21 Feb 2020

व्यंग्य जगत का चमकता सितारा मोहन लाल मौर्य


मनुष्य अपने भावों को शब्दों के जरिए प्रस्तुत करता है। शब्द को हिंदी काव्यशास्त्र में शक्ति मानकर तीन भागों में विभाजित व स्वीकृत किया गया है। इन तीन में व्यंजना शब्द शक्ति भी शामिल है। व्यंजना में किसी शब्द के अभिप्रेत अर्थ का बोध न तो मुख्यार्थ से होता है और न ही लक्ष्यार्थ से, अपितु कथन के संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ से या व्यंग्यार्थ से प्रकट होता है। व्यंजना को हम सामान्य तौर पर व्यंग्य के रूप में जानते-पहचानते हैं। व्यंजक शब्दों के माध्यम से व्यंग्यकार विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है। व्यंग्य का वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराइयों और कमजोरियों की हंसी उड़ाकर पेश करना होता है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार और आलोचक सुभाष चंदर के शब्दों में - व्यंग्य वह गंभीर रचना है जिसमें व्यंग्यकार विसंगति की तह में जाकर उस पर वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध आदि भाषिक शक्तियों के माध्यम से तीखा प्रहार करता है उसका लक्ष्य पाठक को गुदगुदाना न होकर उससे करुणा, खीज अथवा आक्रोश की पावती लेना होता है। अतः व्यंग्य लेखन तलवार की धार पर चलने जैसा है। इसके लिए साहस, समझ और हौसला चाहिए होता है।

व्यंग्य विधा के एक ऐसे ही हस्ताक्षर हैं मोहन लाल मौर्य। राजस्थान के अलवर जिले के चतरपुरा गांव में रहने वाले मोहन लाल मौर्य एक दशक से अपने सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर रचे व्यंग्यों के माध्यम से समाज में जागरूकता ला रहे हैं। साथ ही ग्रामीण समस्याओं के प्रति भी गंभीर होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। अपनी लेखन यात्रा के बारे में बात करते हुए मौर्य कहते हैं - मेरे लेखन की शुरुआत तब से हुई जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ता था। तब मैंने अपने समाज के एक पाक्षिक अखबार में 'राजनीति का भंवरा' शीर्षक से कविता भेजी थी। लेकिन वह तो छपी नहीं और किसी और की कविता मेरे नाम से प्रकाशित हो गई। मुझे बधाई भी प्राप्त हुई। वह कविता भी छपी। लेकिन काफी दिनों के बाद में। इसके बाद लंबे अंतराल तक कुछ भी नहीं लिखा। अक्टूबर 2011 से मैंने समाज के ही पाक्षिक अखबार रघुवंशी रक्षक पत्रिका के लिए सामाजिक खबरें, सामाजिक उत्थान एवं सामाजिक कुरीतियों पर आलेख लिखने लगा। इन्हें दिनों से यदा-कदा स्थानीय समाचार पत्रों के पाठक पीठ में भी छपने लगा। 10 फरवरी, 2015 को एक समाचार पत्र में मेरी पहली व्यंग्य रचना 'सम्मान समारोह में शिरकत' प्रकाशित हुई और इसके बाद में साल भर के लिए अंतराल का ताला लग गया। मैं अनवरत व्यंग्य लिखता रहा। न छपने पर कभी भी हताश नहीं हुआ। इस दौरान फेसबुक के जरिए मेरी मित्रता निर्मल गुप्त सर से हुई और उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया। जिनकों मैं अपना व्यंग्य गुरु मानता हूं।

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