कहावत है कि ‘पाप का घड़ा’ भरता है तो फूटता जरूर है। लेकिन ‘पाप का घड़ा’ ही क्यों होता है? ‘डिब्बा’ क्यों नहीं होता? ‘लोटा’ क्यों नहीं होता? ‘ड्रम’ क्यों नहीं होता? ‘टैंकर’ क्यों नहीं होता। भरने पर फूटता ही क्यों है? झलकता क्यों नहीं? उजलता क्यों नहीं? खाली क्यों नहीं होता? फूटता है तो बिखरता भी होगा। बिखरे हुए को कोई ना कोई इकट्ठा करके उठाता भी होगा। ज्यादा नहीं तो जरूरत के मुताबिक उठाता होगा। पर उठाने के बाद क्या घड़ा में ही डालता है? अमूमन घड़ा में तो पानी भरा जाता है। पाप पानी तो है नहीं,जो कि घड़ा में डाल दिया और भर जाने पर फूट गया। पाप की भाप भी नहीं होती है। जिससे कि उसी से घड़ा भरता हो। पाप को मापने का कोई नाप भी बाजार में नहीं मिलता। मिलता तो समझ जाते कि ‘पाप का घड़ा’ नाप के जरिए भरता है। पाप की मिट्टी भी नहीं होती जिससे कि उसी से घड़ा बनता हो। पाप तो पाप है। बेटा तो क्या बाप से भी हो जाता है। पापा भी पापी बन जाते हैं। जाप करने वाले भी पाप कर बैठते हैं। तुमको आप कहने वाले भी ऐसा पाप कर डालते हैं कि सोच भी नहीं सकते। पाप की नगरी में प्रवेश करने के बाद बकरी भी इतनी पाप की घास चर जाती है कि उसकी मेंगनी से ही पाप का ट्रक भर जाए।
कहावत ‘पाप का घड़ा’ के बजाय ‘पाप का लोटा’ होती तो
कितना अच्छा होता। लोटा फूटता नहीं। पाप लोटा में ही लेटा रहता। लेटा-लेटा एक दिन
लोटा में ही लेट हो जाता। फिर उसे लोटा से बाहर निकालने की भी जरुरत नहीं पड़ती।
उसी लोटा को गंगा में बहा देते। उसके बाद पाप का न बाप रहता और न बेटा। आज पाप के
बेटों के बजाय बाप ज्यादा हैं। जो कि घड़ा में खड़ा हो जाते हैं। घड़ा के फूटने पर
टूटते नहीं। बल्कि लूट लेते हैं। किसी की किस्मत तो किसी की अस्मत। जरा सी भी नहीं
करते रहमत। रहमान हो या हनुमान। सब के साथ समान। सामान वाले से न सवाल और न बवाल
सीधा कनपटी पर तमंचा। तमंचा लगने के बाद तमाचा भी नहीं मार सकते। हाथापाई भी नहीं
कर सकते। थोड़ी सी भी होशियारी की तो तमंचा चलाते देर नहीं करते हैं। चलने के बाद
चलने लायक भी नहीं बचता है। चल बसता है। कीमती कीमत वाले को तो शूट ही कर देते
हैं। शूट के बाद एक घूंट पानी की भी नहीं पीते। सीधा सूट-बूट खरीदने चल देते हैं।
ऐसे पापियों के लिए तो घड़ा नहीं,कुआं होता तो आज पाप के बाप
ही नहीं,दादा परदादा भी उसी में सड़ रहे होते और प्रायश्चित
कर रहे होते।
आज पाप का ताप इतना अधिक बढ़ गया है कि पुण्य की बारिश से भी घट नहीं रहा है। चौमासा में भी पाप के ताप पर असर
नहीं पड़ता है। बारहमास एक-सा रहता है। कभी किसी माह में घट भी गया तो अगले माह
में घटौती की पूर्ति कर लेता है। बढ़ोतरी के लिए किसी भी हद तक हद लांघ देता है। लेकिन कहावत ‘पाप का ड्रम’ होती
तो ‘पाप का ताप’ इतना नहीं बढ़ता। ड्रम पाप के ताप से इतना गर्म होता कि पापी तिलमिला उठता।तिलमिलाते को देखकर
बेशर्म भी कुकर्म करने से पहले ड्रम के बारे में सोचता।
पाप का ड्रम होती तो शर्म होती। शर्म होती तो कर्म धर्म वाले होते। धर्म वाले होते
तो पाप का ताप न्यूनतम होता।
दरअसल इस कलियुग में तो इतना भयंकर पाप हो रहा हैं कि कहावत ‘पाप का टैंकर’ होनी
चाहिए थी। टैंकर होती तो पाप तो दूर,ड्रिंकर ड्रिंक नहीं
पीता। गैंगस्टर की गैंग नहीं होती। गैंगरेप की वारदात नहीं होती। न क्राइम और न क्रिमिनल
होता। न क्रिमिनल हिस्ट्रीशीटर बनता। न हिस्ट्रीशीटर की हिस्ट्री होती। न कोई रिश्ता कलंकित होता। सबको टैंकर का भय रहता। पाप का टैंकर फूटता नहीं,सीधा विस्फोट होता। विस्फोट होता तो पापी के इतने चिथड़े होते कि चिता पर लेटाने लायक भी नहीं बचता।
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