समझ में नहीं आता चुनावीं मौसम में ही ईवीएम से गड़बड़ियों का भूत क्यों निकलता है? पहले कहां मर जाता हैं। पहले क्या? उसे भी कोई भूत पकड़े रखता है,जो चुनावी मौसम में
छोड़ देता है। लोकतंत्र हैं, हो सकता है। गड़बड़ी को
गड़बड़ी पकड़ ले। कान में फूंक मार दे,अभी कहां निकल रही है।
बाहर तो भीषण गर्मी पड़ रही है। टेंपरेचर हाई हो रहा है। आग बरस रही है। मतदान के दिन निकलेंगे। ठीकरा किसी के भी सिर
पर फोड़ देंगे।सियासी तपिश से बेहाल लोकतंत्र
ईवीएम से गड़बड़ियों का भूत निकलता है तो निकले।
लेकिन ठीकरा तो अपने सिर पर फोड़े।सियासती एक
दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ते हैं तो बीच-बचाव में
लोकतंत्र को आना पड़ता है। बीच-बचाव में सियासती तो अपना सिर बचा लेते और लोकतंत्र
का सिर फूट जाता है। लोकतंत्र का सिर फूटता है तो लोकतंत्रवादी
भी मरहम पट्टी नहीं करवाते।
पिछले दो-तीन साल में ईवीएम जितनी बदनाम हुई है।
उतनी तो मुन्नी भी बदनाम नहीं हुई होगी। कभी छेड़खानी के आरोप लगे है तो कभी इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठे हैं। लेकिन
लू पहली बार लगी है। इन दिनों मौसमी टेम्परेचर इतना बढ़ रहा है कि पंखे,कूलर व एसी गले में फांसी का फंदा लटकाए हुए हैं। इनसे भीषण गर्मी
बर्दाश्त नहीं हो रही हैं। यह तो गर्मी से इतने तंग आ
गए हैं। इनका बार-बार खुदकुशी करने का मन करता है। लेकिन हर बार घंटा आध घंटा
स्विच ऑफ करके बचा लिया जाता है।
यह
तो शुक्र है की ईवीएम के लू ही लगी। गर्मी से तंग आकर खुदकुशी नहीं की। वरना सवाल
ही नहीं उठते, सुलगते भी। जब सवाल सुलगते हैं तो आग उगलते
हैं। उगलती आग किसी को भी निगल सकती। मौसमी टेम्परेचर की तरह सियासी टेम्परेचर भी इतना बढ़ रहा हैं। जिससे लोकतंत्र
को मुंह पर दुपट्टा बांधकर चलना पड़ रहा है।
अभी
तो सियासी लू 2019 तक तीव्रगति से चलेंगी। संभावना है आमचुनाव तक
तो सियासी टेम्परेचर अड़तालीस डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुँच जाएगा। अड़तालीस डिग्री सेल्सियस में लोकतंत्र का क्या हाल होगा? इसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। फिर भी लोकतंत्र जनतंत्र के लिए, अड़तालीस डिग्री सियासी सेल्सियस रेगिस्तान में सेना के जवान की तरह तैनात रहता है।
ईवीएम
लू की चपेट में आई तो उसकी दूसरी ईवीएम बहन उसकी जगह आ गई।
कल को लोकतंत्र लू की चपेट में आकर बीमार पड़ गया तो इसकी जगह कौन आएगा? लोकतंत्र के तो कोई भाई-भतीजा भी नहीं है,जो आ
जाएगा। सियासत की तरह कुटुंब परिवार भी नहीं है,जो पीढ़ी दर
पीढ़ी विरासत में मिली सियासत की सीढिया चढ़कर चला आएंगा। लोकतंत्र तो इकलौता है।
सच
पूछिए तो वे भी पूछने नहीं आएंगे,जो
बात-बात में कहते हैं,लोकतंत्र खतरे में हैं। लोकतंत्र की
हत्या हो रही है। जब वाकई में खतरे में होता है ना तब कोई भी खतरा मोल नहीं लेता।
सब पतली गली से निकल लेते हैं। लोकतंत्र में ‘लोक’ की हत्या हो जाती है। लेकिन ‘तंत्र’ के खरोच भी नहीं आती हैं।
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