मेरे अड़ोस में अतिभाषी और पड़ोस में कटुभाषी रहता है। दोनों के
आचार-विचार कभी मेल नहीं खाते हैं। अकेले में ही नहीं,मेले
में भी मेल नहीं खाते हैं। एक रोज भूल से खा गए। लेकिन खाने के थोड़ी देर बाद ही
दोनों को कजबहस की उल्टी होने लगी। उल्टी भी इतनी बार हुई,जिसकी
कोई गिनती नहीं। दोनों की उल्टी से कुभाषाई दुर्गंध इतनी आ रही थी कि उनके समीप जाने का मन नहीं कर
रहा था। दूर से ही समझाइश के पानी का ग्लास लिए खड़ा था। मगर वो ग्लास को पकड़
नहीं रहे थे।
मैं दुविधा में पड़ गया। दुविधा में सुविधा भी नहीं सूझती है। क्या किया जाए? अंततोगत्वा मुझे उनके समीप जाना ही पड़ा। नहीं जाता तो दोनों हाथापाई की
दवाई खाकर मर जाते। मर जाते तो मुझे गवाही देनी पड़ती। मैं किसकी गवाही देता। अतिभाषी की देता,तो कटुभाषी के परिजन कड़वे वचन
सुनाते और कटुभाषी की देता,तो
अतिभाषी के परिजन खरी-खोटी सुनाते। जिन्हें सुनकर मेरे परिजन कुपित हो जाते हैं। कुपित होने के बाद कुछ भी घटित हो सकता है। घटित होने के बाद अफसोस के सिवाय कुछ कर नहीं सकते। कुछ करें,तो करनी की भरनी भुगतनी पड़ती है। जिसके लिए मैं कभी अग्रणी नहीं रहता।
जाते ही दोनों को संभालने लगा,पर संभलने में आए नहीं।
संभलने में नहीं आए तो मैंने अपने मित्र मितभाषी को बुलाया। जिसने कटुभाषी को और
मैंने अतिभाषी को संभाला। जब दोनों कि कजबहस की उल्टियां बंद हुई। तब मैंने दोनों से पूछा,‘क्या खाए
थे,जो कि कजबहस की उल्टी हो गई।’ दोनों एक साथ बोले,‘आचार-विचार खाए थे।’ मैं बोला,‘आचार-विचार खाने से भी भला कभी किसी के
उल्टी हुई है।’
यह सुनकर अतिभाषी
बोला,‘इस कटुभाषी का आचार दूषित था।’ कटुभाषी बोला,‘ मेरा आचार नहीं,इस अतिभाषी का विचार दूषित था।’
दोनों एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आचार दूषित
था या विचार। आचार-विचार में से थोड़ा बहुत बचा-खुचा भी
नहीं था। जिन्हें सूँघ कर पता लगा लेते कि आचार दूषित
है या विचार।
मैंने अतिभाषी से पूछा,‘तेरा विचार कब का था।’
वह तपाक से बोला,‘ मेरा विचार तो एकदम ताजा था। इसका ही कई दिनों का आचार था।’
‘मेरे आचार को कई दिनों का बताने वाले सच-सच क्यों नहीं बताता है।
मेरा विचार कई दिनों का
था। तेरे विचार का एक ग्रास खाते मुझे आभास हो गया था कि दूषित है। पर मैं मन
मसोसकर इसलिए खाने लग गया था कि किसी के खाने में मीनमेख निकालना शोभा नहीं देता
है। अगला बुरा मान जाता है।’
यह कटुभाषी ने कहा,तो अतिभाषी से बगैर बोले रहा नहीं गया और बोला,‘सच तो यह है कि तेरे आचार में न सभ्यता का नमक
था,न संस्कृति की मिर्च-हल्दी और न संस्कार का तेल था। न
जाने कब से तूने अपने दिमाग़ी डिब्बे में बंद कर रखा था। मैं तो डिब्बे का ढक्कन
खोलते ही समझ गया था यह तो बहुत पुराना है। पर मैं तो इसलिए खा लिया था कि तू मेरा विचार बड़े चाव से खा रहा था।’
कटुभाषी बोला,‘मैं और तेरा विचार...। और वह भी बड़े चाव से। कदाचित नहीं। अभी बताया नहीं
मन मसोसकर खाया था। तेरे विचार में सुविचार का मसाला तो रत्ती भर भी नहीं था।’
दोनों के आरोप-प्रत्यारोप से मुझे प्रतीत हो गया
था कि दोनों के ही आचार और विचार दूषित थे। जिन्हें खाने से दोनों को कजबहस की
उल्टी हुई थी। मैंने दोनों को समझाया और कहा,‘एक-दूसरे का खाना खाने से पहले अच्छी तरह से
देख लेना चाहिए। खाना शुद्ध है या नहीं।’
मोहनलाल मौर्य
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