6 Oct 2017

तबादले ने बदली आबोहवा

मंगूरामजी तबादला निरस्‍त की जुगत में है। लेकिन जुगाड़ लग नहीं रहा। जुगाड़ लग जाए तो मंगूरामजी गांव के गांव में ही रह जाए। दरअसल मंगूरामजी का तबादला गांव से मीलों दूर शहर में हो गया है। अब जिसने पूरी सेवाकाल गांव की आबोहवा में व्‍यतीत की हो। उसे तो शहरी आबोहवा अजीब सी लगेगी। हां,मंगूरामजी के साथ गांव की आबोहवा का भी तबादला हो गया होता तो वे अब से पहले कार्यभार ग्रहण कर लेते। क्‍योंकि गांव की आबोहवा उनके अनुकूल रही है। कभी प्रतिकूल हुई नहीं। जब भी होने की कोशिश की है उससे पहले बंदोबस्‍त हो जाता था। अब वे आबोहवा का तो तबादला करवा नहीं सकते। खुद का निरस्‍त हो जाए,वहीं गनीमत है।तबादले ने बदली आबोहवा
मंगूरामजी की ना तो मंत्रीजी से जान-पहचान और ना ही मंत्रीजी मंगूरामजी को जानते हैं। जो जाते ही तबादला निरस्‍त कर दे। चुनाव दौर में जरूर जानते-पहचानते होगे। क्‍योंकि उस वक्‍त तो अनजान भी जान-पहचान वाला हो जाता है और चुनाव जीतने के बाद चिरपरिचित भी अनजान हो जाता है। मंगूरामजी ठहरे सीधे-साधे व्‍यक्ति। कभी राजनीति से तादात्‍म्‍य रहा नहीं। ईमानदारी से नौकरी की है। लेकिन कभी अपने बाल-बच्‍चों की ख्‍वाहिश पूरी नहीं की है।
तबादला निरस्‍त के चक्‍कर में मंगूरामजी की चप्‍पल घिस गई। गांव के मुखिया से लेकर प्रधान तक और प्रधान से लेकर क्षेत्रीय विधायक तक कई चक्‍कर लगा मारे। इन सब से विन्रम आग्रह भी कर लिया और आबोहवा का जिक्र भी कर दिया। आग्रह स्‍वीकार कर लेते हैं पर उपकार में आश्‍वासन थमा देते हैं। जो‍ कि किसी काम न काज का। बस थोड़ी देर खुशमिजाज का। उसके बाद फिर से नेताजी की ज़बान का। क्‍योंकि आश्‍वासन ही तो है,जो आसानी से चिपका दिया जाता है। वैसे भी नेताजी का आश्‍वासन देने में क्‍या जाता है? बहुतायत में पर्याप्‍त है। जो कभी समाप्‍त ही नहीं होता।
अंत में मंगूरामजी गंगारामजी के पास पहुंचे,जो मंत्रीजी का खास है। खास से आस रहती है कि तबादला निरस्‍त हो जाएंगा। गंगारामजी बोले- ‘बताए कैसे आना हुआ।’ मंगूरामजी ने अपनी दुविधा बताई। सुनकर गंगारामजी ने भी सहानुभूति दिखाई। समझाते हुए कहा-‘बहरहाल तो तुम्‍हारा तबादला निरस्‍त हो नहीं सकता।’ यह सुनकर मंगूरामजी एक शब्‍द ही बोल पाए-‘क्‍यों?’ ‘क्‍योंकि तुम्‍हारी जगह मंत्रीजी के साले का तबादला हुआ है। इसलिए।’ यह सुनकर मंगूरामजी चुपचाप ही वहां से चले आए और अगले दिन शहर के लिए बोरिया-बिस्‍तर गोल कर ली। उस वक्‍त मंगूरामजी ने भी यह सोचा होगा-काश हम भी मंत्रीजी खास होते तो आज गांव की आबोहवा में श्‍वास ले रहे होते। पर अब तो जो खास है वहीं पास है और जो पास है वहीं खास है। फिर चाहे वह अंगूठाछाप क्‍यों ना हो? मंत्रीजी उसकी सुनेगा,जो उसका खास है। कुछेक दिन तो शहरी आबोहवा में घुटन सी हुई। बाद शहरी आबोहवा इत्‍ती अच्‍छी लगने लगी कि गांव की आबोहवा का जिक्र करना ही भूल गया और कहने लगा कि मंत्रीजी ने यहां तबादला करके  बहुत अच्‍छा किया। अन्‍यथा मैं शहरी आबोहवा से महरूम रहता। इसीलिए मैं मंत्रीजी को धन्‍यवाद देता हूं।


अच्‍छाई और बुराई की लड़ाई

सुबह-सुबह ही बुराई और अच्‍छाई लड़ने लगी। लड़ती-झगड़ती हाथापाई पर उतर आई। जिन्‍हें देखकर भीड़ इकट्ठी हो गई। जो उन्‍हें छुड़ाने के बजाय खड़ी-खड़ी तमाशा देखने लगी। मैं दोनों के बीच-बचाव में बीच में इसलिए नहीं कूदा कि  कहीं बीच-बचाव में एकाध मुक्‍की मेरे नहीं पड़ जाए। इसलिए मैं भी ओर की तरह भीड़ का ही हिस्‍सा बनकर ही रह गया। मेरी तरह जो भी आ रहा था, वह भीड़ का हिस्‍सा बनकर भीड़ ही बढ़ा रहा था। छुड़ाने के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था।अच्‍छाई और बुराई की लड़ाई
जो आ रहा था,वहीं जेब से मोबाइल निकालकर वीडियों बनाने में मशगूल होता जा रहा था। मैंने एक सज्‍जन से पूछा-भाई ! वीडियों क्‍यों बना रहें है? देखने के लिए बना रहे है,उसने कहा। मैं फिर बोला-जब लाइव ही देख रहे हो तो विडियों की क्‍या जरूरत है,भाई। वह बोला-बस,यूं ही। यूं ही क्‍यों?मैंने पूछा। तो वह बोला-फेसबुक पर वायरल करूंगा। तुम्‍हें आपत्ति है क्‍या? मुझे भला क्‍या आपत्ति है? पर किसी की निजता को मोबाइल में कैद करना अच्‍छी बात थोड़ी है। जरा सोचिए। वह बोला-सोचना क्‍या है? देखना है,जिसे लोग देखेंगे। लोग देखेंगे तो लाइक,कमेंट्स की भरमार होगी। मैं बोला-भाई! मेरा अभिप्राय यह नहीं है,जो आप समझ रहे है। मेरा अभिप्राय है कि कल कोई आपकी निजता को भंग करें तो आप क्‍या सोचेंगे? यह सुनकर वह निरुत्‍तर हो गया और मोबाइल जेब में रखकर वहां से खिसक गया।
हालांकि पता तो मुझे भी नहीं है। दोनों किस बात पर लड़ रही हैं,पर भीड़ में से एक भाई साहब! बता रहे थे कि अच्‍छाई ने बुराई को यह कह‍ दिया कि आज रावण दहन के पुतले के साथ तू भी जलकर खाक हो जाएंगी। बस,यह सुनकर बुराई आग बबूला हो गई और गालियां देने लगी। जब बुराई बुरी-बुरी गांलिया निकालने लगी तो अच्‍छाई से रहा नहीं गया तथा उसने उसकी चोटी पकड़कर दो-चार थप्‍पड़ रसीद कर दी। फिर क्‍या था? दोनों में गुत्‍थमगुत्‍थी हो गई। दोनों की दोनों लड़ती-झगड़ती बीच सड़क पर आ गई। इन्‍हें देखकर आप-हम भी जुट गए। अफसोस कि अब भी छुड़ाने को कोई आगे नहीं आ रहा है।
लड़ती हुई बुराई कह रही है कि तू अच्‍छाई होकर भी क्‍या कर पाई? मैं देख बुरी होकर भी कहां से कहां पहुंच गई। तू समझती है कि रावण के पुतले के साथ मैं भी जलकर खाक हो जाती हूं। मूर्ख मैं जलती ही नहीं,साइड से निकल जाती हूं। यह तो मेरी कला है। जो आंखों में धूल झोंककर निकल जाती हूं। एक बार तू मुझे छोड़कर देख। फिर बताती हूं। मैं क्‍या बला हूं। अच्‍छाई उसे छोड़ी तो नहीं,पर बोली- तू चाहे जो बला हो। लेकिन मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। बुराई तू बुरी है और बूरी ही रहेंगी और आज मैं तूझे तेरी औकात बताकर ही रहूंगी। बुराई छुड़ाने का बार-बार जतन तो कर रही थी। लेकिन कामयाब नहीं हो पा रही थी। इसलिए भला-बुरा कही जा रही थी। जिसका अच्‍छाई मुंहतोड़ जवाब दे रही थी। यह तो शुक्र है कि वक्‍त पर अच्‍छाई की बहिन भलाई आ गई और बुराई का भाई बुरा आ गया। जिन्‍होंने आते ही दोनों को अलग-अलग कर दिया। अन्‍यथा दोनों एक-दूसरी की जान लेने पर तुली थी। ज‍बकि भीड़ तमाशबीन ही खड़ी थी।