रंगलाल पर पिछली बार मोहल्ले के सारे छोरे टूट पड़े थे। गनीमत रही कि उसके शरीर का एक भी अंग नहीं टूटा। अगर टूट जाता तो टूटकर पड़ने वालों की खैर नहीं थी। खैर छोड़िए। टूटकर पड़ने का कारण उसके रंग-गुलाल छीनकर उसी को रंगने का था। जिसमें कामयाब भी हुए। उसे उसी के रंग-गुलाल से सराबोर करने के बाद ही उसके ऊपर से उठे। रंगलाल रंग-गुलाल से इतना सराबोर हो गया था कि कई दिनों तक होली के रंग छुड़ाने पर भी नहीं छूटे। रंगलाल अपने आपको लूटा हुआ महसूस करने लगा। जबकि रंग-गुलाल के सिवाय रंगलाल का कुछ भी नहीं लूटा गया था।
लेकिन रंगलाल पिछली बार की भड़ास निकालने के लिए अबकी बार टूटकर पड़ने वालों को ढूंढ-ढूंढकर सूचीबद्ध कर लिया हैं। वे तो होली पर टोली के संग टूटकर पड़े थे और यह एक-एक करके सबके साथ बगैर टूटकर पड़े ही होली की होली खेलेगा और भड़ास की भड़ास निकालेगा।
इस तरह से खेलेगा कि किसी के बाप को भी पता नहीं चलेगा होली खेल रहा है या फिर भड़ास निकाल रहा है।गले लगाकर गले पड़ेगा। थोड़ी सी गुलाल लगाने के लिए कहेगा और मुट्ठीभर लगाएगा। एक हाथ से गालों पर और दूसरे से बालों पर लगाएगा। जब तक बंदा रंग-गुलाल से सराबोर नहीं हो जाएगा। तब तक उसका पिंड नहीं छोड़ेगा।
अच्छा सूचीबद्ध वाले हाथ नहीं लगे,तो ऐसा नहीं है कि भड़ास नहीं निकालेगा। गतवर्ष की भरपाई तो इसी वर्ष करके ही रहेगा। जो मिल गया,वही सही। बस मन से भड़ास निकलनी चाहिए और तन पर रंग-गुलाल चढ़नी चाहिए। फिर चाहे सामने कोई भी हो। यही रंगलाल की हार्दिक इच्छा है। जिसे पूरी करने के लिए पुरजोर से लगा हुआ है। लेकिन अकेला कोई मिल नहीं रहा है। सब के सब टोली के संग होली खेल रहे हैं। टोली वालों के साथ खेलने पर अच्छे-अच्छों की रंग गुलाल फीकी पड़ जाती है। ट्रैफिक हवलदार से बचकर निकल सकते हैं,पर होली पर टोली वालों के सामने आने के बाद बचकर निकलना नामुमकिन है। इनके सम्मुख कोई समझदारी दिखाता है,तो वे कीचड़ को भी गुलाल समझकर उसके चेहरे पर पोत देते हैं। उनका मानना है कि कीचड़ में कमल खिल सकता है,तो कीचड़ से होली खेलने में बुराई क्या है।
एकाध के साथ होली ही खेल सकते हैं। उनके साथ भड़ास निकाले तो मन की भड़ास भाड़ में घुस जाए और तन पर खुद की ही रंग-गुलाल चढ़ जाए। यह कोई भी नहीं चाहता है कि खुद की रंग-गुलाल खुद के लगे। सब दूसरों के लगाने की फिराक में रहते हैं।
रंगलाल की भड़ास की प्यास बढ़ती जा रही थी और पजामे की जेबों में भरी गुलाल घटती जा रही थी। होली तो खेल रहा था पर भड़ास निकाल नहीं पा रहा था। मौका नहीं मिल रहा था और मौका मिल रहा था,तो कोई भी छोरा अकेला नहीं मिल रहा था। यकायक सूचीबद्ध वाला ही एक छोरा मिल गया। जिसे देखकर चेहरे पर छाई मायूसी उड गई। उस छोरे के चेहरे पर ही नहीं,बल्कि पूरे पर इतनी गुलाल उड़ेल दी कि गौर से देखने पर भी उसके घर वाले भी पहचान नहीं पाए।
वहां से आगे बढ़ा तो जो निशाने पर थे,उनमें से एक पर निशाना साधा। लेकिन निशाना चूक गया और किसी और के लग गया। लग गया तो भड़ास रंग-गुलाल में बदल गई। बुरा न मानो होली है कहकर उसे भी अच्छी तरह से रंग दिया। जब रंग गुलाल जिसके लगाना चाहते हैं और उसके नहीं लगती है तथा इसके उसके या किसी अन्य के लग जाती है। तभी होली खेलने का असली मजा आता है। मजा आता है तो भड़ास चुपके से खिसक लेती है।
दरअसल होली पर्व पर आप समझ रहे हो,उस तरह के भड़ास नहीं होती है। इस भड़ास में तो एक अजीब सी मिठास होती है। जिसे खाना तो कोई नहीं चाहता है। लेकिन खानी पड़ जाती है। नहीं खाए तो लोग बुरा मान जाते हैं। होली पर बुरा मानना अच्छा नहीं रहता है। इसलिए सब इस अजीब सी भड़ास की मिठास को मिल बांटकर खाते हैं और खिलाते हैं।