12 Jun 2022

एक वक्‍ता का वक्‍तव्‍य

एक कार्यक्रम में एक वक्ता ने सभागार में उपस्थित लोगों को कुछ इस तरह से संबोधित किया। आज के भव्य कार्यक्रम के मुख्य अतिथि महोदय तथा विशिष्ट अतिथिगण। पितातुल्य बुजुर्गों,माताएंबहनों और भाइयों तथा प्यारे बच्चों। मैं यहाँ कोई भाषण देने नहीं आया हूँ। मुझे आता भी नहीं है। मैं ज्यादा तो कुछ नहीं कहूंगा। बस इतना ही कहूंगा...। 

मेरे समझ में नहीं आया कि बुजुर्ग तो पितातुल्य और माताएं मातातुल्य नहीं। बहिने सिर्फ बहिने ही। उनके लिए तुल्य जैसा कोई शब्द नहीं। भाइयों के लिए भाइयों ठीक-ठाक था। लेकिन वहाँ उपस्थित सभी बच्चे प्यारे तो नहीं थे। कुछेक शरारती भी थे,जो उसको दिख भी रहे थे। फिर भी उनको संबोधित नहीं किया। सिर्फ प्यारे बच्चे ही बोला। शुक्र है कि शरारती बच्चों ने ध्यानपूर्वक नहीं सुना। अगर सुन लेते तो तालियां बजाकर ही बता देते कि हम किस टाइप के शरारती हैं। 

मैं यहाँ भाषण देने नहीं आया हूँ। अगर कोई उस समय उसे पूछ लेता कि मंच पर भाषण देने नहीं आए,तो किस लिए आए हो। राशन देने के लिए। क्या जवाब देता।  यह तो गनीमत है कि किसी ने पूछा नहीं। या फिर जिसके लिए आया था। वो बताने चाहिए था। अमुक काम के लिए आया हूँ। उसने कहा कि मुझे भाषण देना भी नहीं आता है। फिर लंबा-चौड़ा भाषण कैसे पेल दिया। शुक्र है कि जैसे-तैसे श्रोतागणों ने झेल लिया। अन्यथा वो भी तालियां बजाकर बता देते। अगर किसी भी वक्ता के वक्तव्य पर आवश्यकता से ज्यादा तालियां बजने लगती हैं,तो उसको समझ जाना चाहिए कि श्रोता सुनना नहीं चाहते हैं। लेकिन फिर भी वक्ता बकता रहता है।

आगे उसने कहा कि ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। जबकि कहा बहुत ही ज्यादा। जब ज्यादा ही कहना था,तो बस इतना ही कहूंगा क्यों कहा। यूँ कह सकता था कि कम नहीं ज्यादा ही कहूंगा। उसके कहने पर कौन सा टैक्स लग रहा था या जीएसटी लग रही थी। ज्यादा कहने से क्या श्रोता उठकर चल देते या सो जाते। वो तो जहां पर थे,वहीं पर रहते। ज्यादा कहने पर ज्यादा से ज्यादा एकाध उठकर चल देता। एकाध के चले जाने से पांडाल खाली नहीं हो जाता। सृष्टि का नियम है कि एक जाता है तो दूसरा आता भी है।

जब उसने कहा कि यह मेरे व्यक्तिगत विचार है। आपसे साझा कर रहा हूँ। अगर उसके विचार व्यक्तिगत ही थे,तो फिर सार्वजनिक क्यों किया। व्यक्तिगत ही रखता। सीधे-सीधे यूं ही कह देता कि यह मेरे सार्वजनिक विचार है। जिन्हें आपके सम्मुख रख रहा हूँ। अच्छे लगे तो प्रचार-प्रसार करना और बुरे लगे तो मुझे सूचित करना। 

उसने विचार देने के बाद में विचार वापस लिया। कहा कि मैं अपने विचार वापस लेता हूँ। जबकि उसको पता होना चाहिए विचार कमान से निकले तीर की तरह होता है,जो एक बार निकलने के बाद कभी वापस नहीं होता है। उसने ध्यान से देखा नहीं,वापस मांगने पर एक भी श्रोता ने वापस नहीं किया। सबने अपनी पॉकेट में रख लिया था।

उसने अपना उद्बोधन कुछ इस तरह से समापन किया। समय को देखते हुए बस यहीं पर अपनी वाणी को विराम देता हूँ। आपने मुझे बोलने का अवसर दिया और ध्यानपूर्वक सुनने के लिए दिल से धन्यवाद। अगर उसने समय को देखा ही होता तो दो वक्ताओं के समय को नहीं खाता। उसे किसी ने भी बोलने का अवसर नहीं दिया। बल्कि खुद ने लिया था। खुशामद के जरिए। ध्यानपूर्वक किसी ने भी नहीं सुना। ज्ञान की बात कहता तो अवश्य सुनते। बेमतलब की बातें कह रहा था।

 

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