11 Aug 2020

मैं नहीं बदला,मुझे बदल डाला

आप बदल गए हैं। यह पत्नी का कहना था। घर में रहना है,तो पत्नी के कथन में हाँ में हाँ और ना में ना मिलाना ही पड़ता है। नहीं मिलाए तो वैवाहिक जीवन तू-तू मैं-मैं में व्यतीत होगा। इस सबसे तनाव होगा। तनाव होगा तो खींचतान होगी। खींचतान होगी तो प्रेम का धागा टूटेगा। एक बार धागा टूट गया तो वापस जोड़ने के लिए फिर गाँठ ही लगती है। कई ऐसे भी धागे होते हैं, जिनमें गाँठ भी नहीं लगती। उनकी सीधी कोर्ट में पेशी लगती है। अधिकतर पेशियों का अंतिम परिणाम वही तीन बार बोलने वाला कुछ होता है,जिसके पीछे पड़ने वाले उसे लेकर ही रहते है।

मुझमें ऐसा क्या बदलाव आ गया,जो मुझे ही दिखाई नहीं दे रहा है और पत्नी को दिख रहा है! न मोटा हुआ हूँ ,न दुबला। न स्वभाव बदला है,न रंग-रूप। मूँछें भी इंची टेप से नापकर ही कटवा रहा हूँ। सोचा पत्नी से ही पूछ लेता हूँ। सो मैंने पूछ ही डाला।

वह बोली,‘देखिए जी! कई दिनों से देख रही हूँ कि...मुझ चिर- जिज्ञासु ने बीच में ही टोक दिया,‘क्या देख रही हो?’ वह फिर बोली,‘ यही कि आप बदल गए हैं।अब मेरा गुस्सा होना नैतिक रूप से जायज था,मगर पत्नी के सामने कैसी नैतिकता। नैतिकता के सारे मानदंड पत्नियों के सामने ही तो टूटते हैं! इसलिए मैंने अपना गुस्सा लोकसभा स्पीकर की तरह पीते हुए मन व झक, दोनों मारकर कहा,‘हें...हें...हें... कहाँ बदला हूँ पगली, वैसा का वैसा तो हूँ। देख जरा! वही चाल वैसा ही बेहाल!

मेरी नकली मुस्कराहट को उसने वैसे ही लपक कर पकड़ लिया, जैसे दीवार पर छिपकलियां मासूम मच्छरों को धप से पकड़़ लिया करती हैं। मुझे गिरफ्त में आता और गिड़गिड़ाता देख मुझ गुलाम पर उसने तुरुप का इक्का चला दिया, ‘ तुम्हारी ओर वही चाल। सवाल ही नहीं।बेवजह ही बवाल खड़ा नहीं हो जाए। बवाल हो गया तो जल्दी सी बहाल नहीं होगा। यही सोचकर मैंने विनम्रता से पूछा, ‘तो फिर कैसा हूँ?’ 

वह बोली,‘इतने भोले-भाले भी मत बनो। तुम्हें सब पता है। कैसे हो। कैसे नहीं हो। मुझसे पूछने से क्या कैसे के ऐसे और ऐसे के कैसे बन जाओगे क्यातब तो बताऊं कैसे हो?’

मैं तपाक से बोला,‘बताइए! तुम कहोगी जैसा ही बन जाऊंगा। बहरहाल तो बना हुआ भी हूँ।वह  बोली,‘रहने दीजिए। मेरे मुँह से वो सच निकल आएंगा,जो सच है।’ 

मुझे सच ही जानना है।’ ‘तो कान खोलकर सुनिए।’ 

मैंने चुटकी लेते हुए कहा,‘कान ही क्यामुँह व आँख भी खोल रखे हैं। बस जल्दी सी सुना दीजिए।’  

पहले तो यह बताइए! मुझसे प्यार क्यों नहीं करते हो। जबकि पहले बेहद प्यार करते थे।’  

मैं बोला,‘तुम्हीं ने कहा था कि घर प्यार-प्रेम से नहीं,पैसों से चलता है। पैसा प्रेम से नहीं। कमाने से आता है। कमाई मेरी लुगाई नहीं। जो कि जेब में आकर समा जाए। यह  पटाने से भी नहीं पटती है। दौड़-धूप से फंसती है। तब दो पैसे जेब में आते हैं। जिनसे घर का चूल्हा जलता है। आजकल पैसे से प्यार है। प्यार से पैसा नहींहै।जिसकी जेब में पैसा है। उसकी मुहब्बत फलीभूत है। जिसकी में नहीं है। उसकी निष्फल है।’  

यह सुनकर वह लाल-पीली हो गई। बोली,‘मुझे प्यार-प्रेम की परिभाषा मत समझाइए। मैं वाकिफ हूँ। पहले देसी में बोलते थे। अब अंग्रेजी की टांग तोड़ते हो।मैं बोला,‘यह भी तुम्हीं ने कहा था कि तुम्हारे को बोलने का ढंग सही नहीं है। हिंदी में बोलिया करो। हम हिंदी बोलेंगे। तभी तो बच्चे बोलेंगे।’ ‘हाँ कहा था,मगर आप तो अंग्रेजी में न जाने क्या-क्या बोल जाते हैं,जो मेरे तो पल्ले नहीं पड़ती है।’ ‘अपने बच्चे इंग्लिश मीडियम में पढ़ते हैं। इसलिए बोलना पड़ता है। ए डबल पी एल ई एप्पलएप्पल यानी सेब। बीओवाई ब्वॉय,ब्वॉय यानी लड़का। सीएटी कैट,कैट यानी बिल्ली। यह नहीं बोलूं तो बच्चे खिल्ली उड़ाते हैं। पापा को इंग्लिश नहीं आती है। बच्चों के सम्मुख इज्जत का फ़ालूदा नहीं बने। इसलिए बोलता हूँ।

पत्नी बोली,‘बच्चों के समक्ष तो ठीक है। मगर अहर्निश मुझे खटकती है। पहले सादा पेंट शर्ट पहन कर रहते थे।

अब तो जींस टी-शर्ट के अलावा कुछ ओर पहनते ही नहीं हो।मैं बोला,‘तुम्हारी याददाश्त कमजोर हो गई है। तुम्हीं ने तो कहा था कि सादा पैंट-शर्ट नहीं,जींस टी-शर्ट पहनकर रहा करो। इससे पर्सनैलिटी बनती है। तुम पर जमती भी है। इसलिए पहनता हूँ। जो कि मुझे असहज लगता है। मगर तुम्हारी खातिर सहता हूँ।

पत्नी बोली,‘सहता है। वह कहता नहीं। निकालकर फेंक देता है। कई दिनों से देख रही हूँ। आजकल आप बहुत खिले-खिले रहते हो।

मैं चौंका!... और मैं क्या, मेरी सात पुश्तें चौंक गई। मैं तुरंत बोल पड़ा,‘तुम ही तो कहती थी,सूमड़े- सट्ट मत रहा करो,थोड़ा बोला-चाला करो,लोग पीठ पीछे आपको आलोकनाथ बोलते हैं। जब तुमने इतना सब कहा था तो अपन थोड़ा हँसने-बोलने लगे।

हाँ,हंसो-बोलो,मगर इतना भी खुश मत रहो कि लोग मुझ पर शक करने लगें?’ 

इस बार मुझे अपनी सगी पत्नी,पत्नी वाले रोल में दिखाई दी। वह पत्नी ही क्या, जो पति को खुश रह लेने दे! मैं उसकी यह पीड़ा समझ गया था कि मैं उसका पति होने के बावजूद पीड़ित जैसा क्यों नहीं लग रहा था! मैंने तुरंत अपना सॉफ्टवेयर बदला। उस दिन से मैं फिर सूमड़ा-सट्ट हो गया।


9 Aug 2020

मुझे भी खुद को दिखाना है

कई दिनों से सोच रहा हूँ कि सोशल मीडिया पर लाइव आऊं,लेकिन यही सोचकर रह जाता हूँ कि अपनी शक्ल-सूरत शायद लाइव होने लायक नहीं। सुना है कि जिनकी सूरत खूबसूरत होती है,सिर्फ वही लाइव आते हैं। उन्हें ही ज्यादा लाइक और कमेंट का प्रसाद मिलता है। भले ही वे यूं ही लाइव हुए हों। यह भी सुना है कि लाइव के लिए शक्ल-वक्ल मायने नहीं रखती। बस लाइव आने के पीछे कोई न कोई उद्देश्य अवश्य होना चाहिए। हाँ,लाइव पर लाइक नहीं मिले तो लाइव आना ही बेकार है। इससे मेरी दुविधा और बढ़ गई। फिलहाल मैं इसी उधेड़बुन में हूँ कि लाइव आने का आखिर मकसद क्या हो और बिना उद्देश्य न हो क्या करूं-क्या कहूं? ऐसा क्या करूं कि सोशल मीडिया में अपना चेहरा दिखाऊं

लाइव बोले तो जिंदा। विमर्श यह कि मुद्दा सामयिक हो या असामयिक। सामाजिक हो या राजनीतिक। ऐतिहासिक हो या साहित्यिक। आर्थिक हो या धार्मिक।  सहिष्णु हो या असहिष्णु। एलोपैथिक हो या आयुर्वेदिक। या फिर इनसे अलग ही हो। अलग क्या होअलग हो तो ऐसा होजो कि अलख जगा दे। बिना वायरस के पहली लाइव में ही लाइफ बना दे। किसी वायरस की वजह से लाइव हुए तो क्या हुए। लाइफ बेवजह खतरे में डालकर चर्चित हुए तो यह भी कोई वायरल होना हुआ।

मेरे मित्र मुझे बता रहे हैं- समझा रहे हैं कि लाइफ में लाइव नहीं आया, दुनिया को अपना चेहरा नहीं दिखाया तो सोशल मीडिया की दुनिया में रहना ही निरर्थक है। ज्यादा नहीं तो एक लाइव तो बनता है। इस आभासी दुनिया में लाइव से ही पहचान बनती है। लाइव से ही वाइफ खुश रहती है। वाइफ खुश तो सारा जहां खुश। लाइव से फेसबुक फ्रेंड का बैकग्राउंड दिख जाता है। बगैर लाइव के फ्रेंड के बारे में कुछ भी पता नहीं लगता। वह कैसा दिखता है? किस टाइप का है? लाइव से उसका रूपरंग,हाव-भाव से परिचित हो जाते हैं। फैन बन जाते हैं।

मित्र ने तो यहाँ तक कहा है कि आजकल लाइव ही वह  मिसाइल है,जिसके जरिए व्यक्ति चाँद तक पहुँच जाता है। मैं हूँ कि गली के नुक्कड़ तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ। चाँद तक न सही,आसमान छूने की तमन्ना तो मेरी भी है,लेकिन मैं हूँ कि लाइव आने-चेहरा दिखाने में हिचकिचा रहा हूँ। समझ में नहीं आ रहा है कि लाइव आने के लिए ऐसा क्या करुं जिससे कि मेरी हिचक दूर हो जाए और मैं लाइव आ जाऊं। 

मन कह रहा है कि तू साहित्यकार है नतो क्यों न उसे ही आजमाएकविता,गीत,गजल,व्यंग्य या कहानी में से किसी एक को लेकर लाइव आ और सुर्खियों में छाजा।लाइव आने को मोबाइल हाथ में लेता हूँ,तो एक मन कहानी के लिए और और दूसरा मन व्यंग्य के लिए। मुझे गीत गजल तो आती नहीं। कविता लेकर इसलिए नहीं आना चाहता,क्योंकि अभी कविता सुनने वाले श्रोता कम और कवि लाइव ज्यादा आ रहे हैं। ऐसे में मुझ अकिंचन की कविता के लाइव को देखना-सुनना तो दूर एक लाइक तक नहीं मिलेगा। कहानी और व्यंग्य में कहानी मुझे कहनी नहीं आती  और व्यंग्य हर किसी के समझ में नहीं आता है। यह सोच कर लाइव नहीं आ पा रहा हूँ।

हालांकि राजनीति की समझ नहीं है। अन्यथा राजनीति को लेकर बिना किसी हिचकिचाहट के लाइव आ जाऊं। और बेतुके बयान देकर सुर्खियों में छा जाऊं। सोच रहा हूँ कि किसी न किसी सामाजिक विषय को लेकर लाइव आ जाऊं,लेकिन सामाजिक विषय तो तमाम हैं। उनमें चयन नहीं कर पा रहा हूँ कि किस विषय को लेकर लाइव का प्रयास करूंक्योंकि मैं ऐसे विषय के साथ लाइव आना चाहता हूँ जिसके साथ अभी तक कोई भी लाइव नहीं आया हो। लाइफ में पहला लाइव ऐसा हो कि कोई वाह किए बगैर न रहे। वैसे तो तमाम  विवादस्पद मुद्दे हैं,लेकिन मुझे सर्वसम्मति वाला कोई विषय दिख नहीं रहा है। अगर आपको दिख रहा है तो मुझे अवश्य बताइएगा,ताकि मैं अविलंब लाइव आ जाऊं।

मोहनलाल मौर्य 

4 Aug 2020

बड़ा आदमी और गांधीजी

वह बड़ा आदमी है। इतना बड़ा है कि बड़े-बड़े भी उसके चरण स्पर्श करते हैं। अपने आपको उसके चरणों की धूल बताते हैं। मगर मेरा मानना है कि जो स्वयं को उसके चरणों की धूल बताते हैं,वे या तो स्वयं मूर्ख हैं या दूसरों को मूर्ख बनाते हैं। क्योंकि वे स्वयं की शिनाख्त जिस आदमी के चरणों की धूल होने में करते हैं,उसके चरणों में तो धूल कभी होती ही नहीं है। अगर कभी भूल से जरा धूल लग भी जाएतो पोंछने- चाटने वाले धूल का एक कण भी नहीं छोड़ते। फिर वे चरणों की धूल कैसे हुएयह समझ से परे है और परे ही रहेगा। वैसे ऐसी घटिया बातों को धूल में ओटकर भूल जाना ही अच्छा।
मगर लोग कहते हैं कि उस आदमी, जिसके पैरों में धूल बताई गई थी, के आदेश को बड़े से बड़े लोग सिर- आँखों पर रखने से इंकार नहीं करते। क्यों करेगा? दरअसल,उसके आदेश के साथ गांधीजी जो चस्पा होते हैं। गांधीजी किसे बुरे लगते हैं। सबको अच्छे लगते हैं। और जो चीज अच्छी लगती है,लोग सिर-आँखों पर ही नहीं, माथे,मगज,जेब से लेकर बैंक अकाउंट तक में भी रखने से कभी इंकार नहीं करते।
उस बड़े आदमी का नाम इतना बड़ा नहीं है कि उसके नाम से काम हो जाएं। हाँ,मगर जब उसके नाम के पिच्छू गांधीजी का सरनेम लग जाता है तो फिर उसका कोई काम नहीं रुकता। वह अपने काम निकालने के लिए सामने वाले को गांधीजी के दर्शन करवाता है। सामने वाला भी दर्शन करते ही सत्य और अहिंसा टाइप की चीजें ऊपर वाली दराज से निकालकर, उन्हें सैनिटाइजर करके नीचे वाली दराज में खिसका देता है। और फिर ऊपर वाली दराज में गांधीजी को रख लेता है। उसके सत्य और अहिंसा तब तक नीचे वाली दराज में नहीं जाते,जब तक की गांधीजी ऊपर वाली दराज में नहीं आ जाते।
दरअसल,उस बड़े आदमी का गांधीजी में बहुत विश्वास है। बल्कि यूं कह लीजिए कि उसके पास गांधीजी का इतना अधिक टर्नओवर है कि लोग अब उसमें विश्वास करने लगे हैं। लोगों ने उसका टर्नओवर देख उसकेे प्रति अपनी हिकारत को यू-टर्न करवा दिया है। वह गांधीजी का छोटा नहीं बल्कि बड़ा अनुयायी है। बड़ा इस मायने में है कि वह छोटे काम में हाथ डालता ही नहीं। बस सामने वाले के मुँह पर बड़ेे-बड़े गांधीजी फेंकता है और बड़े काम निकलवा लेता है। छोटे काम उसे अपनी और गांधीजी, दोनों की तौहीन लगते हैं। वह गांधी के दर्शन और गांधी के प्रदर्शन दोनों में गहन विश्वास रखता है। दरअसल,पहले वह बहुत छोटा आदमी था। मगर गांधीछाप हरी पत्ती के हेर-फेर में वह इतना बड़ा हो गया कि अब पहले से भी और छोटा,और बोना हो गया है।
उसने आज तक गांधीजी को कभी पढ़ा नहीं है, बस देखा है। उसके लिए इतना ही पर्याप्त है। गांधीजी को पढ़कर करता भी क्या? ऐसा उसका जमीर अक्सर उससे कहता रहता है। हाँ, लेकिन जिस शिद्दत से उसने गांधीजी को देखा और फिर उनका सदुपयोग किया है, वैसा गांधीजी स्वयं का नहीं कर पाए होंगे।
गांधीजी अक्सर उसके सपने में आते हैं, बल्कि वह तो जागते हुए भी गांधीजी के ही सपने देखता है। उसने खुद ही नहीं बल्कि अपने नाते-रिश्तेदारों को भी गांधीजी के ही सपने देखने की लत-सी लगा दी है। रिश्तेदार भी अब सरकारी टेंडर का फॉर्म डालने से पहले गांधीजी का स्मरण करते हैं और फिर टेंडर का चयन करने वाले अधिकारी को गांधीजी का स्मरण करवा डालते हैं। अब गांधीजी का कहा कौन टाल सकता है भला! इसलिए गांधीजी का नया,गच्च-भक्त बना वह अधिकारी भी गांधीजी की बात नहीं टालता और बड़ा आदमी मुस्करा देता।

2 Aug 2020

सावन-भादों की सीख



रोज कोयल कुकू-कुकू कर कह रही है कि सावन आ गया है,घर से बाहर निकलिए और चौतरफा छाई हरीतिमा को निहारिए,पर उसकी कोई नहीं सुन रहा है। सब अपने-अपने कार्यों में इस तरह से उलझे हुए हैं कि अपनों की नहीं सुन रहे हैं,कोयल की क्‍या सुनेंगे! वह लोगों के कानों में भी कूकने लग जाए,तब भी नहीं सुनेंगे। आजकल लोगों को कर्णप्रिय के बजाय कानफोड़ू ज्यादा प्रिय है।
अब मोर जंगल में ही नहीं,घरों की छत पर भी नाच रहे हैं। पीहू-पीहू करके लोगों को बुला भी रहे हैं कि आइए,और हमारा नृत्य देखिए। फिर भी लोग उनका नृत्य नहीं देख रहे हैं। शायद इसीलिए लोगों का मन मयूर की तरह नहीं हो पा रहा है। जब तक मनुष्य का मन मयूर की तरह नहीं होता है,वह सावन-भादों का भी आनंद नहीं उठा पाता है।
हमेशा सावन-भादों में मेंढक टर्र-टर्र करते हुए घरों के अंदर यह बताने के लिए घुसते हैं कि टर्र-टर्र हमें ही शोभा देती है,तुम्हें नहीं,लेकिन मनुष्य है कि टर्र-टर्र किए बगैर रह ही नहीं रहा है। जब देखों टर्र-टर्र करता रहता है,जबकि मेंढक बारिश के मौसम में ही टर्र-टर्र करते हैं।
सावन-भादों में नाग-नागिन नृत्य करके यही बताने में व्‍यस्‍त रहते हैं कि ब्याह-शादी में लोग हमारी नकल करके जमीन पर पलटी मारकर जो नागिन डांस करते हैं,वह नागिन डांस नहीं होता है। जिस तरह से हम कर रहे हैं,वह होता है। लेकिन,लोग उनके नृत्य को देखना तो दूर,उन्हें देखकर ही सहम जाते हैं। असल में नाग-नागिन डसने के लिए नहीं,बल्कि नागिन डांस सिखाने के लिए नृत्य करते हैं।
सावन-भादों के महीने में मेघ मेहरबानी करके बारिश ही नहीं करते हैं,बल्कि मेहरबान किस तरह से हुआ जाता हैं,यह दिखाने के लिए भी कई बार झड़ी लगा देते हैं। हम हैं कि मेहरबानी तो दूर,दुआ-सलाम भी स्वार्थ से ही करते हैं। शायद इसीलिए मेघ हम पर जल्दी से मेहरबान नहीं होते हैं। वे गरजने के बावजूद यही सोचकर नहीं बरसते होंगे कि हम तो इन पर मेहरबान हो जाते हैं और ये लोग हैं कि होते ही नहीं है।
हवा में उड़ने वालों को सावन-भादों के महीने में चलने वाली मंद-मंद हवा यही समझाने में लगी रहती कि हवा में उड़ने से अच्छा है कि जमीन पर पैर रख कर ही अपने कार्यों को अंजाम दिया जाए। धड़ाम से नीचे गिरोगे तो जमीन के अंदर ही धंस जाओगे। लेकिन,लोग हैं कि समझते ही नहीं। हवा में बातें करने और हवाई किले बनाने से डरते ही नहीं है।
सावन-भादों के महीनों में घर-दालान में आने वाली सीलन भी हमें यही सीख देती है कि आलीशान मकान बनाने से ही कुछ नहीं होता है। समय-समय पर उसकी मरम्मत भी बहुत जरूरी है। सीलन ही है,जो हमें  मरम्मत कराने पर विवश कर देती है। अगर सीलन नहीं आए,तो हम दीवारों की ओर देखें ही नहीं। जो बरसात के दिनों में सीलन को देख कर भी अनदेखी कर देता है,उसके मकान धराशायी होकर ही रहते हैं।
इसी तरह नदी और नाले उफान पर आकर हमें यही बताते हैं कि गुस्से में कुछ नहीं रखा है। गुस्से में केवल अपनी और दूसरों की तबाही हैं। एक बार तबाह होने पर उसकी भरपाई में वर्षों लग जाते हैं। लेकिन,हम हैं कि नदी और नाले के उफान को देखकर भी अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। 
इन दोनों महीनों में प्रकृति हरी चुनरी ओढ़कर हमें यही बताने आती है कि हरियाली से ही खुशहाली है। लेकिन,हम हैं कि हरियाली का संहार करने में लगे हुए हैं। पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने से पहले एक बार भी नहीं सोचते हैं कि इनकी वजह से ही हरियाली है। जिनके आसपास हरियाली नहीं,वहाँ खुशहाली कैसे आएगी! जहाँ खुशहाली नहीं होगी,वहाँ पर घरवाली भी खुश नहीं होगी। जिस घर में घरवाली खुश नहीं,उस घर में सावन-भादों भी यादों में ही निकल जाते हैं। शायद इन्‍हीं यादों को संजोने के लिए ही सावन-भादों में वृक्षारोपन किया जाता है। 
मोहनलाल मौर्य