मोहनलाल मौर्य
इस बात का किसकों भी भान नहीं था कि बैठक में आलोचक भी मौजूद है। भान होता भी कैसे? वह तो बैठक में लोगों के बीच मौजूद होते हुए भी अदृश्य था। उसके साक्षात दर्शन तो तब हुए जब उसने अच्छी खासी हो रही संगोष्ठी में घुसपैठ कर मुठभेड़ किया। शुक्र है कि मुठभेड़ में आयोजकों की ओर से जवाबी कार्यवाही में कहासुनी की फायरिंग नहीं हुई। अन्यथा बैठक कक्ष हाथापाई की घाटी में तब्दील हो जाता। जवाबी कार्यवाही विनम्रता एवं प्रत्युत्तर से दी गई। यह दृश्य था एक आयोजन के एक माह पूर्व हुई बैठक का। आगे देखिए,कार्यक्रम से पूर्व और उपरांत में क्या–क्या घटित होता है।आलोचक की मंशा पर फिरा पानी
अगले दिन कार्यक्रम की खबर अखबार में छपी। देख आयोजकों का नाम आलोचक जग गया और बिना हाथ-मुंह धोए ही काम पर लग गया। सबसे पहले तो उसने आयोजकों से सम्पर्क साधा। यह सोच के कि इनमें भी कोई ना कोई तो विभीषण होगा ही। जो मेरी सहायता कर देगा। आलोचक कोई मर्यादा पुरूषोत्तम राम तो था नहीं। जिसकी सहायता के लिए आयोजकों में से कोई विभीषण बनकर मदद करता। खुद ना आए तो क्या हुआ? उसने एकाध को अपने ओर खींचा। जिन्हें खींचा,वे आसानी से चले आए। चले इसलिए आए कि वे प्रलोभन की रस्सी से और खुशामद की मजबूत पकड़ से खींचे गए थे। आलोचक की मंशा पर फिरा पानी
दरअसल में सामाजिक सामूहिक आयोजन में आयोजक को समाज के कई पथों से गुजरना होता है। भांति-भांति पथों पर भांति-भांति लोगों से बिन मांगी राय साथ लेकर चलनी होती है। पीठ पर शिकायत भी लाद दी जाएं तो उसे भी ढोना होता है। इनसे अलहदा आलोचक है,जो आयोजक के गुणगान में उस बांसुरी में फूंक मारता रहता है। जिसमें से निंदनीय ध्वनि निकलती है। जिसे सुनकर आयोजक भाव-विभोर हो जाता है। आलोचक के बोल गुब्बारे की भांति आसमान को छूने के लिए मचलते हैं। लेकिन आसमान को छूने की कोशिश में जो हालात गुब्बारे की होती है। वैसी ही हालात आखिर में उसके बोले गए ‘बोल’की होती है।
आयोजक आयोजन में चार चांद लगाने के लिए कई दिनों से ग्रह त्याग कर अपनी झोली उठाए द्वार-द्वार दस्तक देता हैं। आग्रह से भरी झोली में से आग्रह निकालकर प्रसाद की तरह लोगों को बांटता है तथा झोली फैलाकर योगदान की भीख मांगता है। कोई आग्रह के प्रसाद के बदले में स्वेच्छा से चंदे का दान देता है तो कोई सादर नमस्कार कर अलविदा कह देता है। तब कहीं जाकर आयोजन सफल हो पाता है।
रोज की तरह सूर्योदय ने उस दिन की भी खबर दी। जिस दिन का आयोजन था। आलोचक अपने फूंक मारे प्यारों के साथ सबसे आगे ही विराजमान था। समारोह की चकाचौंध एवं अपेक्षा से ज्यादा लोगों की तादाद को देख हैरान था। कि गई आलोचना से जो आशा थी वहीं आशा अपने प्रेमी के साथ निराशा का खत लिखकर भाग गई थी। अब ऐनवक्त पर करें तो क्या करें? आशा लौटकर आ नहीं सकती। आखिरी आलोचना मन मसोस कर चुपचाप कार्यक्रम देखना ही रह गई थी। जिसका उसने पूरे मनोयोग से उपयोग किया और समारोह समापन तक पूरा आनंद लिया।
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