पहले
जैसी होली का उत्सव अब कहां बचा है। होली डांडा रोपण के दिन से ही फाग का राग शुरू हो जाता था और होली दहन तक
चलता था। पूरी रात नाचते गाते थे। डफ की थाप पर नागिन
डांस करते थे। महिलाएं होली के गीत गाया करती थी। अब न
तो होली का डांडा गड़ता है न कोई
फाग का राग गाता है और न कोई नृत्य करता है। बस होली के दिन डीजे बजा लेते हैं और
नाच लेते हैं। डीजे
पर भी सिर्फ छोरे-छापरे थिरक लेते हैं।
पहले मोहल्ले
के सारे टाबर दिन ढलते ही एक जगह इकट्ठे हो जाते थे और स्वाँग निकालने का कार्यक्रम
बनाते थे। रोज घर-घर जाकर स्वाँग दिखाते थे। बड़े-बुजुर्ग एक-दो रुपया देकर आशीर्वाद देते थे।
उन रुपयों की मिठाइयां खाते थे। आज के टाबर स्वाँग जानते ही नहीं। यह तो रंग-गुलाल लगाने का अभिप्राय भी नहीं जानते हैं। बस एक-दूसरे की देखा देखी को देखकर लगा देते हैं।
अपने स्मार्टफोन से सेल्फी ले लेते हैं और सोशल मीडिया पर टांक देते हैं।
लोग
रात्रि को लुकाछिपी का खेल खेलते थे और लोगों की बाड़ उठा लाते थे। होलिका टिब्बा लाकर पटक देते थे।
लेकिन बाड़
का मालिक चू नहीं करता था। अब यह सब बीते दिनों की
बात हो गई। तभी
आज होली की लपटें ज्यादा ऊपर नहीं उठती हैं। जबकि पहले
एक गांव कि होली की लपटें दूसरे गांव में दिख जाती थी।
क्योंकि भर भोलिए और लकड़ियों
का ढेर लग जाता था। अब ढेर तो लगता नहीं हैं और लपटें
उठती नहीं है। पहले पूरे गांव की एक ही जगह होली होती थी और अब ढाणी-ढाणी में होली मंगलने लगी है।
होली
दहन के बाद बच्चे बड़े बुजुर्ग सब घर-घर जाकर एक-दूसरे के गले मिलते थे। शिकवे-गिले दूर
भगाते थे। अपनों से बड़ों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेते थे। अब तो पड़ोसी के
नहीं जाते हैं। बस व्हाट्सएप पर ही आशीर्वाद आदान-प्रदान कर लेते हैं। धुलेंडी के दिन रंग ही नहीं लगाते थे। बल्कि कीचड़ तक उड़ेल
देते थे। देवर-भाभी और जीजा-साली तो एक-दूसरे के मुंह में रंग ठुस देते थे और चेहरे पर कालिख पोत देते थे। आज कालिख पोत
दे तो कलह हो जाए। मोहनलाल मौर्य
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