अरे भाई,
मुझे भी झूठ बोलना सिखा दो
मोहन लाल
मौर्य
मैं कई दिनों से उस ‘झूठ’ की तलाश
में हूं। जिसे बोलकर लोग अपना कार्य आसानी से करवा लेते है। नौकरी पा लेते है।
कारोबार चला लेते है। प्रेम-प्रसंग में फंसा लेते है। ब्याह-शादी रचा लेते है।
चुनाव जीत जाते है। गबन कर लेते है। रिश्वत ले लेते है। पुरस्कार पा लेते है।
अखबार में छप जाते है। टीवी पर दिख जाते है। सुर्खियों में बने रहते है। खास ऐसा
ही झूठ मुझे भी बोलना आता तो मैं दर-दर की ठोकर नहीं खा रहा होता। कहीं ना कहीं
कुछ ना कुछ जॉब कर रहा होता। मैं जब भी झूठ बोलता हूं। पकड़ा जाता हूं। एक दफा तो
पकड़ा ही नहीं गया। अच्छे से धुनाई भी हुई । वह भी बिना वॉशिंग पाउडर के। वॉशिंग
पाउडर मिलाकर करते तो हो सकता है। मुझे थोड़ा बहुत वह ‘झूठ’ बोलना आ
जाता। जिसकी मुझे तलाश है।
जिस ‘झूठ’ की मुझे तलाश है। उस के लिए मैंने बहुत
पापड़ बेले। उन तमाम लोगों से मिला हूं। जो झूठ बोलने में पीएचडी कर रखे है। झूठ
बोलने के गुर सिखाते है। झूठ की बुनियाद पर अपना कारोबार चलाते है। बेवकूफ बनाते
है। इन सभी ने एक ही बात बताई,झूठ बोलने में है बड़ी कठिनाई। लेकिन,जो झूठ
बोलकर कमार खाए,तो
उसमें क्या है बुराई। तुझे झूठ बोलने से मिलती है,भलाई। तो तू भी झूठ बोल भाई। झूठ बोलने के
फायदा-नुकसान क्या है? यह मसलन हम से जान भाई। झूठ बोलकर हो जाती है सगाई। घर में आ
जाती है लुगाई। कईयों कि हो जाती है,ठुकाई। किसी की जग हंसाई। हम ने तो झूठ
बोलकर कईयों को फंसाया। तेरी तू जान भाई। ऐसा झूठ बोलने वालों ने मुझे बताया।
जिसने भी झूठ बोलने का नायाब तरीका बताया। मैंने वहीं अपनाया। जिस पर भी अपनाया।
अपने आप को नाकामयाब पाया। नाकामयाब क्यूं पाया। यह मेरी समझ में आज तक नहीं आया।
लेकिन मैं हार नहीं मानंूगा। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। झूठ बोलने के लिए
रोना भी पड़ता है। और भी न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। जो भी करना पड़े। मैं
करूंगा। चाहे मुझे दिन-रात जागना पड़े। मैं जागूंगा। किसी के पीछे भागना पड़े। मैं
भागूंगा। लडऩे-झगडऩे की नौबत आयी तो वह भी करूंगा। झूकना पड़े तो सिर झूका कर
झूकूंगा। क्योंकि जिस दिन झूठ बोलकर कामयाबी पाली। उस दिन से अपने पिता के नाम से
नहीं,अपने
नाम से जानूंगा। घर,परिवार,समाज में मेरी पहुंच होगी,तो
यस-कीर्ति की उपलब्धि से अलंकृत हो जाऊंगा।
किसी ने मुझे यह भी बताया है कि झूठ
बोलने के लिए कसम भी खानी पड़ती है। मैं कसम खाने के लिए आमादा हूं। मां-बाप।
बीवी-बच्चे। भाई-बहिन। यार-दोस्त। रिस्तेदार। आदि-इत्यादि। कि कसम तो मैं ऐसे खा
जाऊंगा। जैसे लोग गाजर-मूली खाते है। झूठी कसम खाने से पहाड़ थोड़ी टूट जाएंगा।
लोग तो भरी अदालत में ‘गीता’ पर हाथ रखकर न जाने कैसी-कैसी और किस-किस की
कसम खा जाते है। उन पर न तो पहाड़ टूटता है और नहीं वे पहाड़ तले दबते है। झूठ
बोलने वाले तो स्वर्गगामी मां-बाप की कसम
खा जाते है। मुझे ‘आपकी कसम’,‘मेरी कसम’ खाने में भला मेरा क्या जाता है। बस,मुझे तो
वह ‘झूठ’ बोलना आना
चाहिए। जिसे बोलकर लोग बड़ी-बड़ी मछली यूं ही फंसा लेते है। मछली आसानी से फंस भी
जाती है और उसे पता भी नहीं लगता है। उसे कब और कैसे? किस जाल
से फंसाया गया है। ऐसा ही झूठ बोलने का हुनर मुझे सीखना है। सीखने के उपरान्त बड़ी
मछली न सही। छोटी-मोटी मछली तो मैं भी अपने जाल में फंसाया करूंगा।
झूठ बोलकर कैसे फंसाते है? इसकी
खुफिया जानकारी एक महाशय ने दी। उसने बताया कि झूठ बोलने में न हींग लगती है,न
फिटकिरी। रंग चोखा आता है। न तेरे बाप का। न मेरे बाप का कुछ जाता है। जो भी आता
है। उसी से आता है। जिसके सम्मुख हम झूठ बोल रहे हैं। झूठ बोलने से अगर कुछ भी
नहीं आता है,तो
कोई बात नहीं। कम से कम झूठ बोलने का अभ्यास ही हो जाता है। जो आगे काम आता है।
अपने आप कोई नहीं फंसता है। उसे फंसाया जाता है। कैसे फंसाया जाता है? यह तरीका
भी उसने ही बताया। जिस तरह से बकरे को हलाल करने से पूर्व उसे कुछ खिलाते-पिलाते
है। उसके बाद हलाल करते है। उसी तरह से झूठ की कुव्वत से किसी को फंसाना है,तो पहले
उसकी अच्छी तरह से खातिरदारी करों। फिर मौका देखकर बातों ही बातों में वह ‘झूठ’ बोल दो।
जिससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है। बातों ही बातों में इसलिए,क्योंकि
उसे शक नहीं हो कि बंदा झूठ बोलकर अपने को फंसा रहा है।
इसी ने बताया कि आज के युग में कौन
झूठ बोल रहा है और कौन सच। यह परखना जरा मुश्किल है। झूठ सच लगता है और सच झूठ। तू
तो आंख मूंद कर झूठ बोल। किसी सामने नहीं बोल सकता है,तो मोबाइल
पर झूठ बोल। मोबाइल पर तो ज्ञानी से ज्ञानी भी मूर्ख बन जाता है। मसलन,दस- बीस
किलोमीटर दूर बैठा व्यक्ति भी मोबाइल पर यही कहता है- दो मिनट में आ रहा हूं। पांच
मिनट में पहुंच रहा हूं। नजदीक ही हूं। बस आ गया। इत्ती स्पीड तो हवाई जहाज की
नहीं होती। जित्ती इन दो,पांच मिनट वालों की होती है। मैंने सलाह तो
मान ली, लेकिन मुझसे मोबाइल पर भी झूठ
नहीं बोला जा रहा. सोचता हूं, झूठ हम बोलते है,बदनाम मोबाइल होता है। वह मोबाइल, जो हमारे
सुख-दुख का साथी है। ऐसे साथी को भी हम झूठ बोलने में क्यों शामिल करें। उसने हमारा क्या बिगाड़ा है!
नवभारत टाइम्स 06 अक्टुबर 2016 |
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