7 Jun 2020

सड़क की आपबीती


मैं सड़क हूँ। अब यह मत पूछिएगा कि कहाँ की हो। नेशनल हाईवे की हो या स्टेट हाईवे की। या फिर जिला,तहसील,शहर,कस्बा,देहात की हो। इसी देश की हूँ। यही के रोड़ी,कंकड़,तारकोल से निर्मित हूँ। मेरे निर्माता मजदूर,ठेकेदार,इंजीनियर भी यही के ही हैं। लेकिन यह सब मैं क्यों बता रही हूँ। यह तो आपको भी पता है और सरकार को भी। मैंने आप लोगों से ही सुना है कि दुख-दर्द बाँटने से कम हो जाते हैं,इसलिए सोचा कि क्यों न अपना दुख-दर्द बाँटकर थोड़ा कम ही कर लूं,क्योंकि इन दिनों मैं पैदल चल रहे अपने देश के मजदूर भाई-बहनों की हालात देखकर इतनी दुखी हूँ कि लफ्जों के जरिए बता पाना मुश्किल हो रहा है। सच पूछिए तो मैं इतनी दुखी तो तब भी नहीं होती,जब बारिश के दौरान मेरे सीने में गड्ढे पड़ जाते हैं। चिलचिलाती धूप से मेरी तारकोल रूपी चमड़ी पिघलने लग जाती है। 
मैं अपने जीवन काल में न जाने कितनी बार टूटी-फूटी हूँ,पर कभी भी मुझ पर चलने वाले लोगों को प्रवासी मजदूरों की जितनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ी होगी। मैंने साइकिल से लेकर ट्रक तक का भार वहन किया है,पर आजकल मुझसे मजदूर भाई-बहनों का मामूली सा भार वहन नहीं हो रहा है। मुझ पर चलने से उनके नंगे पैरों में मेरे कंकड़ चुभ रहे हैं। जिससे मुझे भी उतनी ही तकलीफ हो रही है। जितनी उन्हें हो रही है। लेकिन मैं भी मजदूरों की तरह मजबूर हूँ। माना कि मेरा दिल कंकड़-पत्थर से निर्मित है,लेकिन मैं पत्थर दिल नहीं हूँ।मजदूरों के पैरों में छाले पड़ते ही मेरी आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं। मजदूर महिलाओं के सिर पर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ और गोद में देश का भविष्य को देखकर मैं स्तब्ध हूँ। सरकार को खूब कोस रही हूँ,पर मेरी सरकार ने कब सुनी है जो कि अब सुन लेगी। सरकार को चुनने में मेरा योगदान होता तो शायद मेरी सुन भी लेती। लेकिन सरकार चुनने में इन मजदूरों का तो बहुत बड़ा योगदान रहता है। फिर भी इनके लिए बस या रेल की व्यवस्था नहीं की।  सरकार जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि बनाते हैं,ये मजदूर नहीं। मुझे तो लगता है कि शायद जनता में ये प्रवासी मजदूर आते ही नहीं हैं। अगर आते तो ये भूखे-प्यासे पैदल नहीं चल रहे होते। 
आपने तो मजदूरों की वही तस्वीर देखी होंगी,जो कि मीडिया या सोशल मीडिया पर वायरल हुई है। मैं तो लॉकडाउन लगे दिन से ही नित्य लाइव देख रही हूँ। कोई अपनी बीवी को,तो कोई अपने बच्चे को कंधे पर बैठाकर ले जा रहा है। कोई अपनी माँ को गोद में तो कोई अपने बाप को पीठ पर लादकर चल रहा है। कोई अकेला तो कोई झुँड के साथ चल रहा हैं। थोड़ी बहुत देर मेरे किनारे किसी पेड़ की छाँव तले बैठे तो बैठे अन्यथा चले जा रहे हैं। किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं कर रहे हैं। किसी न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर ने पूछ लिया तो अपनी व्यथा बता दी। लेकिन जितना समय रिपोर्टर के साथ व्यतीत किया है न उसे कवर करने के लिए पूर्व की अपेक्षा तेज चलने लगते हैं और तब तक इसी स्पीड से चलते रहते हैं। जब तक अपने साथियों के साथ नहीं हो जाए। समय का एक पल भी गँवाना नहीं चाहते हैं। बस जल्दी से जल्दी अपने घर पहुँचना चाहते हैं। घर पहुँचने की जल्दी में न धूप से डर रहे हैं और न भूख से व्याकुल हो रहे हैं। भूखे या फिर रूखी सूखी खाकर मेरे पर चले जा रहे हैं।
मैं रोज यही सोचती हूँ कि आज शायद ही कोई मजदूर मेरे ऊपर से गुजरेगा। लेकिन कारवाँ टूट नहीं रहा हैं। रोज मजदूर भाई-बहनों की पदचाप मेरे कानों में पड़ रही हैं। जिसे सुनकर मैं सुन्न हो जाती हूँ। न जाने क्या-क्या सोचने लगती हूँ। दिनभर उधेड़बुन में ही रहती हूँ। मजदूरों की देह से मेरी देह पर इतना पसीना पड़ रहा है कि चिलचिलाती धूप न हो तो दरिया की तरह बहने लग जाए। लेकिन पसीना सुखाने के बजाय चले जा रहे हैं। कोई पानी की बोतल या भोजन का पैकेट देने के लिए रोकता है,तब भी रुकते नहीं है चलते-चलते ही ले लेते हैं।
एक दिन तो वो मजदूर मेरे पर चलकर अपने घर जा रहे थे,जिन्होंने मेरा निर्माण किया था। उनके चरण अपने पर पाकर मैं धन्य तो हो गई। मगर मुझ पर लग रहे उनके चरणों के खून के धब्बे देखकर मेरे मुख से धन्यवाद तक प्रस्फुटित नहीं हुआ। उस समय उन्हें धन्यवाद से कहीं ज्यादा मरहम पट्टी की आवश्यकता थी।जो मैं चाहकर भी नहीं कर पाई। कर भी कैसे पातीमेरे पास रोड़ी,कंकड़,पत्थर,तारकोल के सिवाय कुछ भी नहीं है। जिनसे मरहम पट्टी नहीं,बल्कि घाव होते हैं।  काश,निर्जीव न होती,तो शायद कुछ न कुछ बंदोबस्त अवश्य करती। 

गर्मी व कूलर


3 Jun 2020

रोटी ‘दो जून’ की ही क्यों !


अभी 02 जून बिता,तो सबको ‘दो जून की रोटी’ वाला मुहावरा खूब याद आया। लेकिन आज तक यह समझ में नहीं आया कि रोटी दो जून की ही क्यों होती है दो जनवरी, दो फरवरी, दो मार्च,दो अप्रैल या दो मई की क्यों नहीं होती? जून में भी दो जून ही क्यूंएक या तीन जून की भी तो हो सकती थी। दो जुलाई की रोटी कहने में क्या बुराई हैं। क्या दो जुलाई पराई हैअगर यह पराई है,तो दो अगस्त या दो सितंबर की रोटी रख लेते। इनमें भी खोट थी,तो दो अक्टूबर या दो नवंबर-दिसंबर की  रोटी का मुहावरा बना देते।
रोटी के साथ सब्जी शामिल क्यों नहीं की गईजबकि रोटी और सब्जी का तो जन्म-जन्मांतर का साथ है। मुहावरा दो जून की रोटी-सब्जी हो जाता, तो क्या धरती-आसमान ऊपर-नीचे हो जाते हैंरोटी-सब्जी न सही,दाल-रोटी रख लेते। तब मुहावरा बनता ‘दो जून की दाल-रोटी’। और अगर तब भी दाल महंगी थी,तो चटनी सम्मिलित कर लेते। दो जून की चटनी-रोटी का मुहावरा और भी बेहतर लगता। वैसे भी दो जून की रोटी वालों के नसीब में चटनी-रोटी ही होती है। साग- सब्जी तो कभी-कभार ही खाने को मिलती हैं। 
दो जून तो आटे के किसी ब्रांड का नाम भी नहीं। ब्रांड होता,तो बात सहज समझ आती कि दो जून ब्रांड के आटे में जरूर कुछ क्वालिटी होगी, कि गूंथने और बेलने में आसानी रहती होगी,कि तवे पर गिरते ही रोटी खुदेई फूल के गोलगप्पा बन जाती होगी, कि खाते ही गप्प दने से पच जाता होगा। फिर तो उसका विज्ञापन भी आता ‘दो जून का आटा,खाते हैं बिरला-टाटा’। मगर ये ब्रांड-वांड़ का मामला लगता नहीं क्योंकि ये मुहावरा उस वक्त से है, जब बाजार घर में घुसा नहीं था।
इंसान रोज ही, मतलब पूरे साल, जनवरी से दिसंबर तक की हर तारीख को रोज़ी-रोटी के लिए परिश्रम करता है,मगर क्रेडिट कमबख्त दो जून को मिल जाता है कि ‘दो जून की रोटी कमाने को हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं बाबूजी’।
आखिर वह किस वर्ष की सौभाग्यशाली दो जून थी,जो मुहावरा बन गई। कहीं ऐसा तो नहीं कि जून में बहुत गर्मी पड़ती है और गर्मी में मेहनत करने पर पसीना आता है, इसलिए पसीने से कमाई गई रोटी को कह दिया गया हो, ‘दो जून की रोटी’। मगर गर्मी तो मई में भी रहती है। फिर मई ने क्या बिगाड़ा था? हें जी?
खैर,बात दो जून की रोटी की हो रही थी। तो सवाल यह भी उठता है कि दो जून की रोटी मोटी हो या पतली,गोलमटोल हो या टेढ़ी-मेढ़ी,अधजली हो या अधपकी, जिसे जैसी मिल जाए,कोई उसे छोड़ता नहीं। हां,इसके लिए लोग घर-परिवार जरूर छोड़ देते हैं। खुद के ही देश में प्रवासी बन जाते हैं। जिस दो जून की रोटी के लिए,गांव छोड़कर शहर गए थे, लॉकडाउन में उसी रोटी के लिए मोहताज हो गए। शहर से वापस गांव भूखे प्यासे ही सैकड़ों किलोमीटर पैदल चले। मगर ये लोग जून में पैदल नहीं चले, बल्कि दो जून की रोटी के लिए अप्रैल और मई में पैदल चले। वैसे कुछ भी कहिए,पर भूख यह कभी नहीं देखती कि रोटी किसकी और कब की है।
यह सब शोध का विषय है। मगर इस पर शोध करे कौन? अपन तो करने से रहे क्योंकि अपन तो लेखक हो गए हैं। और जो आदमी एक बार लेखक हो जाता है, फिर वह किसी और काम का नहीं रहता।
वैसे दो जून की रोटी पर मंथन करते-करते अब मुझे तो भूख लग आई है। अगर आगे का शोध आप लोग कर लो, तो मैं जाकर रोटी खा लूं। कबीर दास जी कह गए हैं-‘रूखी-सुखी खाए के ठंडा पानी पीव,देख पराई चुपड़ी मत ललचावे जीव’।

1 Jun 2020

गर्मी,कूलर और असमंजस


पंखा गर्म हवा देने लगा है। जिसके नीचे लेटना तो दूर बैठ तक नहीं सकते। तुम हो कि सुनते ही नहीं। सुनकर अनसुनी कर जाते हो। क्या तुम्हें गर्म हवा नहीं लगतीबताइएबहरे हो क्याया फिर जान-बूझकर बन गए हो। जो कि बता भी नहीं रहे हो। गूंगा-बहरा बनने से पार नहीं पड़ेगी। मैं कोई आभूषण तो लाने के लिए कह नहीं रही हूं। न हाथी घोड़ा। न हवाई जहाज के लिए कह रही हूं। बस एक कूलर के लिए कह रही हूं। जो कि कोई लाख दो लाख का तो आएगा नहीं। यही कोई पांच-सात हजार रुपए का आएगा।’  
जब मेरी जीवनसंगिनी मुझसे यह कहा तो मैंने उसे समझाते हुए कहा,‘पंखा गर्मी की वजह से गर्म हवा फेंक रहा है। वरना यह पंखा इत्ती ठंडी हवा देता है कि इसके आगे तो एसी भी फेल है। कूलर की तो बिसात ही क्या है?’ 
यह सुनकर पत्नी बोली,‘उपलब्धि मत गिनाओं। तुम तो यह बताओं। कूलर लाना है या नहीं।
कूलर लाकर करेंगे क्याएक बार बरसात हो जाने दे। फिर देखना,यह पंखा ही कूलर बन जाएगा। इसे ही मीडियम पर चलाना पड़ेगा। चद्दर और ओढ़नी पड़ेगी।
यह मैंने पत्नी से कहा तो वह भृकुटी चढ़ाते हुई बोली, ‘इस खटारे पंखे की ज्यादा महिमामंडित मत करिए,वरना नीचे उतारकर कबाड़ी को बेच दूंगी।
तुझे पता भी है। यह पंखा कितना पुराना है। अब तक सिर्फ दो बार ही खराब हुआ है।’  
यह मैंने कहा तो वह गुस्से से लाल पीली हो गई और बोली,‘मुझे सब पता है। बताने की जरूरत नहीं है। जिसकी जरूरत है न उसके संदर्भ में तो बता नहीं रहे हैं। पंखे का गुणगान किए जा रहे हो। तुम तो सारी दोपहरी नीमड़ी तले बैठकर ताश पत्ती पीटते रहते हो। तुम्हें क्या पतागर्म हवा तो मैं खाती हूं न।
मैंने कहा,‘तू सीढ़ी लगा। मैं अभी दो बाल्टी पानी की छत पर डाल आता हूं। छत ठंडी होते ही देखना,पंखा ठंडी हवा नहीं देने लगे तो कहना।
वह बोली, ‘तुम मूर्ख हो या फिर मुझे मूर्ख समझते हो। दो बाल्टी तो दो मिनट में उड़ जाएंगी। दिख नहीं रहा धूप कित्ती तेज पड़ रही है। सूर्य की ओर देखा तक नहीं जा रहा है। एक दिन पानी डालने से क्या होगारोज-रोज तो डालने से रहे। छत पर डालने के बजाए कूलर लाकर उसी में डालिए न।
मैंने कहा, ‘कूलर तो ले आएंगे। पर उसे रखेंगे कहांइस छोटे से कमरे में रखने की जगह तो है ही नहीं। सारी जगह तो बेड,अलमारी और संदूक ने रोक रखी है।
पत्नी बोली,‘लेकर तो आए नहीं और रखने की पहले ही सोचने लग गए। जंगले के बाहर रख लेंगे।
तुम्हें पता भी है। जंगले के बाहर रखेंगे तो हवा अंदर पार ही नहीं होगी। जंगले की जाली बहुत ही बारिक है।
मेरी बात को बीच में ही काटती हुई पत्नी बोली, ‘जंगले की जाली काट लेंगे। तुम कूलर तो लेकर आओं।’ 
मैंने कहा,‘थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कूलर आ ही गया। उसे जंगले के बाहर रख भी दिया। पर मुझे यह बताइए बाहर धूप से कूलर गर्म नहीं होगा क्यागर्म होने के बाद फिर वह भी गर्म हवा ही फेंकेगा। फिर तुम एसी के लिए कहोगी। एसी लाने की मेरी औकात नहीं है।
जिसकी औकात है न वो तो ला नहीं रहे हो और  बेमतलब की बातें बनाते जा रहे हो। सीधे-सीधे यूं ही क्यों नहीं कर देते कि कूलर लाने की औकात नहीं है। तुमसे अच्छा तो हमारा पड़ोसी ही सही है,जो कि अपनी बीवी के एक बार कहने पर ही कूलर लाकर लगा दिया। जबकि वह तो हमारे से भी गरीब है।यह कहकर पत्नी रसोई में चली गई और मैं सोच रहा हूं कि कूलर लाऊं या फिर नहीं लाऊं। अब आप ही बताइए।
मोहनलाल मौर्य