मंगूरामजी
तबादला निरस्त की जुगत में है। लेकिन जुगाड़ लग नहीं रहा। जुगाड़ लग जाए तो
मंगूरामजी गांव के गांव में ही रह जाए। दरअसल मंगूरामजी का तबादला गांव से मीलों
दूर शहर में हो गया है। अब जिसने पूरी सेवाकाल गांव की आबोहवा में व्यतीत की हो।
उसे तो शहरी आबोहवा अजीब सी लगेगी। हां,मंगूरामजी के साथ गांव की आबोहवा का भी
तबादला हो गया होता तो वे अब से पहले कार्यभार ग्रहण कर लेते। क्योंकि गांव की
आबोहवा उनके अनुकूल रही है। कभी प्रतिकूल हुई नहीं। जब भी होने की कोशिश की है उससे पहले बंदोबस्त हो जाता था। अब वे आबोहवा का
तो तबादला करवा नहीं सकते। खुद का निरस्त हो जाए,वहीं गनीमत है।तबादले ने बदली आबोहवा
मंगूरामजी की ना
तो मंत्रीजी से जान-पहचान और ना ही मंत्रीजी मंगूरामजी को जानते हैं। जो जाते ही
तबादला निरस्त कर दे। चुनाव दौर में जरूर जानते-पहचानते होगे। क्योंकि उस वक्त
तो अनजान भी जान-पहचान वाला हो जाता है और चुनाव जीतने के बाद चिरपरिचित भी अनजान
हो जाता है। मंगूरामजी ठहरे सीधे-साधे व्यक्ति। कभी राजनीति से तादात्म्य रहा
नहीं। ईमानदारी से नौकरी की है। लेकिन कभी अपने बाल-बच्चों की ख्वाहिश पूरी नहीं
की है।
तबादला निरस्त
के चक्कर में मंगूरामजी की चप्पल घिस गई। गांव के मुखिया से लेकर प्रधान तक और
प्रधान से लेकर क्षेत्रीय विधायक तक कई चक्कर लगा मारे। इन सब से विन्रम आग्रह भी
कर लिया और आबोहवा का जिक्र भी कर दिया। आग्रह स्वीकार कर लेते हैं पर उपकार में
आश्वासन थमा देते हैं। जो कि किसी काम न काज का। बस थोड़ी देर खुशमिजाज का। उसके
बाद फिर से नेताजी की ज़बान का। क्योंकि आश्वासन ही तो है,जो आसानी से चिपका
दिया जाता है। वैसे भी नेताजी का आश्वासन देने में क्या जाता है? बहुतायत में पर्याप्त है। जो कभी समाप्त ही नहीं होता।
अंत में
मंगूरामजी गंगारामजी के पास पहुंचे,जो मंत्रीजी का खास है। खास से आस रहती है कि
तबादला निरस्त हो जाएंगा। गंगारामजी बोले- ‘बताए कैसे आना हुआ।’ मंगूरामजी ने
अपनी दुविधा बताई। सुनकर गंगारामजी ने भी सहानुभूति दिखाई। समझाते हुए कहा-‘बहरहाल
तो तुम्हारा तबादला निरस्त हो नहीं सकता।’ यह सुनकर मंगूरामजी एक शब्द ही बोल
पाए-‘क्यों?’ ‘क्योंकि तुम्हारी जगह मंत्रीजी के साले का तबादला हुआ है। इसलिए।’ यह
सुनकर मंगूरामजी चुपचाप ही वहां से चले आए और अगले दिन शहर के लिए बोरिया-बिस्तर
गोल कर ली। उस वक्त मंगूरामजी ने भी यह सोचा होगा-काश हम भी मंत्रीजी खास होते तो
आज गांव की आबोहवा में श्वास ले रहे होते। पर अब तो जो खास है वहीं पास है और जो
पास है वहीं खास है। फिर चाहे वह अंगूठाछाप क्यों ना हो? मंत्रीजी उसकी सुनेगा,जो उसका खास है। कुछेक दिन तो शहरी आबोहवा में घुटन सी
हुई। बाद शहरी आबोहवा इत्ती अच्छी लगने लगी कि गांव की आबोहवा का जिक्र करना ही
भूल गया और कहने लगा कि मंत्रीजी ने यहां तबादला करके बहुत अच्छा किया। अन्यथा मैं शहरी आबोहवा से
महरूम रहता। इसीलिए मैं मंत्रीजी को धन्यवाद देता हूं।