रोज कोयल कुकू-कुकू कर कह रही है कि सावन आ गया है,घर से बाहर निकलिए और चौतरफा छाई हरीतिमा को निहारिए,पर उसकी कोई नहीं सुन रहा है। सब अपने-अपने कार्यों में इस तरह से उलझे हुए हैं कि
अपनों की नहीं सुन रहे हैं,कोयल की क्या सुनेंगे! वह लोगों के कानों में भी कूकने लग जाए,तब भी नहीं सुनेंगे। आजकल लोगों को कर्णप्रिय के बजाय कानफोड़ू ज्यादा प्रिय है।
अब मोर जंगल में ही नहीं,घरों की छत पर भी नाच रहे हैं। पीहू-पीहू करके
लोगों को बुला भी रहे हैं कि आइए,और हमारा नृत्य देखिए। फिर भी लोग उनका नृत्य नहीं देख रहे हैं। शायद
इसीलिए लोगों का मन मयूर की तरह नहीं हो पा रहा है। जब तक मनुष्य का मन मयूर की
तरह नहीं होता है,वह सावन-भादों का भी आनंद नहीं उठा पाता
है।
हमेशा सावन-भादों में मेंढक टर्र-टर्र करते हुए घरों के
अंदर यह बताने के लिए घुसते हैं कि टर्र-टर्र हमें ही शोभा देती है,तुम्हें नहीं,लेकिन
मनुष्य है कि टर्र-टर्र किए बगैर रह ही नहीं रहा है। जब देखों टर्र-टर्र करता रहता है,जबकि मेंढक बारिश के मौसम में ही टर्र-टर्र करते हैं।
सावन-भादों में नाग-नागिन नृत्य करके यही बताने में व्यस्त रहते हैं कि ब्याह-शादी
में लोग हमारी नकल करके जमीन पर पलटी मारकर जो नागिन डांस करते हैं,वह नागिन डांस नहीं होता है। जिस तरह से हम कर रहे हैं,वह
होता है। लेकिन,लोग उनके नृत्य को
देखना तो दूर,उन्हें देखकर ही सहम
जाते हैं। असल में नाग-नागिन डसने के लिए नहीं,बल्कि नागिन डांस सिखाने के लिए नृत्य करते हैं।
सावन-भादों के महीने में मेघ मेहरबानी करके बारिश ही नहीं
करते हैं,बल्कि मेहरबान किस तरह से हुआ
जाता हैं,यह दिखाने के लिए भी कई बार झड़ी लगा देते हैं। हम
हैं कि मेहरबानी तो दूर,दुआ-सलाम भी
स्वार्थ से ही करते हैं। शायद इसीलिए मेघ हम पर जल्दी
से मेहरबान नहीं होते हैं। वे गरजने के बावजूद यही
सोचकर नहीं बरसते होंगे कि हम तो इन पर मेहरबान हो जाते हैं और ये लोग हैं कि होते
ही नहीं है।
हवा में उड़ने वालों को सावन-भादों के महीने
में चलने वाली मंद-मंद हवा यही समझाने में लगी रहती कि हवा में उड़ने से अच्छा है
कि जमीन पर पैर रख कर ही अपने कार्यों को अंजाम दिया जाए। धड़ाम से नीचे गिरोगे तो जमीन के अंदर ही धंस जाओगे। लेकिन,लोग हैं कि समझते ही नहीं। हवा में बातें करने और हवाई किले बनाने से डरते ही नहीं है।
सावन-भादों के महीनों में घर-दालान में आने वाली सीलन भी
हमें यही सीख देती है कि आलीशान मकान बनाने से ही कुछ नहीं होता है। समय-समय पर
उसकी मरम्मत भी बहुत जरूरी है। सीलन ही है,जो हमें मरम्मत कराने पर विवश कर देती है। अगर सीलन नहीं आए,तो
हम दीवारों की ओर देखें ही नहीं। जो बरसात के दिनों में सीलन को देख कर भी अनदेखी
कर देता है,उसके मकान धराशायी होकर ही रहते हैं।
इसी तरह नदी और नाले उफान पर आकर हमें यही बताते हैं कि गुस्से में कुछ नहीं रखा है।
गुस्से में केवल अपनी और दूसरों की तबाही हैं। एक बार तबाह होने पर उसकी भरपाई में वर्षों लग जाते हैं। लेकिन,हम हैं कि नदी और
नाले के उफान को देखकर भी अपने गुस्से पर नियंत्रण नहीं
कर पाते हैं।
इन दोनों महीनों में प्रकृति हरी चुनरी ओढ़कर हमें यही
बताने आती है कि हरियाली से ही खुशहाली है। लेकिन,हम हैं कि हरियाली का संहार करने में लगे हुए हैं। पेड़ों पर कुल्हाड़ी चलाने से पहले एक बार भी नहीं सोचते हैं कि इनकी वजह
से ही हरियाली है। जिनके आसपास हरियाली नहीं,वहाँ खुशहाली
कैसे आएगी! जहाँ खुशहाली नहीं
होगी,वहाँ पर घरवाली भी खुश नहीं
होगी। जिस घर में घरवाली खुश नहीं,उस घर में सावन-भादों भी यादों में ही निकल जाते हैं। शायद इन्हीं यादों
को संजोने के लिए ही सावन-भादों में वृक्षारोपन किया जाता है।
मोहनलाल मौर्य
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