5 Mar 2023

कहो तो रंगलाल कितने गोले रंग

रंगलाल पर पिछली बार मोहल्ले के सारे छोरे टूट पड़े थे। गनीमत रही कि उसके शरीर का एक भी अंग नहीं टूटा। अगर टूट जाता तो टूटकर पड़ने वालों की खैर नहीं थी। खैर छोड़िए। टूटकर पड़ने का कारण उसके रंग-गुलाल छीनकर उसी को रंगने का था। जिसमें कामयाब भी हुए। उसे उसी के रंग-गुलाल से सराबोर करने के बाद ही उसके ऊपर से उठे। रंगलाल रंग-गुलाल से इतना सराबोर हो गया था कि कई दिनों तक होली के रंग छुड़ाने पर भी नहीं छूटे। रंगलाल अपने आपको लूटा हुआ महसूस करने लगा। जबकि रंग-गुलाल के सिवाय रंगलाल का कुछ भी नहीं लूटा गया था।

लेकिन रंगलाल पिछली बार की भड़ास निकालने के लिए अबकी बार टूटकर पड़ने वालों को ढूंढ-ढूंढकर सूचीबद्ध कर लिया हैं। वे तो होली पर टोली के संग टूटकर पड़े थे और यह एक-एक करके सबके साथ बगैर टूटकर पड़े ही होली की होली खेलेगा और भड़ास की भड़ास निकालेगा।


इस तरह से खेलेगा कि किसी के बाप को भी पता नहीं चलेगा होली खेल रहा है या फिर भड़ास निकाल रहा है।गले लगाकर गले पड़ेगा। थोड़ी सी गुलाल लगाने के लिए कहेगा और मुट्ठीभर लगाएगा। एक हाथ से गालों पर और दूसरे से बालों पर लगाएगा। जब तक बंदा रंग-गुलाल से सराबोर नहीं हो जाएगा। तब तक उसका पिंड नहीं छोड़ेगा।

अच्छा सूचीबद्ध वाले हाथ नहीं लगे,तो ऐसा नहीं है कि भड़ास नहीं निकालेगा। गतवर्ष की भरपाई तो इसी वर्ष करके ही रहेगा। जो मिल गया,वही सही। बस मन से भड़ास निकलनी चाहिए और तन पर रंग-गुलाल चढ़नी चाहिए। फिर चाहे सामने कोई भी हो। यही रंगलाल की हार्दिक इच्छा है। जिसे पूरी करने के लिए पुरजोर से लगा हुआ है। लेकिन अकेला कोई मिल नहीं रहा है। सब के सब टोली के संग होली खेल रहे हैं। टोली वालों के साथ खेलने पर अच्छे-अच्छों की रंग गुलाल फीकी पड़ जाती है। ट्रैफिक हवलदार से बचकर निकल सकते हैं,पर होली पर टोली वालों के सामने आने के बाद बचकर निकलना नामुमकिन है। इनके सम्मुख कोई समझदारी दिखाता है,तो वे कीचड़ को भी गुलाल समझकर उसके चेहरे पर पोत देते हैं। उनका मानना है कि कीचड़ में कमल खिल सकता है,तो कीचड़ से होली खेलने में बुराई क्या है।

एकाध के साथ होली ही खेल सकते हैं। उनके साथ भड़ास निकाले तो मन की भड़ास भाड़ में घुस जाए और तन पर खुद की ही रंग-गुलाल चढ़ जाए। यह कोई भी नहीं चाहता है कि खुद की रंग-गुलाल खुद के लगे। सब दूसरों के लगाने की फिराक में रहते हैं।

रंगलाल की भड़ास की प्यास बढ़ती जा रही थी और पजामे की जेबों में भरी गुलाल घटती जा रही थी। होली तो खेल रहा था पर भड़ास निकाल नहीं पा रहा था। मौका नहीं मिल रहा था और मौका मिल रहा था,तो कोई भी छोरा अकेला नहीं मिल रहा था। यकायक सूचीबद्ध वाला ही एक छोरा मिल गया। जिसे देखकर चेहरे पर छाई मायूसी उड गई। उस छोरे के चेहरे पर ही नहीं,बल्कि पूरे पर इतनी गुलाल उड़ेल दी कि गौर से देखने पर भी उसके घर वाले भी पहचान नहीं पाए।

वहां से आगे बढ़ा तो जो निशाने पर थे,उनमें से एक पर निशाना साधा। लेकिन निशाना चूक गया और किसी और के लग गया। लग गया तो भड़ास रंग-गुलाल में बदल गई। बुरा न मानो होली है कहकर उसे भी अच्छी तरह से रंग दिया। जब रंग गुलाल जिसके लगाना चाहते हैं और उसके नहीं लगती है तथा इसके उसके या किसी अन्य के लग जाती है। तभी होली खेलने का असली मजा आता है। मजा आता है तो भड़ास चुपके से खिसक लेती है। 

दरअसल होली पर्व पर आप समझ रहे हो,उस तरह के भड़ास नहीं होती है। इस भड़ास में तो एक अजीब सी मिठास होती है। जिसे खाना तो कोई नहीं चाहता है। लेकिन खानी पड़ जाती है। नहीं खाए तो लोग बुरा मान जाते हैं। होली पर बुरा मानना अच्छा नहीं रहता है। इसलिए सब इस अजीब सी भड़ास की मिठास को मिल बांटकर खाते हैं और खिलाते हैं।

मोहनलाल मौर्य 

20 Jan 2023

पाप का घड़ा ही क्यों


कहावत है कि पाप का घड़ाभरता है तो फूटता जरूर है। लेकिन पाप का घड़ाही क्यों होता है? ‘डिब्बाक्यों नहीं होता?  ‘लोटाक्यों नहीं होता? ‘ड्रमक्यों नहीं होता? ‘टैंकर’ क्यों नहीं होता। भरने पर फूटता ही क्यों हैझलकता क्यों नहींउजलता क्यों नहींखाली क्यों नहीं होताफूटता है तो बिखरता भी होगा। बिखरे हुए को कोई ना कोई इकट्ठा करके उठाता भी होगा। ज्यादा नहीं तो जरूरत के मुताबिक उठाता होगा। पर उठाने के बाद क्या घड़ा में ही डालता हैअमूमन घड़ा में तो पानी भरा जाता है। पाप पानी तो है नहीं,जो कि घड़ा में डाल दिया और भर जाने पर फूट गया। पाप की भाप भी नहीं होती है। जिससे कि उसी से घड़ा भरता हो। पाप को मापने का कोई नाप भी बाजार में नहीं मिलता। मिलता तो समझ जाते कि पाप का घड़ानाप के जरिए भरता है। पाप की मिट्टी भी नहीं होती जिससे कि उसी से घड़ा बनता हो। पाप तो पाप है। बेटा तो क्या बाप से भी हो जाता है। पापा भी पापी बन जाते हैं। जाप करने वाले भी पाप कर बैठते हैं। तुमको आप कहने वाले भी ऐसा पाप कर डालते हैं कि सोच भी नहीं सकते। पाप की नगरी में प्रवेश करने के बाद बकरी भी इतनी पाप की घास चर जाती है कि उसकी मेंगनी से ही पाप का ट्रक भर जाए।

 

कहावत पाप का घड़ाके बजाय पाप का लोटाहोती तो कितना अच्छा होता। लोटा फूटता नहीं। पाप लोटा में ही लेटा रहता। लेटा-लेटा एक दिन लोटा में ही लेट हो जाता। फिर उसे लोटा से बाहर निकालने की भी जरुरत नहीं पड़ती। उसी लोटा को गंगा में बहा देते। उसके बाद पाप का न बाप रहता और न बेटा। आज पाप के बेटों के बजाय बाप ज्यादा हैं। जो कि घड़ा में खड़ा हो जाते हैं। घड़ा के फूटने पर टूटते नहीं। बल्कि लूट लेते हैं। किसी की किस्मत तो किसी की अस्मत। जरा सी भी नहीं करते रहमत। रहमान हो या हनुमान। सब के साथ समान। सामान वाले से न सवाल और न बवाल सीधा कनपटी पर तमंचा। तमंचा लगने के बाद तमाचा भी नहीं मार सकते। हाथापाई भी नहीं कर सकते। थोड़ी सी भी होशियारी की तो तमंचा चलाते देर नहीं करते हैं। चलने के बाद चलने लायक भी नहीं बचता है। चल बसता है। कीमती कीमत वाले को तो शूट ही कर देते हैं। शूट के बाद एक घूंट पानी की भी नहीं पीते। सीधा सूट-बूट खरीदने चल देते हैं। ऐसे पापियों के लिए तो घड़ा नहीं,कुआं होता तो आज पाप के बाप ही नहीं,दादा परदादा भी उसी में सड़ रहे होते और प्रायश्चित कर रहे होते।

आज पाप का ताप इतना अधिक बढ़ गया है कि पुण्य की बारिश से भी घट नहीं रहा है। चौमासा में भी पाप के ताप पर असर नहीं पड़ता है। बारहमास एक-सा रहता है। कभी किसी माह में घट भी गया तो अगले माह में घटौती की पूर्ति कर लेता है। बढ़ोतरी के लिए किसी भी हद तक हद लांघ देता है। लेकिन कहावत पाप का ड्रमहोती तो पाप का तापइतना नहीं बढ़ता। ड्रम पाप के ताप से इतना गर्म होता कि पापी तिलमिला उठता।तिलमिलाते को देखकर बेशर्म भी कुकर्म करने से पहले ड्रम के बारे में सोचता। पाप का ड्रम होती तो शर्म होती। शर्म होती तो कर्म धर्म वाले होते। धर्म वाले होते तो पाप का ताप न्यूनतम होता।

दरअसल इस कलियुग में तो इतना भयंकर पाप हो रहा हैं कि कहावत पाप का टैंकरहोनी चाहिए थी। टैंकर होती तो पाप तो दूर,ड्रिंकर ड्रिंक नहीं पीता। गैंगस्टर की गैंग नहीं होती। गैंगरेप की वारदात नहीं होती। न क्राइम और न क्रिमिनल होता। न क्रिमिनल हिस्ट्रीशीटर बनता। न हिस्ट्रीशीटर की हिस्ट्री होती। न कोई रिश्ता कलंकित होता। सबको टैंकर का भय रहता। पाप का टैंकर फूटता नहीं,सीधा विस्फोट होता। विस्फोट होता तो पापी के इतने चिथड़े होते कि चिता पर लेटाने लायक भी नहीं बचता।