5 Mar 2023

कहो तो रंगलाल कितने गोले रंग

रंगलाल पर पिछली बार मोहल्ले के सारे छोरे टूट पड़े थे। गनीमत रही कि उसके शरीर का एक भी अंग नहीं टूटा। अगर टूट जाता तो टूटकर पड़ने वालों की खैर नहीं थी। खैर छोड़िए। टूटकर पड़ने का कारण उसके रंग-गुलाल छीनकर उसी को रंगने का था। जिसमें कामयाब भी हुए। उसे उसी के रंग-गुलाल से सराबोर करने के बाद ही उसके ऊपर से उठे। रंगलाल रंग-गुलाल से इतना सराबोर हो गया था कि कई दिनों तक होली के रंग छुड़ाने पर भी नहीं छूटे। रंगलाल अपने आपको लूटा हुआ महसूस करने लगा। जबकि रंग-गुलाल के सिवाय रंगलाल का कुछ भी नहीं लूटा गया था।

लेकिन रंगलाल पिछली बार की भड़ास निकालने के लिए अबकी बार टूटकर पड़ने वालों को ढूंढ-ढूंढकर सूचीबद्ध कर लिया हैं। वे तो होली पर टोली के संग टूटकर पड़े थे और यह एक-एक करके सबके साथ बगैर टूटकर पड़े ही होली की होली खेलेगा और भड़ास की भड़ास निकालेगा।


इस तरह से खेलेगा कि किसी के बाप को भी पता नहीं चलेगा होली खेल रहा है या फिर भड़ास निकाल रहा है।गले लगाकर गले पड़ेगा। थोड़ी सी गुलाल लगाने के लिए कहेगा और मुट्ठीभर लगाएगा। एक हाथ से गालों पर और दूसरे से बालों पर लगाएगा। जब तक बंदा रंग-गुलाल से सराबोर नहीं हो जाएगा। तब तक उसका पिंड नहीं छोड़ेगा।

अच्छा सूचीबद्ध वाले हाथ नहीं लगे,तो ऐसा नहीं है कि भड़ास नहीं निकालेगा। गतवर्ष की भरपाई तो इसी वर्ष करके ही रहेगा। जो मिल गया,वही सही। बस मन से भड़ास निकलनी चाहिए और तन पर रंग-गुलाल चढ़नी चाहिए। फिर चाहे सामने कोई भी हो। यही रंगलाल की हार्दिक इच्छा है। जिसे पूरी करने के लिए पुरजोर से लगा हुआ है। लेकिन अकेला कोई मिल नहीं रहा है। सब के सब टोली के संग होली खेल रहे हैं। टोली वालों के साथ खेलने पर अच्छे-अच्छों की रंग गुलाल फीकी पड़ जाती है। ट्रैफिक हवलदार से बचकर निकल सकते हैं,पर होली पर टोली वालों के सामने आने के बाद बचकर निकलना नामुमकिन है। इनके सम्मुख कोई समझदारी दिखाता है,तो वे कीचड़ को भी गुलाल समझकर उसके चेहरे पर पोत देते हैं। उनका मानना है कि कीचड़ में कमल खिल सकता है,तो कीचड़ से होली खेलने में बुराई क्या है।

एकाध के साथ होली ही खेल सकते हैं। उनके साथ भड़ास निकाले तो मन की भड़ास भाड़ में घुस जाए और तन पर खुद की ही रंग-गुलाल चढ़ जाए। यह कोई भी नहीं चाहता है कि खुद की रंग-गुलाल खुद के लगे। सब दूसरों के लगाने की फिराक में रहते हैं।

रंगलाल की भड़ास की प्यास बढ़ती जा रही थी और पजामे की जेबों में भरी गुलाल घटती जा रही थी। होली तो खेल रहा था पर भड़ास निकाल नहीं पा रहा था। मौका नहीं मिल रहा था और मौका मिल रहा था,तो कोई भी छोरा अकेला नहीं मिल रहा था। यकायक सूचीबद्ध वाला ही एक छोरा मिल गया। जिसे देखकर चेहरे पर छाई मायूसी उड गई। उस छोरे के चेहरे पर ही नहीं,बल्कि पूरे पर इतनी गुलाल उड़ेल दी कि गौर से देखने पर भी उसके घर वाले भी पहचान नहीं पाए।

वहां से आगे बढ़ा तो जो निशाने पर थे,उनमें से एक पर निशाना साधा। लेकिन निशाना चूक गया और किसी और के लग गया। लग गया तो भड़ास रंग-गुलाल में बदल गई। बुरा न मानो होली है कहकर उसे भी अच्छी तरह से रंग दिया। जब रंग गुलाल जिसके लगाना चाहते हैं और उसके नहीं लगती है तथा इसके उसके या किसी अन्य के लग जाती है। तभी होली खेलने का असली मजा आता है। मजा आता है तो भड़ास चुपके से खिसक लेती है। 

दरअसल होली पर्व पर आप समझ रहे हो,उस तरह के भड़ास नहीं होती है। इस भड़ास में तो एक अजीब सी मिठास होती है। जिसे खाना तो कोई नहीं चाहता है। लेकिन खानी पड़ जाती है। नहीं खाए तो लोग बुरा मान जाते हैं। होली पर बुरा मानना अच्छा नहीं रहता है। इसलिए सब इस अजीब सी भड़ास की मिठास को मिल बांटकर खाते हैं और खिलाते हैं।

मोहनलाल मौर्य 

20 Jan 2023

पाप का घड़ा ही क्यों


कहावत है कि पाप का घड़ाभरता है तो फूटता जरूर है। लेकिन पाप का घड़ाही क्यों होता है? ‘डिब्बाक्यों नहीं होता?  ‘लोटाक्यों नहीं होता? ‘ड्रमक्यों नहीं होता? ‘टैंकर’ क्यों नहीं होता। भरने पर फूटता ही क्यों हैझलकता क्यों नहींउजलता क्यों नहींखाली क्यों नहीं होताफूटता है तो बिखरता भी होगा। बिखरे हुए को कोई ना कोई इकट्ठा करके उठाता भी होगा। ज्यादा नहीं तो जरूरत के मुताबिक उठाता होगा। पर उठाने के बाद क्या घड़ा में ही डालता हैअमूमन घड़ा में तो पानी भरा जाता है। पाप पानी तो है नहीं,जो कि घड़ा में डाल दिया और भर जाने पर फूट गया। पाप की भाप भी नहीं होती है। जिससे कि उसी से घड़ा भरता हो। पाप को मापने का कोई नाप भी बाजार में नहीं मिलता। मिलता तो समझ जाते कि पाप का घड़ानाप के जरिए भरता है। पाप की मिट्टी भी नहीं होती जिससे कि उसी से घड़ा बनता हो। पाप तो पाप है। बेटा तो क्या बाप से भी हो जाता है। पापा भी पापी बन जाते हैं। जाप करने वाले भी पाप कर बैठते हैं। तुमको आप कहने वाले भी ऐसा पाप कर डालते हैं कि सोच भी नहीं सकते। पाप की नगरी में प्रवेश करने के बाद बकरी भी इतनी पाप की घास चर जाती है कि उसकी मेंगनी से ही पाप का ट्रक भर जाए।

 

कहावत पाप का घड़ाके बजाय पाप का लोटाहोती तो कितना अच्छा होता। लोटा फूटता नहीं। पाप लोटा में ही लेटा रहता। लेटा-लेटा एक दिन लोटा में ही लेट हो जाता। फिर उसे लोटा से बाहर निकालने की भी जरुरत नहीं पड़ती। उसी लोटा को गंगा में बहा देते। उसके बाद पाप का न बाप रहता और न बेटा। आज पाप के बेटों के बजाय बाप ज्यादा हैं। जो कि घड़ा में खड़ा हो जाते हैं। घड़ा के फूटने पर टूटते नहीं। बल्कि लूट लेते हैं। किसी की किस्मत तो किसी की अस्मत। जरा सी भी नहीं करते रहमत। रहमान हो या हनुमान। सब के साथ समान। सामान वाले से न सवाल और न बवाल सीधा कनपटी पर तमंचा। तमंचा लगने के बाद तमाचा भी नहीं मार सकते। हाथापाई भी नहीं कर सकते। थोड़ी सी भी होशियारी की तो तमंचा चलाते देर नहीं करते हैं। चलने के बाद चलने लायक भी नहीं बचता है। चल बसता है। कीमती कीमत वाले को तो शूट ही कर देते हैं। शूट के बाद एक घूंट पानी की भी नहीं पीते। सीधा सूट-बूट खरीदने चल देते हैं। ऐसे पापियों के लिए तो घड़ा नहीं,कुआं होता तो आज पाप के बाप ही नहीं,दादा परदादा भी उसी में सड़ रहे होते और प्रायश्चित कर रहे होते।

आज पाप का ताप इतना अधिक बढ़ गया है कि पुण्य की बारिश से भी घट नहीं रहा है। चौमासा में भी पाप के ताप पर असर नहीं पड़ता है। बारहमास एक-सा रहता है। कभी किसी माह में घट भी गया तो अगले माह में घटौती की पूर्ति कर लेता है। बढ़ोतरी के लिए किसी भी हद तक हद लांघ देता है। लेकिन कहावत पाप का ड्रमहोती तो पाप का तापइतना नहीं बढ़ता। ड्रम पाप के ताप से इतना गर्म होता कि पापी तिलमिला उठता।तिलमिलाते को देखकर बेशर्म भी कुकर्म करने से पहले ड्रम के बारे में सोचता। पाप का ड्रम होती तो शर्म होती। शर्म होती तो कर्म धर्म वाले होते। धर्म वाले होते तो पाप का ताप न्यूनतम होता।

दरअसल इस कलियुग में तो इतना भयंकर पाप हो रहा हैं कि कहावत पाप का टैंकरहोनी चाहिए थी। टैंकर होती तो पाप तो दूर,ड्रिंकर ड्रिंक नहीं पीता। गैंगस्टर की गैंग नहीं होती। गैंगरेप की वारदात नहीं होती। न क्राइम और न क्रिमिनल होता। न क्रिमिनल हिस्ट्रीशीटर बनता। न हिस्ट्रीशीटर की हिस्ट्री होती। न कोई रिश्ता कलंकित होता। सबको टैंकर का भय रहता। पाप का टैंकर फूटता नहीं,सीधा विस्फोट होता। विस्फोट होता तो पापी के इतने चिथड़े होते कि चिता पर लेटाने लायक भी नहीं बचता।

19 Jul 2022

मुँह पर ताला,जबान का बोलबाला

मनुष्य नामक प्राणी के मुख में जीवनयापन करने वाली जबान ही है,जो कि व्यक्ति के व्यक्तित्व से परिचित करवाती है। उसकी उपलब्धियां और खामियां बताती है। उसके चरित्र का सर्टिफिकेट दिखाती है। मगर कई जबान अपने ही मुख पर मुक्की खाने के लिए कभी भी और कहीं पर भी फिसल जाती है। न समय देखती हैं और न माहौल। बस इन्हें तो लात घूसे और मुक्के खाने से मतलब रहता है। यह सुनहरा अवसर जहाँ कहीं पर भी मिल जाए वहीं पर अग्रणी रहती हैं। अस्पताल में भर्ती होने लायक मार मिल जाए तो अपने आप को इतनी खुशनसीब समझती हैं,जैसे सोने पे सुहागा मिल गया हो। 


कई तो ऐसी है कि एक बार फिसलने के बाद संभलने की ही नहीं सोचती है। फिसलती ही चली जाती है। जब तक अपने मानव मालिक की हड्डी पसली एक नहीं हो जाती उससे पहले ब्रेक नहीं लगाती हैं। यह अपने प्राणी के प्राणों की भी परवाह नहीं करती हैं। अनाप-शनाप बोलती हुई वहाँ तक पहुँच जाती हैं। जिसकी सपने में भी कभी कल्पना नहीं की होती है। यह कई दिनों का कोटा एक ही दिन में पूरा करने के लक्ष्य में रहती हैं। इसलिए यह ऐसी जगह पर कि फिसलती हैं,जहाँ पर भीड़भाड़ होती है। जब इनसे भीड़ भिड़ने लगती हैतब यह अपने सशक्त हथियार अपशब्दों का उपयोग करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर ही लेती हैं।

कई जबान कतरनी की तरह कितनी तेज चलती है कि रिश्ता नाम के धागे तक को काट देती है। जबकि भली-भांति जानती हैं कि एक बार धागा कट गया तो फिर वह गाँठ के माध्यम से ही जुड़ता है। गाँठ पड़ने के बाद में धागे में लगी गाँठ को कितना ही छिपा लो। वह दिखाई देती ही है।मगर इनके लिए धागा कटे या कटने के बाद गाँठ पड़े या फिर गाँठ खुलेऐसी जबाने तब तक अपनी स्पीड कम नहीं करती हैंजब तक रिश्ता नाम का धागा खुद टूटने पर मजबूर नहीं हो जाए।  

कई जबाने ऐसी भी हैं जो कि मुँह में होने के बावजूद भी दिखाई नहीं देती हैं। अदृश्य रहती हैं। मगर इन्हें पहचाना बहुत ही आसान है। जहाँ कहीं पर भी लोग यह कहते हुए दिख जाएमुँह में जबान नहीं है क्याइसके बाद में भी प्रत्युत्तर नहीं मिले। निरुत्तर मिले तो समझ लीजिए वही अदृश्य जबान है। परंतु ऐसी जबाने कतिपय ही बची हुई है। अधुनातन में तो अपने सगे बाप से जबान लड़ाने वाली जबानों का बोलबाला हैं। एक जमाना था बाप के सामने थोड़ी सी भी जबान बाहर निकल जाती थी तो बाप उसकी जबान खींच लेता था। मगर आज जबान संभाल कर बात कर कहने वाले या तो चुप्पी साध लेते हैं या फिर उस पर ऐसी लगाम लगाते हैं कि उसकी जबान को लकवा ही मार जाता है।

12 Jul 2022

हाइट ने छीनी बाइट


मेरी हाइट छ फिट छ इंच है। न एक इंच कम और न ज्यादा है। चाहे इंची टेप से नापकर देख लीजिए। रत्ती भर भी फर्क नहीं मिलेगा। आप सोच रहे होंगे,मैं नाप-तौलकर क्यों बता रहा हूं। इसलिए बता रहा हूं कि मैं अपनी हाइट से परेशान हूं। मेरा जीना दूभर कर रखा है। उसकी वजह से लोग मुझे लंबू कहते हैं।

कई बार तो घरवाली भी मखौल उड़ाने लग जाती है। कहती है कि तुम में और विद्युत खंभे में ज्यादा फर्क नहीं है। तुम चलते-फिरते हो और वह एक जगह खड़ा रहता है। अगर तुम एक फुट छोटे होते,तो अच्छा रहता। तुम्हारी सूरत देखने के लिए दूरबीन की जरूरत न पड़ती।

अब मैं एक फुट कम कैसे होऊं। मार्केट में हाइट बढ़ाने के कैप्सूल तो किस्म-किस्म के मौजूद हैं। मगर हाइट घटाने वाला एक भी नहीं है। अगर होता तो मैं अवश्य लेता। साइड इफेक्ट की भी परवाह नहीं करता। भविष्य में हाइट कम करने का कोई कैप्सूल आएगा,तो मैं लेकर ही रहूंगा। उसकी कीमत चाहे जो भी हो।

घर में जो भी सामान ऊंचाई पर रखा है न,उसे उतारने के लिए सब मुझे ही बुलाते हैं। नहीं जाता हूं,तो कहते हैं कि हम तेरे जितने कद्दावर होते,तो आसमान में छेद कर देते। इक तू है कि सामान नीचे उतारने के लिए नखरे करता है। तुझे इसलिए कहते हैं,तू बगैर एड़ी ऊंची किए कोई भी सामान आसानी से उतार देता है। भगवान ने तुझे यह हाइट दी है,लोगों की सहायता के लिए दी है। इस पर इतना गर्व मत किया कर। मैं कैसे बताऊं कि मुझे अपनी हाइट पर गर्व नहीं,बल्कि शर्मिंदगी है। 

जिनके दरवाजों की ऊंचाई मेरी हाइट से कम है,उनमें प्रवेश करते समय अक्सर मेरा सिर टकरा जाता है। एकाध बार तो चोट भी आ चुकी है।  उस समय लोग यही कहते हैं कि दिखता नहीं है क्या? झुक नहीं सकता क्या? कईयों के दरवाजे तो इतने छोटे हैं कि झुकने के बावजूद भी बच नहीं पाता हूं। चोट सीधी ललाट पर लगती है। सच पूछिए तो दरवाजों से टकराना आए दिन की घटना हो गई है। अब कोई इसे गंभीरता से नहीं लेता है। कोई लेगा भी क्यों? उनका माथा थोड़ी फूटता हैं। मेरा फूटता है। मुझे लेना चाहिए। मैं गंभीरता से लेकर करूं क्या? मेरी हाइट की वजह से तो लोग अपने घरों के दरवाजे बदलने से रहे। 

मैं जब भी बस या रेल में यात्रा करता हूं,तो मेरी हाइट देखकर,वे यात्री तो मुझे कह ही देते हैं,जिनके हाथ एड़ी ऊंची करने के बावजूद भी वहां तक नहीं पहुंच पाते हैं,जहां पर सामान रखना होता है या रखे हुए को उतारना होता है। भाई साहब! हमारा ये बैग ऊपर रख दीजिए। भैया वो सूटकेस नीचे उतार दीजिए। जब मैं नहीं रखता हूं और नहीं उतारता हूं न,तब वे यात्री मन ही मन में बड़बड़ाते हुए कहते हैं कि भगवान ने हमसे थोड़ी सी ज्यादा हाइट क्या दे दी। अपने आप को न जाने  क्‍या समझ रहा है।  

एक बार एक पत्रकार ने मेरी बाइट लेनी चाही,पर हाइट की वजह से ले नहीं पाया। बेचारा इतना छोटा था कि दोनों हाथ ऊपर करने के बावजूद भी उसका कैमरा मेरे चेहरे तक नहीं पहुंच पाया। उस समय हम दोनों को अपनी-अपनी हाइट पर बहुत गुस्सा आया। उसे कम गुस्सा आया होगा पर मुझे ज्यादा आया। अपनी-अपनी हाइट को लेकर हम दोनों विवश थे। मुझे पहली बार टीवी पर आने का और उसे पहली बार किसी व्यंग्यकार की बाइट लेने का अवसर हाइट ने छीन लिया। 
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26 Jun 2022

अनुभवी को प्राथमिकता

मुझे यह कहकर साक्षात्‍कार से बाहर की राह दिखा दी कि न तो अनुभव है और न ही अनुभव प्रमाण पत्र है। हम अनुभवी को ही प्राथमिकता देते हैं। दुख बाहर किए जाने का नहीं है। बाहर तो कई बार मुझे यार-दोस्‍तों ने भी कर दिया हैं। कई बार कुपित होकर पिताजी ने बाहर कर दिया है । बाहर करना था तो कह देते,तुम्‍हारे पास अप्रोच नहीं है। तुम्‍हारे पास कोई सोर्स नहीं है। तुम्‍हारे पास फलाना नहीं है। तुम्‍हारे पास डिमका नहीं है। ये क्‍या बात हुई कि तुम्‍हारे पास अनुभव नहीं हैअरे,अनुभव तो मि‍त्रोंमित्रों के पास भी नहीं था। फिर भी हवा में उड़े की नहीं। और ऐसा उड़े कि परिंदे भी जिंदगी भर में जितना नहीं उड़े कि वे पाँच साल में उतने उड़ लिए।

अनुभव को प्रमाण कि क्‍या जरूरत हैअनुभव तो मेरे अंदर कूट-कूट के भरा है। यकीन न हो तो कूट-कूट कर देख लो। सैम्‍पल लेकर देख लो भाईरक्‍त का,मांस का,मज्‍जा का। बोटी-बोटी से अनुभव टपेगा। अंग-अंग से फड़क उठेगा। इसके बाद भी अगर प्रमाण लेना ही है तो एक कागज के टुकड़े पर लिखे ढाई आखर के प्रमाण से क्‍या लेनाइस तरह के प्रमाण के प्रमाण पत्र तो रद्दी के भाव में बहुत मिल जाते हैं। लेना ही है तो कुछ दिन अवसर देकर लीजिए। फिर मेरा प्रायोगिक अनुभव देखकर अपने आप आभास हो जाएंगा।https://vyangyalekh.blogspot.com/

जब पैदा हुआ,बड़ा हुआ,अपने आस-पास देखा तो अनुभव मिला। क्‍या मालिया कर्जे से डूबता छोड़ अनुभव लेकर पैदा हुआ थाउससे सीखा कि ऋण लेकर घी पीना चाहिए। फिर देश-दुनिया देखी। सीखा कि पाँव पूजाने का अनुभव। जरूरत पड़ी तो पाँव उखाड़ने का अनुभव भी पाया। धवल धारियों से सीखा कि वक्‍त जरूरत पड़ने पर किस तरह पलटी मारी जाती है। पलटी मारकर किस तरह बाजी जीती जाती है। गधे को बाप बनाने का हुनर तो अब पुराना हो गया। आजकल तो मैं इतना सीख गया हूँ कि शेर को बच्‍चा बना सकता हूँ। हाथी को पहाड़ के नीचे ला सकता हूँ। ऊँट को पहाड़ पर ले जा सकता हूँ। उखड़े को गाड़ सकता हूँ। गाड़े को उखाड़ सकता हूँ। इतना सर्वतोमुखी सम्‍पन्‍नता के बाद भी बाहर कर देना कैसे हजम होगीबताओं भलाआज के हालात में और देश में जीने के लिए ऐसे अनुभवों की दरकार है या नहींएक बार मौका देकर तो देखे,दम नहीं,खम देखें,पाँच सितारा बुंलदी न देखा दो तो सच्‍चा भारतीय नहीं। आप तो धार देखें,चाहे तो उधार देखें,और एक बार सेवा का मौका दे।vyangyalekh

मुझे पच्‍चीस तीस प्रतिशत अनुभव तो पुश्‍तैनी विरासत से मिला है। पच्‍चीस प्रतिशत संघर्ष करके अर्जित किया है और चौदह प्रतिशत साक्षात्‍कार देते रहने से हो गया है। कुलयोग किया जाए तो चौंसठ प्रतिशत होता है। मुझे मालूम है,आज के युग में चौंसठ प्रतिशत की कोई वैल्‍यू नहीं। इसलिए शेष छत्‍तीस प्रतिशत के लिए भी प्रयासरत हूँ। वैसे देखा जाए तो छत्‍तीस प्रतिशत वाले नब्‍बे,पचानवे प्रतिशत वालों पर हुक्‍म चलाते हैं। साथ में वे ही अनुभव के आधार पर देश चला रहे हैं। और नब्‍बे,पचानवे वाले उनकी हाँ में हाँ और ना में ना मिलाकर भागीदारी निभा रहे हैं। अनुभव के आधार पर तो झोलाछाप डॉक्‍टर क्‍लीनिक चला रहे हैं। बिना लाइसेंस धारी  मोटरसाईकल से लेकर ट्रक तक दौड़ा रहे हैं और ट्रैफिक पुलिस वाले उनका बाल भी बांका नहीं कर पाते। एक मैं हूँ,जिसे चौंसठ प्रतिशत अनुभवी होते हुए भी बाहर की राह दिखा दी जाती है। बताओंक्‍या यह सही है?

जब बाहर निकला तो सोचा,मतलब अनुभव पाया कि अब मैं धक्‍के नहीं खाऊंगा। धक्‍के देकर आगे बढ़ना होगा। जिंदगी इतनी सरल नहीं बाबू कि सारी जिंदगी धक्‍के खाते रहो। देखना अब मेरे अनुभव का कमाल। ऐसा धमाल मचाऊंगा कि देखकर सब ढंग रह जाएंगे। जिन्‍होंने बाहर की राह दिखाई है न वे भी देखकर दांतों तले उँगली चबाते रह जाएंगे। vyangyalekh

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गड़े मुर्दें उखाड़ने वाला गुड्डू

गुड्डू गड़े मुर्दे उखाड़ने में पीएचडी है। आए दिन किसी ना किसी के उखाड़ता रहता है और सुर्खियों में बना रहता है। उसे सुर्ख़ियों से उतना ही प्यार है। जितना हीर-रांझा और लैला-मजनू को था। सुर्खियों में बने रहने के लिए सौ साल पुरांने को भी नहीं छोड़ता है। उसे भी उखाड़कर उछाल देता है। पुराने से पुराने का उछाल उसी तरह से उछलता है। जिस तरह से शेयर बाजार का सेंसेक्स उछलता है। क्या है कि नए गड़े मुर्दे उखाड़ने पर उतनी टीआरपी नहीं मिलती है। जितनी पुराने को उखाड़ने पर मिलती है। vyangyalekh


अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए,गुड्डू नित्य नयों के बजाय पुराने से पुराने गड़े मुर्दे खोजता रहता हैं। जैसे ही हाथ लगा फेसबुक पर लाइव आकर उछालने लग जाता है। लाइव के दौरान बीच-बीच में शेयर करने की अपील अवश्य करता रहता है। ताकि उखाड़े गए मुर्दे से ज्यादा से ज्यादा लोग वाकिफ हो सके और अच्छी खासी टीआरपी मिलती रहे। क्या है कि फेसबुक लाइव की जितनी ज्यादा शेयर होती है। उतनी ही ज्यादा कमेंट्स बॉक्स में डिबेट चल रही होती है। मगर यहाँ पर टीवी की तरह डिबेट नहीं होती है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाकर डिबेट पूरी कर ली। यहाँ पर तो बहुत तीखी नोकझोंक होती है। विचारों की तलवारे तन जाती हैं। ज्ञान बांटने की होड़ लग जाती है। अज्ञानी भी ज्ञान बांटकर वाहवाही लूट लेता है।अमर्यादित भाषा पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है। गाली-गलौज देने की पूरी छूट होती है। जरूरी नहीं सवाल का जवाब ही मिले। जवाब के बदले में गाली भी मिल सकती है।vyangyalekh

गुड्डू गड़े मुर्दों पर इतना शोध करता रहता है कि उसके व्हाट्सएप पर भी किसी ना किसी उखाड़े मुर्दे के छायाचित्र की ही डीपी लगी हुई होती है। उसका लक्ष्य हैं,गड़े मुर्दे उखाड़ने का वर्ल्ड रिकॉर्ड अपने नाम करना। इसके लिए चाहे अपनों के ही क्यूँ नहीं उखाड़ने पड़े। उन्हें भी जड़ से उखाड़कर,उन्हें पछाड़ देगा,जो इस प्रतिस्पर्धा में है। मगर अभी तो दूसरों के ही बहुत से केस पेंडिंग पड़े हैं। उनको उखाड़ने के लिए समय नहीं है। क्या है कि गुड्डू ऐरे-गैरे,नत्थू-खैरे गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ता है। उनको उखाड़ता है,जो चर्चा का विषय बने। जिनके जरिए खुद बिना प्रचारित ही चर्चित हो जाए। vyangyalekh

आपको यकीन नहीं होगा,उसकी फेसबुक वॉल एक से बढ़कर एक गड़े मुर्दों की पोस्ट से भरी पड़ी है। जिन्हें देखकर कोई चकित रह जाता है तो कोई कुपित हो जाता है। मगर यूट्यूब पर तो ऐसे-ऐसे मुर्दे अपलोड किए हुई है। जिन्हें देखकर हर कोई अवाक रह जाता है। इंस्टाग्राम पर तो ऐसी-ऐसी मुँह बोलती फोटो अपलोड करता है। जिन्हें देखकर आँखें फटी की फटी रह जाती है। उसके टि्वटर पर लिखे को पढ़करवह व्यक्ति अवश्य सतर्क हो जाता है। जिसको हमेशा यह भय रहता है कि कहीं कभी अपने गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ दे।vyangyalekh

यह कोई भी नहीं चाहता है कि कोई उनके गडे़ मुर्दे उखाड़े। क्योंकि उखड़ने के बाद फिर से नया गड्ढा खोदकर दबाना पूर्व की भाँति जितना आसान नहीं है। गुपचुप में गड्ढा खोदकर दबा दिया और किसी को कानों कान खबर ही नहीं लगी। उखड़ने के तत्पश्चात दबाना तो दूर,उखड़े हुए को सँभालना ही बहुत मुश्किल हो जाता है। क्योंकि उस समय उनके सामाजिक वातावरण में लोक निंदा की हवा घुली हुई होती। जिसमें श्वास लेना भी दुश्वार होता है। ऐसी स्थिति अपने आप को संभाले या फिर उखाड़े गए को संभाले। vyangyalekh

दरअसल में गड़े मुर्दे उखाड़ना भी आसान नहीं है। बहुत ही जोखिमपूर्ण है। थोड़ी सी लापरवाही के कारण वाहवाही की जगह हाय-हाय में परिवर्तन होते देर नहीं लगती है। सावधानीपूर्वक होकर उखाड़ना होता है। ताकि परिजनों को बुरा नहीं लगे। फिर भी कई बार उन्हें इतना बुरा लगता है कि वे खुद उखड़ जाते हैं। उस समय उन्हें सँभालना बहुत मुश्किल हो जाता है। कई बार तो कहासुनी होकर रह जाती है और कई बार मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं। लेकिन गुड्डू तो गड़े मुर्दे उखाड़ने में पीएचडी है न इसलिए हर बार बच निकलता है।vyangyalekh

12 Jun 2022

एक वक्‍ता का वक्‍तव्‍य

एक कार्यक्रम में एक वक्ता ने सभागार में उपस्थित लोगों को कुछ इस तरह से संबोधित किया। आज के भव्य कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महोदय तथा विशिष्ट अतिथिगण। पितातुल्य बुजुर्गों,माताएंबहनों और भाइयों तथा प्यारे बच्चों। मैं यहाँ कोई भाषण देने नहीं आया हूँ। मुझे आता भी नहीं है। मैं ज्यादा तो कुछ नहीं कहूंगा। बस इतना ही कहूंगा...। 

मेरे समझ में नहीं आया कि बुजुर्ग तो पितातुल्य और माताएं मातातुल्य नहीं। बहिने सिर्फ बहिने ही। उनके लिए तुल्य जैसा कोई शब्द नहीं। भाइयों के लिए भाइयों ठीक-ठाक था। लेकिन वहाँ उपस्थित सभी बच्चे प्यारे तो नहीं थे। कुछेक शरारती भी थे,जो उसको दिख भी रहे थे। फिर भी उनको संबोधित नहीं किया। सिर्फ प्यारे बच्चे ही बोला। शुक्र है कि शरारती बच्चों ने ध्यानपूर्वक नहीं सुना। अगर सुन लेते तो तालियां बजाकर ही बता देते कि हम किस टाइप के शरारती हैं। 

मैं यहाँ भाषण देने नहीं आया हूँ। अगर कोई उस समय उसे पूछ लेता कि मंच पर भाषण देने नहीं आए,तो किस लिए आए हो। राशन देने के लिए। क्या जवाब देता।  यह तो गनीमत है कि किसी ने पूछा नहीं। या फिर जिसके लिए आया था। वो बताने चाहिए था। अमुक काम के लिए आया हूँ। उसने कहा कि मुझे भाषण देना भी नहीं आता है। फिर लंबा-चौड़ा भाषण कैसे पेल दिया। शुक्र है कि जैसे-तैसे श्रोतागणों ने झेल लिया। अन्यथा वो भी तालियां बजाकर बता देते। अगर किसी भी वक्ता के वक्तव्य पर आवश्यकता से ज्यादा तालियां बजने लगती हैं,तो उसको समझ जाना चाहिए कि श्रोता सुनना नहीं चाहते हैं। लेकिन फिर भी वक्ता बकता रहता है।

आगे उसने कहा कि ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। जबकि कहा बहुत ही ज्यादा। जब ज्यादा ही कहना था,तो बस इतना ही कहूंगा क्यों कहा। यूँ कह सकता था कि कम नहीं ज्यादा ही कहूंगा। उसके कहने पर कौन सा टैक्स लग रहा था या जीएसटी लग रही थी। ज्यादा कहने से क्या श्रोता उठकर चल देते या सो जाते। वो तो जहां पर थे,वहीं पर रहते। ज्यादा कहने पर ज्यादा से ज्यादा एकाध उठकर चल देता। एकाध के चले जाने से पांडाल खाली नहीं हो जाता। सृष्टि का नियम है कि एक जाता है तो दूसरा आता भी है।

जब उसने कहा कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार है। आपसे साझा कर रहा हूँ। अगर उसके विचार व्यक्तिगत ही थे,तो फिर सार्वजनिक क्यों किया। व्यक्तिगत ही रखता। सीधे-सीधे यूं ही कह देता कि यह मेरे सार्वजनिक विचार है। जिन्हें आपके सम्मुख रख रहा हूँ। अच्छे लगे तो प्रचार-प्रसार करना और बुरे लगे तो मुझे सूचित करना। 

उसने विचार देने के बाद में विचार वापस लिया। कहा कि मैं अपने विचार वापस लेता हूँ। जबकि उसको पता होना चाहिए विचार कमान से निकले तीर की तरह होता है,जो एक बार निकलने के बाद कभी वापस नहीं होता है। उसने ध्यान से देखा नहीं,वापस मांगने पर एक भी श्रोता ने वापस नहीं किया। सबने अपनी पॉकेट में रख लिया था।

उसने अपना उद्बोधन कुछ इस तरह से समापन किया। समय को देखते हुए बस यहीं पर अपनी वाणी को विराम देता हूँ। आपने मुझे बोलने का अवसर दिया और ध्यानपूर्वक सुनने के लिए दिल से धन्यवाद। अगर उसने समय को देखा ही होता तो दो वक्ताओं के समय को नहीं खाता। उसे किसी ने भी बोलने का अवसर नहीं दिया। बल्कि खुद ने लिया था। खुशामद के जरिए। ध्यानपूर्वक किसी ने भी नहीं सुना। ज्ञान की बात कहता तो अवश्य सुनते। बेमतलब की बातें कह रहा था।

 

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भक्त की तलाश

भजनी ने चेले-चाटी परखकर देख लिए। चमचे भी आज़मा लिए। अब भक्त रखना चाहता है। उसका कहना है कि चेले और चमचे में भक्त ही अग्रगामी है। बलशाली है। आज्ञाकारी है। परोपकारी है। आभारी है। झूठ को सच और सच को झूठ मानने वाला प्राणी है। और इन दिनों चेलों और चमचों से ज्यादा सुर्खियाँ बटोर रहे हैं।

लेकिन भजनी को भक्त ढूँढे नहीं मिल रहा। जबकि उसको भक्त या उसके जैसे लोगों की सख्त जरूरत है। लग रहा है कि अगर भजनी को वक्त रहते  भक्त नहीं मिला,तो उसकी जमानत ज़ब्त हो जाएगी। ज़ब्त हो गई,तो उसका रक्तचाप बढ़ जाएगा। बढ़ गया,तो उसे आग बबूला होने से कोई रोक नहीं सकता। और उस दौरान वह कब सातवें आसमान पर पहुँच जाता हैउसे पता ही नहीं रहता है। पहुँचने के बाद आपा खो बैठता है। बैठने के बाद उसके मुख से न जाने क्या-क्या निकल जाता है। जिन्हें सुनकर लोग भड़क जाते हैं। भीड़-भड़क्का हो जाता है। हाहाकार से गगन  गुंजायमान हो उठता है। कई बार तो ब्रेकिंग न्यूज़ तक बन जाती है। जिसे देखकर लोग सड़क पर उतर आते हैं। माफी माँगने पर विवश करते हैं। और कई बार माँगनी भी पड़ जाती हैं।

यह सब घटित नहीं हो इसीलिए भजनी भक्त की तलाश में है। उसका मानना है कि ऐसे वक्त पर भक्त ही काम आता है। वही है,जो कि घटना घटित होने से पहले ही बता देता है। उसने बताया कि भक्त इतना सशक्त होता है कि अपना रक्त बहाने से भी नहीं घबराता है। जबकि चेले और चमचे रक्तदान करने से ही हिचकिचाते हैं। आजकल के चेले तो केले की तरह हो गई हैं,जो कि पकने से पहले ही बिकने के लिए बाजार में आ जाते हैं। चमचे फटे-पुराने गमछे की तरह हो गए हैं,जो कि किसी कामकाज के नहीं हैं । 

भजनी का कहना है कि मुझे ऐसा भक्त चाहिए,जिसके नेता पर कीचड़ उछालने पर,भक्त दलदल में फंसा हुआ भी उसके लिए मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। उसकी अनुपस्थिति में भी उसकी जय-जयकार करता रहता है। जिंदाबाद के नारे लगाकर जिंदा रखे रखता है। अपने नेता को नेता नहीं,देवता समझता है। विकास पुरुष कहकर संबोधित करता है। अपनी बात पर अडिग रहता है। अकड़ने पर अड़ियल बनते देर नहीं करता है। विरोधियों के सामने सीना तानकर डटे रहता है। उनके सवाल का जवाब न देकर,उन्हीं से सवाल करने में माहिर होता है। विपत्ति में भी आपत्ति नहीं करता है। सदैव प्रसन्न रहता है।

भजनी का तो यह तक कहना है कि जिस दिन मुझे इस तरह का भक्त मिल गया न जगत से लड़ने की जरूरत नहीं। फिर जगत से भिड़ने के लिए भक्त ही काफी है। वही कार्यों में खामियाँ निकालने वालों को ख़ामोश करेगा। आरोप-प्रत्यारोप लगाने वालों को सबक सिखाएगा। सलाखों के पीछे धकेलेगा। धरना-प्रदर्शन करेगा। पुतला फूंकेगा। सोशल मीडिया पर भड़ास निकालेगा। अखबार की हेडलाइन और टीवी की ब्रेकिंग न्यूज़ बनने पर बौखलाएगा।

लेकिन भजनी को किसी ने बताया है कि भक्त मिलता नहीं है,बल्कि बनता है और वह भी बनाने से नहीं,अपने आप बन लेता है। जब भजनी ने बताने वाले से पूछा कि अपने आप कैसे बनता हैतो बताने वाले ने बताया कि आँखों में धूल झोंक करजनता को सपने दिखा। मन की बात कर,मगर अपने मन की मत बता। अपने आपको फकीर कह,पर रहे राजा की तरह। लोक लुभावने वायदे कर,किंतु पूरे मत कर। जहां कहीं भी जाए,वहीं बाहें फैलाकर लोगों को गले लगा। और इतनी झूठ बोल कि लोग तुझे एक नंबर का झूठा कहने लग जाए। फिर देखिए,व्यक्ति भक्त नहीं,अंधभक्त बन जाएगा। एक बार जो अंधभक्त बन गया न फिर वह आँख मूंदकर विश्वास नहीं करें तो कहना। तू जो कहेगा और जो करेगा,उसे ही सही कहेगा। तेरे को कोई गलत साबित करने की कोशिश भी करेगा तो वह कतई सहन नहीं करेगा। विरोध करेगा। उसने भजनी को जो भी बातें बताई है नउन पर मंथन जारी है।

मोहनलाल मौर्य 

 


28 Mar 2021

शब्दों के साथ व्यंग्यकार की होली

फागुन का आगमन होते ही व्यंग्यकार का मन शब्दों के साथ होली खेलने को मचलने लगता है। भले ही शब्द खेलने के लिए तैयार नहीं हो। उन्हें तुकबंदी से मना लेता है। बड़े-बड़े शब्दों को छोटे-छोटे वाक्यों के साथ तालमेल बैठा देता हैं। जो शब्द गुलाल लगवाने में आनाकानी करता है। उसे व्यंग्यमय पिचकारी से रंग देता है। रंग में रंग जाने के बाद उसे रचना का होना ही पड़ता है। 

व्यंग्यकार शब्दों के साथ होली अपने लिए ही नहीं खेलता है। बल्कि कईयों के लिए खेलता है। सर्वप्रथम तो संपादक के लिए खेलता है। उसके बाद में अखबार के लिए। अखबार के बाद में पाठक के लिए। पाठक के पश्चात पैसा और प्रसिद्धि के लिए खेलता है। थोड़ी सी प्रसिद्धि तो प्रकाशित होते ही मिल जाती है। थोड़ी से थोड़ी ज्यादा व्हाट्सएप पर मिल जाती है। थोड़ी से कहीं ज्यादा प्रकाशित की कटिंग को फेसबुक पर टांगने पर मिल जाती है। पैसा तत्काल नहीं। काफी दिनों बाद मिलता है। जिसका मलाल नहीं। उस पैसा से मालामाल तो हो नहीं सकता। इसलिए मलाल करके अपने आपको क्यूं हलाल करें।

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खुशी-खुशी शब्दों के साथ खेलने का ही कमाल करें। जिससे एक ओर नवीन व्यंग्य रचना को प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हो। एक व्यंग्यकार के लिए प्रकाशित होने का सौभाग्य उसी तरह से मायना रखता है। जिस तरह से एक महिला के लिए उसका मायका रखता। जिस तरह से एक भारतीय महिला सब कुछ सह सकती है। लेकिन अपने मायका की आलोचना कतई नहीं सुनती है। इसी तरह से एक व्यंग्यकार अपनी प्रकाशित रचना की आलोचना कतई पसंद नहीं करता है।हां,बधाई और शुभकामना पाने के लिए फेसबुक के इनबॉक्स तक में रचना भेज देते हैं।

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शब्दों के साथ होली खेलने का मकसद सिर्फ प्रकाशित होने तक ही नहीं रहता है। प्रभावित करने का भी रहता है। लोग प्रभावित होंगे,तो प्रणाम करेंगे। आज के युग में प्रणाम पुरस्कार से कम नहीं है। बल्कि कहीं ज्यादा ही होता है। लेकिन मिलता आधा ही है। आधे में बाधा आ जाती है। सोशल मीडिया के युग में आधा भी बहुत है। पुरस्कार तो आधा अधूरा भी नहीं मिलता है। जबकि व्यंग्यकार पुरस्कार के लिए भी शब्दों के रंग-गुलाल लगाता है। उन पर व्यंग्यात्मक पिचकारी छोड़ता है। रूठे हुए शब्दों को मनाता है। गुझिया खिलाता है।शानदार,मजेदार व धारदार जैसी रचनाओं का संगी साथी बनाता है। फिर भी पुरस्कार झोली में आकर नहीं गिरता है।

लेकिन एक न एक दिन गिर ही जाएगा। इसी उम्मीद पर व्यंग्यकार मोबाइल या लैपटॉप पर लेटे-लेटे ही शब्दों पर रंग-गुलाल उड़ाता रहता है। ताकि शब्द रंग-बिरंगे रंग-गुलाल से सराबोर रहे। सराबोर शब्द रचना में सामाजिक सौहार्द बनाए रखते हैं। शब्द बहुत समझदार होते हैं। कहां पर अपनी भूमिका निभानी है और कहां पर नहीं। इसका पूरा ध्यान रखते हैं। जब कभी ध्यान से भटक जाते हैं और वाक्य के अंदर हो जाते हैं। संपादक से अनुरोध करके बाहर निकल आते हैं। संपादक आग्रह स्वीकार नहीं करता है,तो रचना की ऐसी-तैसी कर देते हैं। कोई भी जैसी-तैसी रचना की भी ऐसी-तैसी नहीं चाहता है। सबका मन वाहवाही लूटने में रहता है। वाहवाही हवा में उड़ने वाली कोई पतंग तो है नहीं,जिसको आसमान से गिरते ही आसानी से लूट ले। वाहवाही के लिए हर उस शब्द के साथ होली खेलनी होती है,जो रचना के गली मोहल्ला व गांव देहात में रहता है।

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जब शब्द एक-दूसरे के लाल,पीला,हरा गुलाबी गुलाल लगाते हैं तो रचना होली व्यंग्य बनने से रह नहीं सकती है। उसे देश के सबसे प्रमुख अखबार में प्रकाशित होने से भी कोई रोक नहीं सकता है। होली के रंगों से रंगी रंग-बिरंगी व्यंग्य रचना को देखकर संपादक महोदय बगैर संपादित किए प्रकाशित कर देता है।

मोहनलाल मौर्य 

 


 

27 Mar 2021

होली की होली और भड़ास की भड़ास

रंगलाल पर पिछली बार मोहल्ले के सारे छोरे टूट पड़े थे। गनीमत रही कि उसके शरीर का एक भी अंग नहीं टूटा। अगर टूट जाता तो टूटकर पड़ने वालों की खैर नहीं थी। खैर छोड़िए। टूटकर पड़ने का कारण उसके रंग-गुलाल छीनकर उसी को रंगने का था। जिसमें कामयाब भी हुए। उसे उसी के रंग-गुलाल से सराबोर करने के बाद ही उसके ऊपर से उठे। रंगलाल रंग-गुलाल से इतना सराबोर हो गया था कि कई दिनों तक होली के रंग छुड़ाने पर भी नहीं छूटे। रंगलाल अपने आपको लूटा हुआ महसूस करने लगा। जबकि रंग-गुलाल के सिवाय रंगलाल का कुछ भी नहीं लूटा गया था।


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लेकिन रंगलाल पिछली बार की भड़ास निकालने के लिए अबकी बार टूटकर पड़ने वालों को ढूंढ-ढूंढकर सूचीबद्ध कर लिया हैं। वे तो होली पर टोली के संग टूटकर पड़े थे और यह एक-एक करके सबके साथ बगैर टूटकर पड़े ही होली की होली खेलेगा और भड़ास की भड़ास निकालेगा।

इस तरह से खेलेगा कि किसी के बाप को भी पता नहीं चलेगा होली खेल रहा है या फिर भड़ास निकाल रहा है।गले लगाकर गले पड़ेगा। थोड़ी सी गुलाल लगाने के लिए कहेगा और मुट्ठीभर लगाएगा। एक हाथ से गालों पर और दूसरे से बालों पर लगाएगा। जब तक बंदा रंग-गुलाल से सराबोर नहीं हो जाएगा। तब तक उसका पिंड नहीं छोड़ेगा।

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अच्छा सूचीबद्ध वाले हाथ नहीं लगे,तो ऐसा नहीं है कि भड़ास नहीं निकालेगा। गतवर्ष की भरपाई तो इसी वर्ष करके ही रहेगा। जो मिल गया,वही सही। बस मन से भड़ास निकलनी चाहिए और तन पर रंग-गुलाल चढ़नी चाहिए। फिर चाहे सामने कोई भी हो। यही रंगलाल की हार्दिक इच्छा है। जिसे पूरी करने के लिए पुरजोर से लगा हुआ है। लेकिन अकेला कोई मिल नहीं रहा है। सब के सब टोली के संग होली खेल रहे हैं। टोली वालों के साथ खेलने पर अच्छे-अच्छों की रंग गुलाल फीकी पड़ जाती है। ट्रैफिक हवलदार से बचकर निकल सकते हैं,पर होली पर टोली वालों के सामने आने के बाद बचकर निकलना नामुमकिन है। इनके सम्मुख कोई समझदारी दिखाता है,तो वे कीचड़ को भी गुलाल समझकर उसके चेहरे पर पोत देते हैं। उनका मानना है कि कीचड़ में कमल खिल सकता है,तो कीचड़ से होली खेलने में बुराई क्या है।

एकाध के साथ होली ही खेल सकते हैं। उनके साथ भड़ास निकाले तो मन की भड़ास भाड़ में घुस जाए और तन पर खुद की ही रंग-गुलाल चढ़ जाए। यह कोई भी नहीं चाहता है कि खुद की रंग-गुलाल खुद के लगे। सब दूसरों के लगाने की फिराक में रहते हैं।

रंगलाल की भड़ास की प्यास बढ़ती जा रही थी और पजामे की जेबों में भरी गुलाल घटती जा रही थी। होली तो खेल रहा था पर भड़ास निकाल नहीं पा रहा था। मौका नहीं मिल रहा था और मौका मिल रहा था,तो कोई भी छोरा अकेला नहीं मिल रहा था। यकायक सूचीबद्ध वाला ही एक छोरा मिल गया। जिसे देखकर चेहरे पर छाई मायूसी उड गई। उस छोरे के चेहरे पर ही नहीं,बल्कि पूरे पर इतनी गुलाल उड़ेल दी कि गौर से देखने पर भी उसके घर वाले भी पहचान नहीं पाए।

वहां से आगे बढ़ा तो जो निशाने पर थे,उनमें से एक पर निशाना साधा। लेकिन निशाना चूक गया और किसी और के लग गया। लग गया तो भड़ास रंग-गुलाल में बदल गई। बुरा न मानो होली है कहकर उसे भी अच्छी तरह से रंग दिया। जब रंग गुलाल जिसके लगाना चाहते हैं और उसके नहीं लगती है तथा इसके उसके या किसी अन्य के लग जाती है। तभी होली खेलने का असली मजा आता है। मजा आता है तो भड़ास चुपके से खिसक लेती है। 

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दरअसल होली पर्व पर आप समझ रहे हो,उस तरह के भड़ास नहीं होती है। इस भड़ास में तो एक अजीब सी मिठास होती है। जिसे खाना तो कोई नहीं चाहता है। लेकिन खानी पड़ जाती है। नहीं खाए तो लोग बुरा मान जाते हैं। होली पर बुरा मानना अच्छा नहीं रहता है। इसलिए सब इस अजीब सी भड़ास की मिठास को मिल बांटकर खाते हैं और खिलाते हैं।

मोहनलाल मौर्य 

16 Feb 2021

वसंत अब ऑनलाइन ही मिलेगा

वसंत वैलेंटाइन सप्ताह में परदेश से आया था। मैंने ही नहीं दीनू काका ने भी देखा था। देखा क्या था,उसने दीनू काका के पैर भी छूए थे। काका ने शुभाशीष भी दिया था-जुग-जुग जियों वसंतराज। यूँ ही आते-जाते रहना। सदा यू हीं मुस्‍कराते रहा करो।’ वसंत समूचे मोहल्ले वासियों का चहेता हैं। हर साल इन्हीं दिनों में घर आता है। कपड़ों का बैग भरकर लाता हैं। वसंत को पीले वस्त्र बहुत पसंद हैं। उसका रूमाल तक पीले रंग का होता है। सब उससे मिलना चाहते हैं। पर जबसे आया है,दिखाई नहीं दे रहा है।

कल रामू काका पूछ रहे थे, ‘सुना है वसंत आया हुआ है?’

मैंने कहा-आपने ठीक सुना है।

यह सुनकर वे बोले-तो फिर वह कहाँ हैमैंने तो उसे देखा ही नहीं और ना वह मुझे मिला है।’ 

इस पर मैंने उन्हें समझाते हुए कहा,‘काकावह आजकल आप से ही नहींकिसी से भी मिलता-जुलता नहीं है। किसी ओर कि तो क्‍या क्‍यूँलेकिन अपुष्‍ट खबर है कि जिनका वह अजीज हैं,उनसे ही रूष्‍ट हैं।

रामू काका चौंके-क्या कह रहे होवसंत ऐसा लड़का नहीं है। वह तो जब भी आता है,सबसे मिलता-जुलता है। बड़े-बुजुर्गों का अदब करता। प्यार-प्रेम की वार्ता करता है। जरूर किसी कार्य में व्यस्त होगा या हो सकता है सर्दी का टाइम हैं खांसी-जुकाम हो गई हो। परदेश का और अपने यहाँ का वातावरण एक जैसा थोड़ी है,अलग-अलग हैं,सूट नहीं किया हो।

काका कि उक्‍त कथ्‍य मेरे गले नहीं उतरा तो मैंने काका से कहा-काकाऐसी बात नहीं। बात कुछ और ही है।’ 

कुछ और क्या है? दारु पानी पीने लग गया क्या? या फिर उसे इश्क का बुखार चढ़ गया क्या? आवारों के साथ आवारागर्दी करने लग गया क्या?’ काका ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा।

मैं बोला,‘ कैसी बात कर रहे हैं। वह गवार नहीं है,जो कि आवारों की संगति में जाकर बैठेगा।’ 

‘ तो वह बैठा कहां पर है।’ 

मुझे पता होता तो मैं अब से पहले उससे मिल नहीं लेता।

यह सुनकर काका बिना किसी वक्‍तव्‍य के ही वसंत की खोज-खबर में वहाँ से चल दिया।

रामू काका वसंत से मिलने उसके घर पहुँचे। पर वह वहाँ नहीं था। उसके माँ-बाप बता रहे थे कि जबसे आया है, मोबाइल के ही चिपका रहता है। पता नहीं क्या हो गया हैदिनभर गुमसुम रहता है। पहले तो खेत-खलियान में भी जाता था। सरसों के पीले-पीले फूल बरसाते हुए आता था। सबसे मिलता-जुलता था। पल दो पल ही सही लेकिन सबसे प्‍यार भरी मीठी-मीठी बातें करता था। सबका दिल जीत लेता था तथा दिनभर खुश रहता था। 

अगले दिन मैं गया तो वसंत अपने कमरे में बैठा व्हाट्सएप पर किसी को लिख रहा था- ‘मैं वसंत हूँ। परदेश से तुम्हारे लिए आया हूँ। एक खास गिफ्ट लाया हूँ। कल मिलेगे और ढेर सारी बातें करेंगे। सुख-दुख की बतलाएंगे।’ तभी उसे कमरे में मेरे दाखिल होने का भान हुआ। उसने गर्दन मेरी आरे घुमाई और बोला-आप और यहाँ। कैसे आना हुआ?’

मैंने कहा-भाई! आपसे मिलने आ गया। आप जबसे आए हो,मिले ही नहीं। आपको रामू काका भी पूछ रहे थे और खुशनुमा मौसमी काकी भी पूछ रही थी। कईयों को तो यकीन नहीं है कि वसंत आ गया है। आखिरकार बात क्या है?’ 

वसंत बोला-बात-वात कुछ नहीं है। अभी तुम जाओं। मैं व्यस्त हूँ। शाम को फेसबुक पर ऑनलाइन मिलते हैं। वहीं वार्तालाप करते हैं।

मैं मन मसोसकर चला आया। रास्ते में रामू काका मिले। उन्होंने पुन: पूछा-वसंत मिला क्यानहीं मिला तो कहाँ मिलेगा?’

मैंने कहा-काका,वसंत तो अब फेसबुक पर ऑनलाइन मिलेगा।

मोहनलाल मौर्य

  


7 Feb 2021

अफसर का सर प्रेम

वह अफसर है। उसे सर बहुत प्रिय है। सर उसके अफसर और सरनेम में भी समाहित है। उसका सरनेम सरासर है और सरासर में तो एक बार नहीं,दो बार सर है। जिसके आगे-पीछे सर ही सर  हो। वह तो सरकार से भी सर कहलवा सकता है। क्योंकि,सरकार भी सर है तो ही है। सरकार में ‘सर’ नहीं हो,तो अकेली ‘कार’ से सरकार कभी नहीं बने। ‘कार’ तो हर किसी के पास होती है। लोगों के पास लग्जरी कार तक होती हैं। फिर भी उनको सरकार का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता है। ऐसा भी नहीं है कि वो प्रयास नहीं करते हैं। प्रयास तो खूब करते हैं,पर सफल नहीं पाते हैं। सफल वही हो पाते हैं,जिनके पास ‘सर’ और ‘कार’ दोनों होते हैं। जिसके पास सरकार होती है या सरकार में होता है। उसका रुतबा असरदार होता है। असरदार इसलिए असरदार होता है क्योंकि उसमें सर है। सर नहीं हो तो अदार ही रह जाए। अदार कोई अर्थ ही नहीं निकलता है। जिसका कोई अर्थ ही नहीं,वह व्यर्थ है।

उसे सर कहकर उसके सिर पर बैठ जाओ। उसके कक्ष में,उसके सम्मुख रखी कुर्सियों पर पसरकर बैठ जाओ,मना नहीं करेगा। मुस्कुराते हुए बातचीत करेगा। उस समय आपको आभासी नहीं होगा कि मैं अफसर के सामने बैठा हूँ। ऐसा महसूस होगा कि मैं तो अपने किसी परिचित के पास आया हुआ हूँ और उससे सुख-दुख की बतला रहा हूँ। उस वक्त यह मत समझ बैठिए कि अफसर तो बहुत ही अच्छा है। अच्छा-वच्छा कुछ नहीं है। यह तो अफसर को सर कहने का कमाल है। 

सच पूछिए तो वह अफसर ही सर सुनने के लिए बना है। सर सुने बगैर तो वह एक पल भी नहीं रह सकता है। उसकी सुप्रभात और शुभरात्रि ही सर सुनने के बाद होती है। वह सर सुनकर मन ही मन में इतना प्रसन्न होता है कि जैसे कि कोई लॉटरी निकलने पर होता है।

उस अफसर की ऑफिस में उसके सिवाय अन्य किसी भी कर्मचारी को कोई सर कह देता है न तो उसके सिर दर्द हो जाता है। उसका कहना है कि ऑफिस में जो सर्वोच्च पद पर आसीन होता हैं,वही सर होता है। बाकी के अधीनस्थ तो अपने-अपने पदों के नाम से ही संबोधित किए जाते हैं। यह जिसका कहना है,वही ऑफिस में सर्वोच्च पद पर आसीन है। यानी कि वही सर है। अगर किसी ने किसी बाबू को सर कह दिया और अफसर ने सुन लिया तो उस व्यक्ति का काम आसानी से हो जाए,संभवतःसंभव नहीं। कई चक्कर काटने पड़ेंगे। अनुनय-विनय करना पड़ेगा।

हाँ,जिसने बाबू को बाबूजी कह दिया और अफसर ने सुन लिया तो उसका काम तत्काल प्रभाव से हो जाता है। उसकी फाइल में किसी दस्तावेज की कमी होने के बावजूद भी फाइल अटकती-भटकती नहीं,बल्कि सीधी अफसर की टेबल पर पहुँच जाती। जिसने अफसर के हर प्रश्न का जवाब यस सर और नो सर में दिया न उसके दस्तावेजों पर तो बगैर देखें व पढ़े हस्ताक्षर कर देता है। 

 

वह अफसर हाजिर हो या गैरहाजिर हो। उसके परिसर में दिनभर सर गुंजायमान रहता है। इसलिए नहीं कि परिसर शब्द में सर है,बल्कि इसलिए रहता है कि परिसर में अफसर हैं। वह हर उस अवसर का पूरा लाभ उठाता है,जिसमें सर होता है। वैसे अवसर में भी सर है। वह दूध भी तभी पीता है,जब उसमें केसर होता है। क्योंकि केसर में सर है। उसे घुसर-पुसर करने वाले लोग बहुत पसंद है। पसंद इसलिए हैं कि घुसर-पुसर में एक बार नहीं,बल्कि दो बार सर है। इसी तरह उसे प्रोफ़ेसर,अनाउंसर व फ्रीलांसर लोग भी बहुत पसंद है। यह लोग भी इसीलिए पसंद है कि उनमें सर समाहित है। वह डांस डांसर का ही देखता है। देखने की वजह सर ही है। स्त्रियों की नाक में नकबेसर व गले में नवसर कैसे भी हो। नए हो या पुराने हो। महँगे हो या सस्ते हो। उन दोनों आभूषणों की तारीफ किए बगैर नहीं रहता है। अगर उन दोनों आभूषणों के नाम में सर नहीं हो न,तो वह कभी तारीफ नहीं करें। 

उस अफसर को चैसर का खेल और टसर के कपड़े इसलिए पसंद है कि उनके नाम में सर है। उसके बगीचे में सबसे ज्यादा नागकेसर के वृक्ष है। वो भी इसीलिए है कि उनके नाम में भी सर है। उसे सर से इतना प्यार-प्रेम है कि वह उस बीमारी से ग्रस्त हैं,जिसके नाम में सर है। वह कैंसर से पीड़ित है।

 


 

3 Feb 2021

झोलाछाप डॉक्टर सेवाराम

डॉक्टर सेवाराम टू इन वन है। इनसानों के साथ पशुओं का भी इलाज करता हैं। मोटरसाइकिल के एक बगल में पशु दवा बैग और दूसरी ओर इंसानी दवा का लटका झोला टू इन वन का प्रमाण है। ग्राहक का कब फोन आ जाए और कब जाना पड़ जाए। इसलिए आपातकालीन सेवा के रूप में मोटरसाइकिल को चौबीस घंटे पास में ही खड़ी रखता है। यहाँ ग्राहक मरीज है और मरीज ही ग्राहक है। दुकानदार के लिए ग्राहक भगवान होता है और मरीज के लिए डॉक्टर भगवान होता है। अत: यहाँ पर डॉक्टर और मरीज दोनों ही भगवान है। एक-दूसरे के लिए।

आप भले ही मोटरसाइकिल को एम्बुलेंस कह सकते है। रहित सायरन एम्बुलेंस। पर इसके साइलेंसर की ध्वनि ही दूरध्वनि है। जिसके सामने एम्बुलेंस सायरन ध्वनि की तो फूँक निकल जाती है। मरीज क्लीनिक पर आए। चाहे डॉ.सेवाराम मरीज के घर पर जाए। कोई अतिरिक्त फीस नहीं। फीस व अन्य खर्चा-पानी पहले ही दवाइयों में ऐड कर देता हैं। यह एड़ करता है और सरकारी अस्पताल में एडमिट करते हैं। इसका तो ‘एड़’ भी एड़मिट से महंगा पड़ता है। लेकिन मरीज को महँगाई की मार से मरने नहीं देता। उधार का इंजेक्शन लगा देता है। जिससे मरीज को बहुत राहत मिलती है। एक बीमार देहाती को राहत मिल गई तो यह मानों उसे पद्मश्री मिल गया। लेकिन जब उधार इंजेक्शन का चार्ज लिया जाता है। तब एक बार तो भला-चंगा भी कोमा चला जाता है। ऐसी स्थिति में उपचार करने की बजाय उसे ‘शर्मिंदा ना करें’ की  टैबलेट देकर घर भेज दिया जाता है। 

अनभिज्ञ व निरक्षर की दृष्टि में जो सुई लगाता है,वहीं डॉक्टर है। फिर चाहे वह नर्स ही क्यूँ ना होदेहात में फर्जी क्लीनिक खोलकर बैठा ऐरा-गैरा नत्थू -खैरा  ही क्यूँ ना होइनकों तो इलाज से मतलब है। ग्रेड व डिग्री से नहीं। थोड़ी बहुत दृष्टि सोचने समझने में लगा भी दी तो झोलाछाप दृष्टि टोक देती है,‘उधेड़बुन में क्‍यूँ अपना दिमाग खपा रहा है। मुझ पर विश्वास है ना,फिर काहे को टेंशन लेता है। ये ले तीन दिन की दवा। इसमें से सुबह-शाम लेनी है। यह एक बखत लेनी है और यह वाली खाली पेट लेनी है। तीन तरह कीतीन रंग की,तीन पुड़िया है। समझ में नहीं आई क्‍याठीक है। देख ऐसे समझ ले। लाल पुडिय़ा सुबह-शाम की है। पीली पुडिय़ा एक बखत की है। और सफेद वाली खाली पेट की है। फिर भी कोई दिक्कत आए तो चुपचाप सीधा यहाँ चले आना। किसी से भी किसी तरह का जिक्र मत करना। जिक्र किया तो फिक्र होगी और फिक्र होगी तो दवा काम नहीं करेगी। दवा काम नहीं करेगी तो स्वस्थ नहीं होगा।समझ गया ना।’ इस तरह से भयभीत कर देता है। चाहकर भी जिक्र नहीं करता।  

अनभिज्ञता में विश्वास चीज ही ऐसी है। एक बार जिसकी आँखों पर विश्वास की पट्टी बँध गई। उसे उतारना मुश्किल है। यह पट्टी बंधती नहीं बांधी जाती है। झोलाछाप के पास जो  मरहम पट्टी करवाने आता है । उसके मरहम पट्टी के साथ-साथ विश्वास की पट्टी भी  बांध देता हैं। मरहम पट्टी से घाव भरे ना भरे। लेकिन विश्वास की पट्टी से जरुर भर जाता है।झोलाछाप की  मरहम पट्टी रखी-रखी एक्सपायरी डेट हो सकती  है। लेकिन विश्वास की पट्टी कभी एक्सपायर डेट नहीं होती । 

हर झोलाछाप डॉक्टर यह भली-भाँति जानता है कि गाँव देहात में  भले ही कुछ मिले ना मिलेपर मरीज पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। जिनके इलाज से  दाल-रोटी का बंदोबस्त तो आराम से हो जाता है। गाँवों में वैसे तो कोई बीमारी खास नहीं होती। फोड़ा-फुंसी,खांसी-जुखामसर्दीपेटदर्द ,उल्टी-दस्त व बुखार जैसी बीमारियां होती। जो कि बिना दवा के भी ठीक हो जाती है। लेकिन झोलाछाप कई तरह के रंग बिरंगे कैप्सूल देकर तथा  ग्लूकोज इस तरह से चढ़ाता हैड्रिप  की रफ्तार इतनी धीमी रखता है। एक बूँद आधे घंटे में गिरती हैं। जिसे देखकर मरीज व परिजन को लगता है दवाई बड़ी मुश्किल से शरीर में जा रही है। बीमारी गंभीर है। 

डॉ.सेवाराम पता नहीं क्या जादू-टोना करता है। लोग जरा सा ताप बुखार होते ही सेवाराम की शरण में चले जाते हैं। जो बीमार नहीं हैं,वे चाय-पानी पीने आ जाते हैं। गपशप मारने आ जाते हैं। जब कोई केश बिगड़ता है तो वह इन्हीं को बुलाता हैं। यह दौड़े चले आते हैं। ले-देकर मामला रफा-दफा भी करवा देते हैं। देहात में पाँच व्यक्तियों की बात सर्वप्रिय मानी जाती हैं। ताकि गाँव की बात गाँव तक रहे। कोर्ट-कचहरी तक नहीं जाए। अगर कोई डॉ.सेवाराम के खिलाफ पुलिस तक चल भी गया तो उससे पहले सेवाराम की सेवा हाजिर हो जाती है। जिसकी सेवा है उसकी मेवा तो होनी ही है। मेवा नहीं करें तो सेवा नहीं होती है। सेवाराम का नेटवर्क तगड़ा है। मेडिकल सतर्कता दल के आने से पूर्व ही भनक लग जाती हैं और उनके आने से पहले ही क्लीनिक बंद करके नौ दो ग्‍यारह हो जाता है।

मोहनलाल मौर्य