मैं सड़क हूँ। अब यह
मत पूछिएगा कि कहाँ की हो। नेशनल हाईवे की हो या स्टेट हाईवे की। या फिर जिला,तहसील,शहर,कस्बा,देहात की हो। इसी
देश की हूँ। यही के रोड़ी,कंकड़,तारकोल
से निर्मित हूँ। मेरे निर्माता मजदूर,ठेकेदार,इंजीनियर भी यही के ही हैं। लेकिन यह सब मैं क्यों बता रही हूँ। यह तो
आपको भी पता है और सरकार को भी। मैंने आप लोगों से ही सुना है कि दुख-दर्द बाँटने
से कम हो जाते हैं,इसलिए सोचा कि क्यों न अपना दुख-दर्द
बाँटकर थोड़ा कम ही कर लूं,क्योंकि इन दिनों मैं पैदल चल रहे
अपने देश के मजदूर भाई-बहनों की हालात देखकर इतनी दुखी हूँ
कि लफ्जों के जरिए बता पाना मुश्किल हो रहा है। सच पूछिए तो मैं इतनी दुखी तो तब
भी नहीं होती,जब बारिश के दौरान मेरे सीने में गड्ढे पड़
जाते हैं। चिलचिलाती धूप से मेरी तारकोल रूपी चमड़ी पिघलने लग जाती है।
मैं अपने जीवन काल में
न जाने कितनी बार टूटी-फूटी हूँ,पर कभी भी मुझ पर चलने वाले लोगों को प्रवासी मजदूरों की जितनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ी होगी। मैंने साइकिल से
लेकर ट्रक तक का भार वहन किया है,पर आजकल मुझसे मजदूर
भाई-बहनों का मामूली सा भार वहन नहीं हो रहा है। मुझ पर चलने से उनके नंगे पैरों
में मेरे कंकड़ चुभ रहे हैं। जिससे मुझे भी उतनी ही तकलीफ हो रही है। जितनी उन्हें
हो रही है। लेकिन मैं भी मजदूरों की तरह मजबूर हूँ। माना कि मेरा दिल कंकड़-पत्थर
से निर्मित है,लेकिन मैं पत्थर दिल नहीं हूँ।मजदूरों के
पैरों में छाले पड़ते ही मेरी आँखों से आँसू छलक पड़ते हैं। मजदूर महिलाओं के सिर पर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ और गोद में देश का
भविष्य को देखकर मैं स्तब्ध हूँ। सरकार को खूब कोस रही
हूँ,पर मेरी सरकार ने कब सुनी है जो कि अब सुन लेगी। सरकार
को चुनने में मेरा योगदान होता तो शायद मेरी सुन भी लेती। लेकिन सरकार चुनने में इन मजदूरों का तो बहुत बड़ा
योगदान रहता है। फिर भी इनके लिए बस या रेल की व्यवस्था नहीं की। सरकार जनता द्वारा चुने हुए जनप्रतिनिधि बनाते हैं,ये मजदूर नहीं। मुझे तो लगता है कि शायद जनता में
ये प्रवासी मजदूर आते ही नहीं हैं। अगर आते तो ये भूखे-प्यासे पैदल नहीं चल रहे
होते।
आपने तो मजदूरों की
वही तस्वीर देखी होंगी,जो कि मीडिया या सोशल मीडिया पर वायरल हुई है। मैं
तो लॉकडाउन लगे दिन से ही नित्य लाइव देख रही हूँ। कोई अपनी बीवी को,तो कोई अपने बच्चे को कंधे पर बैठाकर ले जा रहा है। कोई अपनी माँ को गोद
में तो कोई अपने बाप को पीठ पर लादकर चल रहा है। कोई
अकेला तो कोई झुँड के साथ चल रहा हैं। थोड़ी बहुत देर मेरे किनारे किसी पेड़ की
छाँव तले बैठे तो बैठे अन्यथा चले जा रहे हैं। किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं कर रहे
हैं। किसी न्यूज़ चैनल के रिपोर्टर ने पूछ लिया तो अपनी व्यथा बता दी। लेकिन जितना
समय रिपोर्टर के साथ व्यतीत किया है न उसे कवर करने के लिए पूर्व की अपेक्षा तेज
चलने लगते हैं और तब तक इसी स्पीड से चलते रहते हैं। जब तक अपने साथियों के साथ
नहीं हो जाए। समय का एक पल भी गँवाना नहीं चाहते हैं। बस जल्दी से जल्दी अपने घर
पहुँचना चाहते हैं। घर पहुँचने की जल्दी में न धूप से डर रहे हैं और न भूख से
व्याकुल हो रहे हैं। भूखे या फिर रूखी सूखी खाकर मेरे पर चले जा रहे हैं।
मैं रोज यही सोचती
हूँ कि आज शायद ही कोई मजदूर मेरे ऊपर से गुजरेगा। लेकिन कारवाँ टूट नहीं रहा हैं।
रोज मजदूर भाई-बहनों की पदचाप मेरे कानों में पड़ रही हैं। जिसे सुनकर मैं सुन्न
हो जाती हूँ। न जाने क्या-क्या सोचने लगती हूँ। दिनभर उधेड़बुन में ही रहती हूँ।
मजदूरों की देह से मेरी देह पर इतना पसीना पड़ रहा है कि चिलचिलाती धूप न हो तो
दरिया की तरह बहने लग जाए। लेकिन पसीना सुखाने के बजाय चले जा रहे हैं। कोई पानी की बोतल या भोजन का
पैकेट देने के लिए रोकता है,तब भी रुकते नहीं है चलते-चलते ही ले लेते हैं।
एक दिन तो वो मजदूर
मेरे पर चलकर अपने घर जा रहे थे,जिन्होंने मेरा निर्माण किया था। उनके चरण
अपने पर पाकर मैं धन्य तो हो गई। मगर मुझ पर लग रहे
उनके चरणों के खून के धब्बे देखकर मेरे मुख से धन्यवाद तक प्रस्फुटित नहीं हुआ। उस समय उन्हें धन्यवाद से कहीं ज्यादा मरहम पट्टी की आवश्यकता
थी।जो मैं चाहकर भी नहीं कर पाई। कर भी कैसे पाती? मेरे पास रोड़ी,कंकड़,पत्थर,तारकोल के सिवाय
कुछ भी नहीं है। जिनसे मरहम पट्टी नहीं,बल्कि घाव होते हैं। काश,निर्जीव न होती,तो शायद
कुछ न कुछ बंदोबस्त अवश्य करती।
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