5 Sept 2017

कभी नहीं घटे,शिक्षक का आदर-सत्‍कार

शिक्षक का नाम मन-मस्तिष्क में आते ही हमारे समाज में एक अलग रूपरेखा निर्मित हो जाती है। शिक्षक समाज, देश का पथप्रदर्शक होता है। एक शिक्षक देश को बना सकता है, तो देश का विनाश भी कर सकता है। देश का भविष्य कैसा होगा, यह शिक्षकों के हाथों में समाहित होता है। गुरु का स्थान हमारे पुरातन संस्कृति में भगवान से बढ़कर बताया गया है। तभी तो यह उक्ति प्रचलित है, गुरु गोविंद दो खड़े, काके लागु पाय,बलिहारी गुरु आपसे गोविंद देऊ बताए।शिक्षक घर,परिवार,समाज में आदरणीय व सम्माननीय स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों के भविष्य का निर्माण करता है। छात्रों को अच्छे संस्कार से अवगत कराता है। एक गुरु की तुलना हम एक कुम्हार और जौहरी से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक कुम्हार बिखरी हुई मिट्टी को समायोजित करते हुए उसे घड़े का आकार देता है, वहीं काम एक शिक्षक समाज और देश के लिए करता है। बड़ों के प्रति आदर-सत्कार व सेवा-भावना  की प्रेरणा शिक्षक से ही मिलती हैं। एक शिक्षक की दृष्टि में सभी छात्र समान होते हैं, और वह सभी का भला चाहता है। वह अपने शिष्यों को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए उनकी नींव मजबूत करता हैं और उन्हें एक साचे में ढालकर कामयाबी की सीढ़ी तक पहुंचाता हैं। ताकि वे अपने मंजिल तक पहुंच जाएं। किताबी ज्ञान के साथ नैतिकता की शिक्षा देकर अच्छे चरित्र का निर्माण करता है।

शिक्षक की तुलना उस संचालक से की जा सकती है,जिसके बिना जीवन रूपी गाड़ी का कोई औचित्य नहीं। जिस प्रकार महंगी से महंगी गाड़ी, बिना संचालक के बैलगाड़ी के समतुल्‍य है, उसी तरह बिना गुरु के जीवन का कोई सार्थक मूल्य नहीं। लेकिन वर्तमान परिवेश में शिक्षा जगत व्यापार बन गया है। गुरु-शिष्य के बीच वे संबंध अब नही रहे, जो गुरुकुल परम्परा या प्राचीन समय में थे। आज के कई शिष्य तो अपने शिक्षक के चरण छूने में भी शर्म महसूस करते हैं, तो कई शिक्षक भी अपने छात्रों का शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं। दूसरे अर्थों में आज गुरु-शिष्य की वास्तविक परिकल्पना ही नज़र नहीं आती। शिक्षक भी जब शिष्य के स्तर पर आकर छात्रों से व्यवहार करने लगते हैं, फिर उनकी व्यवहारिकता और प्रभावित होने लगती है। आज अगर गुरु-शिष्य का संबंध मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रह गया है। तो यह रवायत भी सही नहीं है। सभ्य समाज में गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना गया हैं। वह परम्परा समाज से गुम नहीं होनी चाहिए। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर उनकी मूर्ति को अपने सक्षम रख धनुर्विद्या सीखी, लेकिन आज न द्रोण जैसे शिक्षक है, और न ही एकलव्य जैसे छात्र। आज तो छात्र शिक्षा को खरीदी जाने वाली वस्तु, और शिक्षक ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है। किंतु इन सब के इतर आज भी हमारे समाज में ऐसे शिक्षक हैं। जिन्होंने हमेशा समाज के सामने एक अनुकरणीय मिशाल पेश किया है। जिनकी हम जितनी सराहना करें, वह कम ही होगी। 
देश के द्वितीय राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला शिक्षक दिवस हर वर्ष 5 सितम्बर को एक पर्व की तरह मनाया जाता है। जो शिक्षक समुदाय की गरिमा को बढ़ाता है। भारत में प्राचीन काल से ही गुरु-शिष्य की परम्परा चली आ रही है। जो आज भी विद्यमान है। लेकिन अब धन के बल पर शिक्षा लेने और देने का कारोबार फल-फूल रहा है। जिसमें ज्ञान अर्जित नहीं होता,बल्कि परीक्षा में उत्तीर्ण होने के फार्मूलों के साथ रटाया जा रहा है। बदलते समय के मुताबिक जरूरत किताबी ज्ञान के साथ व्यवहारिक,सुसंस्कारी,मनोवैज्ञानिक ज्ञान की शिक्षा देने की है। जिससे आज के छात्र में भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति का भी अंतर्भाव रहे। इसके अलावा शिक्षक दिवस पर अपने टीचर को गुलाब का पुष्प या कोई उपहार देने से बढ़कर हैं, आज की छात्र पीढ़ी उनका आदर-सम्मान करें,  और उनके द्वारा बताएं गए मार्ग पर चले। तब शिक्षक दिवस मनाने का महत्त्व अधिक सार्थक सिद्ध होगा। क्योंकि टीचर का संबंध केवल शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वह तो हर मोड़ पर अपने शिष्य का हाथ थामने के लिए आमादा रहता है। 
जहां कहीं भी शिष्य विचलित होता है या अपनी राह से भटकर दूसरी राह पर चलने लगता है। तब टीचर को बहुत दुख होता है। क्योंकि उसके द्वारा,जो बीज रोपकर पौधा धीरे-धीरे पेड़ बनने के लिए आमादा था। वह पेड़ बनने से पूर्व टूटने के कगार होता है तब सबसे ज्यादा दुख टीचर को ही होता है। इसी स्थिति में उसी पथ पर वापस लाले के लिए शिष्य को अपने पास बुलाता है और समझाता है। जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है और यह एक शिक्षक का कर्तव्य भी है। कई बार शिक्षक अपने शिष्यों को डांट-फटकार देता है, तो कई छात्र कुपित हो जाते हैं। छात्र कुपित होने की बजाय यह जानने की कोशिश करें कि उसने क्या गलती की है? जो टीचर ने मुझे डांटा है। साथ ही साथ आज गुरु- शिष्य की परम्परा को पुनर्जन्म की आवश्यकता भी है,जिससे समाज को सही दिशा मिल सके। शिक्षा मात्र पठन और पाठन का जरिया न रहकर, आपसी स्नेह, और विचारों के प्रवाह की धारा बन सके, जो आज टूटता दिख रहा है। उसे टूटने से बचाया जाए।

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