अभी 02 जून बिता,तो सबको ‘दो जून की रोटी’ वाला मुहावरा खूब
याद आया। लेकिन आज
तक यह समझ में नहीं आया कि रोटी दो जून की ही क्यों होती है? दो जनवरी, दो फरवरी, दो मा र्च,दो अप्रैल या दो मई की क्यों नहीं होती?
जून में भी दो जून ही क्यूं? एक
या तीन जून की भी तो हो सकती थी। दो जुलाई
की रोटी कहने में क्या बुराई हैं। क्या दो जुलाई पराई है? अगर
यह पराई है,तो दो अगस्त या दो सितंबर की रोटी रख लेते। इनमें भी खोट थी,तो दो अक्टूबर
या दो नवंबर-दिसंबर की रोटी
का मुहावरा बना देते।
रोटी के
साथ सब्जी शामिल क्यों नहीं की गई? जबकि रोटी और सब्जी का तो
जन्म-जन्मांतर का साथ है। मुहावरा दो जून
की रोटी-सब्जी हो जाता, तो क्या धरती-आसमान ऊपर-नीचे
हो जाते हैं? रोटी-सब्जी न सही,दाल-रोटी रख लेते। तब मुहावरा बनता ‘दो जून
की दाल-रोटी’। और अगर तब भी दाल महंगी थी,तो चटनी सम्मिलित कर लेते। दो जून की चटनी-रोटी का मुहावरा
और भी बेहतर लगता। वैसे भी दो जून
की रोटी वालों के नसीब में चटनी-रोटी ही होती है। साग- सब्जी तो कभी-कभार ही खाने
को मिलती हैं।
दो जून
तो आटे के किसी ब्रांड का नाम भी नहीं। ब्रांड होता,तो बात सहज
समझ आती कि दो जून ब्रांड के आटे में जरूर कुछ क्वालिटी होगी, कि गूंथने और बेलने में आसानी
रहती होगी,कि तवे पर गिरते
ही रोटी खुदेई फूल के गोलगप्पा बन जाती होगी, कि खाते ही
गप्प दने से पच जाता होगा। फिर तो उसका विज्ञापन भी आता ‘दो जून का आटा,खाते हैं बिरला-टाटा’। मगर ये ब्रांड-वांड़
का मामला लगता नहीं क्योंकि ये मुहावरा उस वक्त से है,
जब बाजार घर में घुसा नहीं था।
इंसान रोज
ही, मतलब पूरे साल, जनवरी से दिसंबर तक
की हर तारीख को रोज़ी-रोटी के लिए परिश्रम करता है,मगर क्रेडिट कमबख्त दो जून को मिल जाता है कि ‘दो जून की रोटी कमाने को हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं बाबूजी’।
आखिर वह
किस वर्ष की सौभाग्यशाली दो जून थी,जो मुहावरा बन गई। कहीं ऐसा तो नहीं कि जून में बहुत गर्मी पड़ती है और
गर्मी में मेहनत करने पर पसीना आता है, इसलिए पसीने से कमाई
गई रोटी को कह दिया गया हो, ‘दो जून
की रोटी’। मगर गर्मी तो मई में भी रहती है। फिर मई ने
क्या बिगाड़ा था? हें जी?
खैर,बात दो जून की रोटी की हो रही थी। तो सवाल यह
भी उठता है कि दो जून की रोटी मोटी हो या पतली,गोलमटोल हो या टेढ़ी-मेढ़ी,अधजली हो या अधपकी,
जिसे जैसी मिल जाए,कोई उसे छोड़ता नहीं। हां,इसके लिए लोग घर-परिवार जरूर छोड़ देते हैं। खुद
के ही देश में प्रवासी बन जाते हैं। जिस दो जून की रोटी के लिए,गांव छोड़कर शहर गए थे, लॉकडाउन में उसी रोटी के लिए
मोहताज हो गए। शहर से वापस गांव भूखे प्यासे ही सैकड़ों किलोमीटर पैदल चले। मगर ये
लोग जून में पैदल नहीं चले, बल्कि दो जून की रोटी के लिए
अप्रैल और मई में पैदल चले। वैसे कुछ भी कहिए,पर भूख
यह कभी नहीं देखती कि रोटी किसकी और कब की है।
यह सब शोध
का विषय है। मगर इस पर शोध करे कौन? अपन तो करने से रहे क्योंकि
अपन तो लेखक हो गए हैं। और जो आदमी एक बार लेखक हो जाता है, फिर
वह किसी और काम का नहीं रहता।
वैसे दो जून की रोटी पर मंथन करते-करते अब मुझे तो भूख
लग आई है। अगर आगे का शोध आप
लोग कर लो, तो मैं जाकर रोटी खा लूं। कबीर दास जी कह गए हैं-‘रूखी-सुखी
खाए के ठंडा पानी पीव,देख पराई
चुपड़ी मत ललचावे जीव’।
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