28 Mar 2021

शब्दों के साथ व्यंग्यकार की होली

फागुन का आगमन होते ही व्यंग्यकार का मन शब्दों के साथ होली खेलने को मचलने लगता है। भले ही शब्द खेलने के लिए तैयार नहीं हो। उन्हें तुकबंदी से मना लेता है। बड़े-बड़े शब्दों को छोटे-छोटे वाक्यों के साथ तालमेल बैठा देता हैं। जो शब्द गुलाल लगवाने में आनाकानी करता है। उसे व्यंग्यमय पिचकारी से रंग देता है। रंग में रंग जाने के बाद उसे रचना का होना ही पड़ता है। 

व्यंग्यकार शब्दों के साथ होली अपने लिए ही नहीं खेलता है। बल्कि कईयों के लिए खेलता है। सर्वप्रथम तो संपादक के लिए खेलता है। उसके बाद में अखबार के लिए। अखबार के बाद में पाठक के लिए। पाठक के पश्चात पैसा और प्रसिद्धि के लिए खेलता है। थोड़ी सी प्रसिद्धि तो प्रकाशित होते ही मिल जाती है। थोड़ी से थोड़ी ज्यादा व्हाट्सएप पर मिल जाती है। थोड़ी से कहीं ज्यादा प्रकाशित की कटिंग को फेसबुक पर टांगने पर मिल जाती है। पैसा तत्काल नहीं। काफी दिनों बाद मिलता है। जिसका मलाल नहीं। उस पैसा से मालामाल तो हो नहीं सकता। इसलिए मलाल करके अपने आपको क्यूं हलाल करें।

 https://vyangyalekh.blogspot.com

खुशी-खुशी शब्दों के साथ खेलने का ही कमाल करें। जिससे एक ओर नवीन व्यंग्य रचना को प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हो। एक व्यंग्यकार के लिए प्रकाशित होने का सौभाग्य उसी तरह से मायना रखता है। जिस तरह से एक महिला के लिए उसका मायका रखता। जिस तरह से एक भारतीय महिला सब कुछ सह सकती है। लेकिन अपने मायका की आलोचना कतई नहीं सुनती है। इसी तरह से एक व्यंग्यकार अपनी प्रकाशित रचना की आलोचना कतई पसंद नहीं करता है।हां,बधाई और शुभकामना पाने के लिए फेसबुक के इनबॉक्स तक में रचना भेज देते हैं।

https://vyangyalekh.blogspot.com

शब्दों के साथ होली खेलने का मकसद सिर्फ प्रकाशित होने तक ही नहीं रहता है। प्रभावित करने का भी रहता है। लोग प्रभावित होंगे,तो प्रणाम करेंगे। आज के युग में प्रणाम पुरस्कार से कम नहीं है। बल्कि कहीं ज्यादा ही होता है। लेकिन मिलता आधा ही है। आधे में बाधा आ जाती है। सोशल मीडिया के युग में आधा भी बहुत है। पुरस्कार तो आधा अधूरा भी नहीं मिलता है। जबकि व्यंग्यकार पुरस्कार के लिए भी शब्दों के रंग-गुलाल लगाता है। उन पर व्यंग्यात्मक पिचकारी छोड़ता है। रूठे हुए शब्दों को मनाता है। गुझिया खिलाता है।शानदार,मजेदार व धारदार जैसी रचनाओं का संगी साथी बनाता है। फिर भी पुरस्कार झोली में आकर नहीं गिरता है।

लेकिन एक न एक दिन गिर ही जाएगा। इसी उम्मीद पर व्यंग्यकार मोबाइल या लैपटॉप पर लेटे-लेटे ही शब्दों पर रंग-गुलाल उड़ाता रहता है। ताकि शब्द रंग-बिरंगे रंग-गुलाल से सराबोर रहे। सराबोर शब्द रचना में सामाजिक सौहार्द बनाए रखते हैं। शब्द बहुत समझदार होते हैं। कहां पर अपनी भूमिका निभानी है और कहां पर नहीं। इसका पूरा ध्यान रखते हैं। जब कभी ध्यान से भटक जाते हैं और वाक्य के अंदर हो जाते हैं। संपादक से अनुरोध करके बाहर निकल आते हैं। संपादक आग्रह स्वीकार नहीं करता है,तो रचना की ऐसी-तैसी कर देते हैं। कोई भी जैसी-तैसी रचना की भी ऐसी-तैसी नहीं चाहता है। सबका मन वाहवाही लूटने में रहता है। वाहवाही हवा में उड़ने वाली कोई पतंग तो है नहीं,जिसको आसमान से गिरते ही आसानी से लूट ले। वाहवाही के लिए हर उस शब्द के साथ होली खेलनी होती है,जो रचना के गली मोहल्ला व गांव देहात में रहता है।

https://vyangyalekh.blogspot.com

जब शब्द एक-दूसरे के लाल,पीला,हरा गुलाबी गुलाल लगाते हैं तो रचना होली व्यंग्य बनने से रह नहीं सकती है। उसे देश के सबसे प्रमुख अखबार में प्रकाशित होने से भी कोई रोक नहीं सकता है। होली के रंगों से रंगी रंग-बिरंगी व्यंग्य रचना को देखकर संपादक महोदय बगैर संपादित किए प्रकाशित कर देता है।

मोहनलाल मौर्य 

 


 

27 Mar 2021

होली की होली और भड़ास की भड़ास

रंगलाल पर पिछली बार मोहल्ले के सारे छोरे टूट पड़े थे। गनीमत रही कि उसके शरीर का एक भी अंग नहीं टूटा। अगर टूट जाता तो टूटकर पड़ने वालों की खैर नहीं थी। खैर छोड़िए। टूटकर पड़ने का कारण उसके रंग-गुलाल छीनकर उसी को रंगने का था। जिसमें कामयाब भी हुए। उसे उसी के रंग-गुलाल से सराबोर करने के बाद ही उसके ऊपर से उठे। रंगलाल रंग-गुलाल से इतना सराबोर हो गया था कि कई दिनों तक होली के रंग छुड़ाने पर भी नहीं छूटे। रंगलाल अपने आपको लूटा हुआ महसूस करने लगा। जबकि रंग-गुलाल के सिवाय रंगलाल का कुछ भी नहीं लूटा गया था।


https://vyangyalekh.blogspot.com/

लेकिन रंगलाल पिछली बार की भड़ास निकालने के लिए अबकी बार टूटकर पड़ने वालों को ढूंढ-ढूंढकर सूचीबद्ध कर लिया हैं। वे तो होली पर टोली के संग टूटकर पड़े थे और यह एक-एक करके सबके साथ बगैर टूटकर पड़े ही होली की होली खेलेगा और भड़ास की भड़ास निकालेगा।

इस तरह से खेलेगा कि किसी के बाप को भी पता नहीं चलेगा होली खेल रहा है या फिर भड़ास निकाल रहा है।गले लगाकर गले पड़ेगा। थोड़ी सी गुलाल लगाने के लिए कहेगा और मुट्ठीभर लगाएगा। एक हाथ से गालों पर और दूसरे से बालों पर लगाएगा। जब तक बंदा रंग-गुलाल से सराबोर नहीं हो जाएगा। तब तक उसका पिंड नहीं छोड़ेगा।

https://vyangyalekh.blogspot.com

अच्छा सूचीबद्ध वाले हाथ नहीं लगे,तो ऐसा नहीं है कि भड़ास नहीं निकालेगा। गतवर्ष की भरपाई तो इसी वर्ष करके ही रहेगा। जो मिल गया,वही सही। बस मन से भड़ास निकलनी चाहिए और तन पर रंग-गुलाल चढ़नी चाहिए। फिर चाहे सामने कोई भी हो। यही रंगलाल की हार्दिक इच्छा है। जिसे पूरी करने के लिए पुरजोर से लगा हुआ है। लेकिन अकेला कोई मिल नहीं रहा है। सब के सब टोली के संग होली खेल रहे हैं। टोली वालों के साथ खेलने पर अच्छे-अच्छों की रंग गुलाल फीकी पड़ जाती है। ट्रैफिक हवलदार से बचकर निकल सकते हैं,पर होली पर टोली वालों के सामने आने के बाद बचकर निकलना नामुमकिन है। इनके सम्मुख कोई समझदारी दिखाता है,तो वे कीचड़ को भी गुलाल समझकर उसके चेहरे पर पोत देते हैं। उनका मानना है कि कीचड़ में कमल खिल सकता है,तो कीचड़ से होली खेलने में बुराई क्या है।

एकाध के साथ होली ही खेल सकते हैं। उनके साथ भड़ास निकाले तो मन की भड़ास भाड़ में घुस जाए और तन पर खुद की ही रंग-गुलाल चढ़ जाए। यह कोई भी नहीं चाहता है कि खुद की रंग-गुलाल खुद के लगे। सब दूसरों के लगाने की फिराक में रहते हैं।

रंगलाल की भड़ास की प्यास बढ़ती जा रही थी और पजामे की जेबों में भरी गुलाल घटती जा रही थी। होली तो खेल रहा था पर भड़ास निकाल नहीं पा रहा था। मौका नहीं मिल रहा था और मौका मिल रहा था,तो कोई भी छोरा अकेला नहीं मिल रहा था। यकायक सूचीबद्ध वाला ही एक छोरा मिल गया। जिसे देखकर चेहरे पर छाई मायूसी उड गई। उस छोरे के चेहरे पर ही नहीं,बल्कि पूरे पर इतनी गुलाल उड़ेल दी कि गौर से देखने पर भी उसके घर वाले भी पहचान नहीं पाए।

वहां से आगे बढ़ा तो जो निशाने पर थे,उनमें से एक पर निशाना साधा। लेकिन निशाना चूक गया और किसी और के लग गया। लग गया तो भड़ास रंग-गुलाल में बदल गई। बुरा न मानो होली है कहकर उसे भी अच्छी तरह से रंग दिया। जब रंग गुलाल जिसके लगाना चाहते हैं और उसके नहीं लगती है तथा इसके उसके या किसी अन्य के लग जाती है। तभी होली खेलने का असली मजा आता है। मजा आता है तो भड़ास चुपके से खिसक लेती है। 

https://vyangyalekh.blogspot.com

दरअसल होली पर्व पर आप समझ रहे हो,उस तरह के भड़ास नहीं होती है। इस भड़ास में तो एक अजीब सी मिठास होती है। जिसे खाना तो कोई नहीं चाहता है। लेकिन खानी पड़ जाती है। नहीं खाए तो लोग बुरा मान जाते हैं। होली पर बुरा मानना अच्छा नहीं रहता है। इसलिए सब इस अजीब सी भड़ास की मिठास को मिल बांटकर खाते हैं और खिलाते हैं।

मोहनलाल मौर्य