फागुन का आगमन होते ही व्यंग्यकार का मन शब्दों
के साथ होली खेलने को मचलने लगता है। भले ही शब्द खेलने के लिए
तैयार नहीं हो। उन्हें तुकबंदी से मना लेता है। बड़े-बड़े शब्दों को छोटे-छोटे
वाक्यों के साथ तालमेल बैठा देता हैं। जो शब्द गुलाल लगवाने में आनाकानी करता है।
उसे व्यंग्यमय पिचकारी से रंग देता है। रंग में रंग
जाने के बाद उसे रचना का होना ही पड़ता है।
व्यंग्यकार शब्दों के साथ होली अपने लिए ही
नहीं खेलता है। बल्कि कईयों के लिए खेलता है। सर्वप्रथम तो संपादक के
लिए खेलता है। उसके बाद में अखबार के लिए। अखबार के बाद में पाठक के लिए। पाठक के
पश्चात पैसा और प्रसिद्धि के लिए खेलता है। थोड़ी सी प्रसिद्धि तो प्रकाशित होते
ही मिल जाती है। थोड़ी से थोड़ी ज्यादा व्हाट्सएप पर मिल जाती है। थोड़ी से कहीं
ज्यादा प्रकाशित की कटिंग को फेसबुक पर टांगने पर मिल जाती है। पैसा तत्काल नहीं।
काफी दिनों बाद मिलता है। जिसका मलाल नहीं। उस पैसा से मालामाल तो हो नहीं सकता।
इसलिए मलाल करके अपने आपको क्यूं हलाल करें।
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खुशी-खुशी शब्दों के साथ खेलने का ही कमाल
करें। जिससे एक ओर नवीन व्यंग्य रचना को प्रकाशित होने का सौभाग्य प्राप्त हो। एक
व्यंग्यकार के लिए प्रकाशित होने का सौभाग्य उसी तरह से मायना रखता है। जिस तरह से एक महिला के लिए उसका मायका रखता। जिस तरह से एक भारतीय
महिला सब कुछ सह सकती है। लेकिन अपने मायका की आलोचना कतई नहीं सुनती है। इसी तरह
से एक व्यंग्यकार अपनी प्रकाशित रचना की आलोचना कतई पसंद नहीं करता है।हां,बधाई और शुभकामना पाने के लिए फेसबुक के इनबॉक्स तक में रचना भेज देते
हैं।
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शब्दों के साथ होली खेलने का मकसद
सिर्फ प्रकाशित होने तक ही नहीं रहता है। प्रभावित करने का भी रहता है। लोग
प्रभावित होंगे,तो प्रणाम करेंगे। आज के युग में प्रणाम पुरस्कार से कम नहीं है।
बल्कि कहीं ज्यादा ही होता है। लेकिन मिलता आधा ही है। आधे में बाधा आ जाती है।
सोशल मीडिया के युग में आधा भी बहुत है। पुरस्कार तो आधा अधूरा भी नहीं मिलता है।
जबकि व्यंग्यकार पुरस्कार के लिए भी शब्दों के
रंग-गुलाल लगाता है। उन पर व्यंग्यात्मक पिचकारी छोड़ता है। रूठे हुए शब्दों को मनाता है। गुझिया खिलाता है।शानदार,मजेदार व धारदार जैसी रचनाओं का संगी साथी
बनाता है। फिर भी पुरस्कार झोली में आकर नहीं गिरता है।
लेकिन एक न एक दिन गिर ही जाएगा। इसी
उम्मीद पर व्यंग्यकार मोबाइल या लैपटॉप पर लेटे-लेटे ही शब्दों पर रंग-गुलाल उड़ाता रहता है। ताकि शब्द रंग-बिरंगे रंग-गुलाल से सराबोर रहे। सराबोर शब्द
रचना में सामाजिक सौहार्द बनाए रखते हैं। शब्द बहुत
समझदार होते हैं। कहां पर अपनी भूमिका निभानी है और कहां पर नहीं। इसका पूरा ध्यान
रखते हैं। जब कभी ध्यान से भटक जाते हैं और वाक्य के अंदर हो जाते हैं। संपादक से अनुरोध करके बाहर निकल आते हैं। संपादक आग्रह स्वीकार नहीं करता है,तो रचना की ऐसी-तैसी कर देते
हैं। कोई भी जैसी-तैसी रचना की भी ऐसी-तैसी नहीं चाहता है। सबका मन वाहवाही लूटने में रहता है। वाहवाही हवा में उड़ने वाली
कोई पतंग तो है नहीं,जिसको आसमान से गिरते ही आसानी से लूट
ले। वाहवाही के लिए हर उस शब्द के साथ होली खेलनी होती है,जो
रचना के गली मोहल्ला व गांव देहात में रहता है।
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जब शब्द एक-दूसरे के लाल,पीला,हरा गुलाबी गुलाल लगाते हैं तो रचना होली व्यंग्य बनने से रह नहीं
सकती है। उसे देश के सबसे प्रमुख अखबार में प्रकाशित होने से भी कोई रोक नहीं सकता है। होली के रंगों से रंगी रंग-बिरंगी व्यंग्य रचना को देखकर संपादक महोदय बगैर संपादित किए प्रकाशित
कर देता है।
मोहनलाल मौर्य
2 comments:
क्या बात है। सब कुछ कह दिया फिर संपादक को मानना ही था।
thank you sir
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