मुझे यह कहकर साक्षात्कार से बाहर की राह दिखा दी कि ना तो अनुभव है और ना ही
अनुभव प्रमाण पत्र है। हम अनुभवी को ही प्राथमिकता देते हैं। दुख बाहर किए जाने का
नहीं है। बाहर तो कई बार मुझे यार-दोस्तों ने भी कर दिया हैं। कई बार कुपित होकर
पिताजी ने बाहर कर दिया। बाहर करना था तो कह देते,तुम्हारे पास अप्रोच नहीं है।
तुम्हारे पास कोई सोर्स नहीं है। तुम्हारे पास फलाना नहीं है। तुम्हारे पास
डिमका नहीं है। ये क्या बात हुई कि तुम्हारे पास अनुभव नहीं है? अरे,अनुभव तो मित्रों! मित्रों के पास भी नहीं था। फिर भी हवा में उड़े की नहीं। और ऐसा उड़े कि
परिंदे भी जिंदगी भर में जितना नहीं उड़े कि वे पांच साल में उतने उड़ लिए। अनुभवी को प्राथमिकता
अनुभव को प्रमाण कि क्या जरूरत है? अनुभव तो मेरे अंदर कूट-कूट के भरा है। यकीन न हो तो कूट-कूट
कर देख लो। सैम्पल लेकर देख लो भाई! रक्त का,मांस का,मज्जा
का। बोटी-बोटी से अनुभव टपेगा। अंग-अंग से फड़क उठेगा। इसके बाद भी अगर प्रमाण
लेना ही है तो एक कागज के टुकड़े पर लिखे ढाई आखर के प्रमाण से क्या लेना? इस तरह के प्रमाण के प्रमाण पत्र तो रद्दी के भाव में बहुत मिल जाते हैं।
लेना ही है तो कुछ दिन अवसर देकर लीजिए। फिर मेरा प्रायोगिक अनुभव देखकर अपने आप
आभास हो जाएंगा।
जब पैदा हुआ,बड़ा हुआ,अपने आस-पास देखा तो अनुभव मिला। क्या मालिया कर्जे से
डूबता छोड़ अनुभव लेकर पैदा हुआ था? उससे सीखा कि ऋण लेकर घी पीना चाहिए। फिर देश-दुनिया देखी।
सीखा कि पांव पूजाने का अनुभव। जरूरत पड़ी तो पांव उखाड़ने का अनुभव भी पाया। धवल
धारियों से सीखा कि वक्त जरूरत पड़ने पर किस तरह पलटी मारी जाती है। पलटी मारकर
किस तरह बाजी जीती जाती है। गधे को बाप बनाने का हुनर तो अब पुराना हो गया। आजकल
तो मैं इतना सीख गया हूं कि शेर को बच्चा बना सकता हूं। हाथी को पहाड़ के नीचे ला
सकता हूं। ऊंट को पहाड़ पर ले जा सकता हूं। उखड़े को गाड़ सकता हूं। गाड़े को
उखाड़ सकता हूं। इतना सर्वतोमुखी सम्पन्नता के बाद भी बाहर कर देना कैसे हजम
होगी। बताओं भला! आज के हालात में और देश में जीने के लिए
ऐसे अनुभवों की दरकार है या नहीं? एक बार मौका देकर तो
देखे,दम नहीं,खम देखें,पांच सितारा बुंलदी ना देखा दो तो सच्चा भारतीय नहीं। आप
तो धार देखें,चाहे तो उधार देखें,और एक बार सेवा का मौका दे। अनुभवी को प्राथमिकता
मुझे पच्चीस तीस प्रतिशत अनुभव तो पुश्तैनी विरासत से मिला है। पच्चीस
प्रतिशत संघर्ष करके अर्जित किया है और चौदह प्रतिशत साक्षात्कार देते रहने से हो
गया है। कुलयोग किया जाए तो चौंसठ प्रतिशत होता है। मुझे मालूम है,आज के युग में
चौंसठ प्रतिशत की कोई वैल्यू नहीं। इसलिए शेष छत्तीस प्रतिशत के लिए भी प्रयासरत
हूं। वैसे देखा जाए तो छत्तीस प्रतिशत वाले नब्बे,पचानवे प्रतिशत वालों पर हुक्म
चलाते हैं। साथ में वे ही अनुभव के आधार पर देश चला रहे हैं। और नब्बे,पचानवे
वाले उनकी हां में हां और ना में ना मिलाकर भागीदारी निभा रहे हैं। अनुभव के आधार
पर तो झोलाछाप डॉक्टर क्लीनिक चला रहे हैं। धड़ल्ले से मरीजों का इलाज कर रहे
हैं और खूब पैसा कमा रहे हैं। बिना लाइसेंस धारी अनुभव के आधार पर मोटरसाईकल से
लेकर ट्रक तक दौड़ा रहे हैं और ट्रैफिक पुलिस वाले उनका बाल भी बांका नहीं कर
पाते। एक मैं हूं,जिसे चौंसठ प्रतिशत अनुभवी होते हुए भी बाहर की राह दिखा दी जाती
है। बताओं! क्या यह
सही है?
मुझे तो लगता है कि इन्हीं की वजह से मुल्क में मुझ जैसे अनुभवियों का हिमांक
अनुपात हिमांक बिंदु से नीचे गिरता जा रहा हैं। जिसके चलते ज्यादातर अनुभवी स्वदेश
छोड़कर विदेश के ओर पलायन कर जाते हैं और शेष बचे-खुचे यहीं रह जाते हैं। जिनके
रहने के तमाम कारण हैं। जिनमें मुख्य कारण परिस्थिति है। और परिस्थिति अच्छे से
अच्छे अनुभवी को बेरोजगारी का दामन थमा देती हैं। क्योंकि परिस्थिति को रोज
दर-दर की ठोकरों से मिली सम्मान पूर्वक सेवा-सत्कार अच्छी लगती हैं।
जब बाहर निकला तो सोचा,मतलब अनुभव पाया कि अब मैं धक्के नहीं खाऊंगा। धक्के
देकर आगे बढ़ना होगा। जिंदगी इतनी सरल नहीं मोहन बाबू कि सारी जिंदगी धक्के खाते
रहो। देखना अब मेरे अनुभव का कमाल। ऐसा धमाल मचाऊंगा कि देखकर सब ढंग रह जाएंगे।
जिन्होंने बाहर की राह दिखाई है ना वे भी देखकर दांतों तले उंगली चबाते रह
जाएंगे।
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