में छपता हूँ,तो छपने की प्रक्रिया के बारे कोई न कोई तो
पूछ ही लेता है। साहित्यिक पैसेंजर,फेसबुक मैसेंजर और व्हाट्सएप के जरिए हाय-हैलो करके पूछे बगैर नहीं रहते हैं। इनके पूछने का
सलीका भी अलहदा होता है। सीधे-सीधे न पूछकर घुमा-फिराकर पूछते हैं। पहले प्रकाशित
होने की बधाई देंगे,फिर प्रशंसा स्वरूप दो लाइन लिखकर आदरणीय, श्रीमान जी, सर जी,
भाई साहब, मित्र, आदि इत्यादि सम्मानसूचक शब्दों से
संबोधित करके पूछेंगे कि छपने की प्रक्रिया क्या है, जरा
हमें भी बताइए! आभारी रहेंगे आपके।
दरअसल,मुझे खुद पता
नहीं है। इनको क्या बताऊं,मगर इनको जब तक नहीं बताऊंगा, तब तक यह जोड़े हुए हाथ का
‘इमोजी’ भेजते रहते हैं,जिन्हें देखकर पत्थर दिल भी मोम की
तरह पिघलकर तत्काल बता देगा कि भई,यह प्रक्रिया है। पर
मैं क्या बताऊं और क्या नहीं बताऊं? मैं अक्सर इस दुविधा में पड़ जाता हूँ। पड़ने के बाद बाहर निकलना मुश्किल हो जाता है। यह कोई
गली व मोहल्ले का रास्ता तो पूछ नहीं रहे होते हैं,जो कि बता दूं कि यह तो शॉर्टकट
पड़ेगा और यह वाला लंबा पड़ेगा। रास्ता न मालूम होने पर बोल भी दूं कि किसी अन्य
से पूछ लीजिए या फिर गूगल मैप पर देख लीजिए। वो फिर थैंक यू बोलकर चले जाएंगे।
छपने के बारे मैं यही
बताता हूँ कि सबसे पहले दिमाग में विषय लाना होता है। समसामयिक विषय आसानी से मिल
जाता है। बस सोशल मीडिया पर अपडेट रहना पड़ता है। कालजयी विषय के
लिए दिमाग के घोड़े बहुत दूर तक दौड़ाने पड़ते हैं। गहराई
में उतरना पड़ता है,पढ़ना पड़ता है। उसके बाद में चिंतन करना होता है। चिंतन के दौरान जो विचार आते हैं, उन्हें लिपिबद्ध करना पड़ता है। पर आजकल लिपिबद्ध कौन करता है? सब टाइपबद्ध करते हैं। मेरा जैसा तो टाइपबद्ध भी नहीं करता है। मोबाइल में
वॉइस के जरिए ही बद्ध कर लेता है। इसके बाद में संपादक जी की ईमेल आईडी पर प्रेषित कर दिया जाता है। छापना और न छापना तो संपादक जी पर निर्भर करता है। लेकिन यह प्रक्रिया
बताता हूँ तो लोग यकीन ही नहीं करते हैं। पढ़कर तुरंत लिखते हैं कि यह तो हम भी जानते हैं। यही प्रक्रिया अपनाते हैं। उसके बावजूद भी छप नहीं पाते हैं। नहीं
छपने का मलाल नहीं है,लेकिन जो छपने की प्रक्रिया है,उसे
जानने की उत्कंठा है। या तो आप सही नहीं बता रहे हैं या
जान-बूझकर मजे ले रहे हैं। हो सकता है,आपकी छपने की
प्रक्रिया भिन्न हो। जब इनको
यह बताता हूँ कि न तो मेरी प्रक्रिया भिन्न है, न ही
मैं मजे ले रहा हूँ। सच बता रहा हूँ, मेरी तो यही प्रक्रिया है, तब भी लोग विश्वास नहीं करते हैं। हद से ज्यादा हंसता हुआ हंसने वाला इमोजी
भेजकर लिखते हैं कि अन्यथा मत लीजिए। सही-सही बताइए,श्रीमान जी, कहीं संपादक से तो सांठगांठ नहीं
है। यह पढ़कर अन्यथा लेने का मन तो करता है। पर लेकर करूं क्या? मेरे किसी काम की नहीं है। जो कामकाज की नहीं, उसे गंभीरता से लेना भी
बेवकूफी है। इसलिए नजरअंदाज करते हुए लिखता हूँ कि रचना सांठगांठ से नहीं,सर्वश्रेष्ठ होती है तब छपती है। अन्यथा संपादक जी खास रिश्तेदार ही क्यों
न हो,उसकी भी नहीं छपती है। क्योंकि संपादक के अंदर के संपादकीय का संबंध सिर्फ और
सिर्फ सर्वश्रेष्ठ रचना से ही होता है।
यह पढ़कर भी उन्हें
आत्मसंतुष्टि तो होती नहीं हैं, पर संतुष्टि का ढोंग करते हुए पुष्प वाली इमोजी के
साथ हृदयतल से आभार लिख भेजते हैं। ऐसे लोग ईमेल आईडी पूछे बगैर नहीं रहते हैं। जब
आईडी मिलने के बाद भी नहीं छपते हैं तो मुझ जैसे किसी दूसरे-तीसरे से कंफर्म करते
हैं कि दी गई थी आईडी सही है या गलत।
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