30 Aug 2017

सही बात है,नाम में कुछ नहीं रखा

मैं कई दिनों से अपने नाम को लेकर हैरान हूं। हैरान इसलिए हूं कि एक दिन एक मित्र ने यह कह दिया-अपना नाम बदल लीजिए। मैंने उससे पूछा- नाम बदलने से क्या होगा? उसने जवाब दिया-एक बार नाम बदलकर तो देखिए। फिर देखना होता क्या है? दरअसल उसने ही बताया कि आपका नाम यानी की मेरा नाम मेरे मुताबिक जम नहीं रहा है। मैंने सुना है कि मित्र का मंतव्य ही गंतव्य तक पहुंचाता है। इसलिए मैंने अपना नाम बदल लिया। बदले नाम से एकाध रचना भी प्रकाशित करवा ली। मन में उत्कंठा उत्पन्न हुई कि,जो मूल नाम से यश-कीर्ति प्राप्त नहीं हुई। हो सकता है परिवर्तन नाम से हो जाए। यहीं सोचकर मैंने अपने नाम में से मध्यम हटा दिया। प्रथम और अंतिम रख लिया। सम्पूर्ण परिवर्तन तो कर नहीं सकता। सम्पूर्ण परिवर्तन करने का अभिप्राय है अपना जो अस्तित्व है उसे विलुप्त करना।
सुना है कि नाम की बड़ी महत्ता होती है। यह अलग बात है कि कईयों कि नाम के विपरीत मनोदशा होती है। जैसे कि नाम तो रोशन लाल है,पर रहता बेचारा अंधेरे में है। इसी तरह नाम तो शमशेर बहादुर सिंह है,पर मरे ना चूहा भी। कद का ठिगना है,पर नाम लम्बरदार है। रंग का काला है,पर नाम सुन्दरलाल और रंग का गोरा है,पर नाम कालूराम है। देह दुबली पतली है और नाम मोटूराम है। अष्ट-पुष्ट,लम्बी-चौड़ी कद-काठी है,पर नाम छोटूराम। कई होते तो मर्द हैं,पर उनके नाम में औरत का नाम पहले आता हैं। जैसे कि दुर्गाप्रसाद,लक्ष्मी नारायण,सीताराम,आदि-इत्यादि। कईयों के नाम बड़े-अटपटे होते हैं,पर उनका नाम बड़ी इज्जत से लिया जाता है और कईयों के नाम भगवान के नाम पर होते हैं,फिर भी उन्हें आधे-अधूरे नाम से सम्बोधित किया जाता है। मसलन,नाम तो है ‘हनुमान’ और बुलाते है ‘हड़मान’।

मैंने अपना नाम परिवर्तन क्या किया? अड़ोसी-पड़ोसी आपत्ति जताने लगे। जबकि नाम मैंने परिवर्तन किया है और आपत्ति वे जता रहे हैं। पड़ोसी गंगाराम ने बताया कि भाई नाम परिवर्तन से कुछ नहीं होता। नाम तो काम से होगा। नाम तो मुंबई,कोलकाता,चेन्नई,वाराणसी,सहित कई शहरों के भी बदले गए है। लेकिन हुआ क्या? क्या वे शहर इधर से उधर हो गए? यहां फिर उनके पंख लग गए,जिधर मन किया उधर की उड़ चले। वे वहीं स्थित हैं,जहां थे। हां,उनका आकार-विकार जरूर बढ़ता रहता है। आकार-विकार का क्या है? वह तो बगैर नाम परिवर्तन के भी घटता-बढ़ता रहता है। पड़सोसियों कि ओर से इस तरह के सुझाव सुनकर मैं असमंजस में हूं। इस सोच में डूबा हुआ हूं कि मित्र ने भी कुछ ना कुछ उधेड़बुन कर ही ऐसी राय दी होगी। अन्यथा आज के युग में भला ऐसी  राय कौन देता है।
एक पड़ोसी ने तो यह तक कह दिया-भाई! नाम अमरसिंह रखने से कोई अमर नहीं हो जाता। उसे भी मरना तो पड़ता ही है। लक्ष्मी नाम है तो इसका मतलब यह थोड़ी है कि कुबेर का खजाना उसी के पास है। नाम सत्यप्रकाश है तो यह जरूरी थोड़ी है कि वह  झूठ नहीं बोलेंगा। इसी तरह नाम दयाशंकर है तो इसका मतलब यह नहीं कि उसे क्रोध नहीं आएंगा। भाई! नाम तो नाम होता है। नाम चाहे बड़ा हो। चाहे छोटा हो। उसके काम के अनुरूप ही उसका नाम बड़ा होता है। इत्ती सी बात मेरे समझ में कैसे नहीं आयी और पड़ोसी ने चंद नामों के जरिए ही समझा दिया। लेकिन एक बात अब भी समझ में नहीं आयी। मित्र ने नाम परिवर्तन का सुझाव क्यों दिया? खैर छोडि़ए। कई दिनों से जो उलझन बनी हुई थी वह सुलझ गई और नाम की महत्ता का भी ज्ञान हो गया। 

14 Aug 2017

खिड़की से झमाझम बारिश का दृश्य

झमाझम बारिश हो रही है। सड़क जल से लबालब हो गई है। बच्चे कागज की कश्ती लेकर धमाचौकड़ी करने आ गए हैं। वे पूरे मनोयोग से बारिश का लुत्फ उठा रहे हैं। मैं इस नैसर्गिक सौंदर्य को खिड़की से निहार रहा हूं। रामू काका साइकिल पर चले आ रहे है। अचानक वे रपटकर गिर पड़ते हैं। वे ऐसे गिरते है,जैसे गठबंधन से बनी सरकार अचानक टुटकर गिर गई हो। बच्चें मदद के लिए आगे बढ़ते है उससे पहले वह खुद ही खड़ा हो लेता है। रामू काका बच्चों को थैंक्स कहने के बजाय दुतकारता हुआ आगे बढ़ता है। एक बच्चे की कश्ती डूबने लगती है। जिस तरह एक नेता अपने डूबते कैरियर को बचाने के लिए तमाम हथकंडे अपनाता है। उसी तरह वह बच्चा अपनी डूबती कश्ती को बचाने के तमाम प्रयास करता है। लेकिन वह अपनी डूबती कागज की कश्ती को बचा नहीं पाता है। बच्चा थोड़ी देर तो रोता है। फिर बच्चों के संग कागज की कश्ती बनाकर बहाने लगता है।

खिड़की से दृश्य बदलता है। दीनू काका की छत से पानी टपकने लगता है। सारे बिस्तर गिले हो गए हैं। दीनू काका छत से टपकते पानी से उसी तरह परेशान है। जिस तरह लोग दिन-ब-दिन बढ़ती महंगाई से परेशान है। जिस तरह महंगाई का कोई हल नहीं निकल पा रहा है। उसी तरह दीनू काका को इस झमाझम बारिश में छाता नहीं मिल पा रहा है। छाता मिल जाए तो छत का जायजा कर आए। और कुछ इंतजाम भी कर सके। सीबीआई ही तरह घर के सभी सदस्य छाते की तलाश में जुट हुए है,पर छाता है कि मिल नहीं रहा। लगता है छाता भी किसी कुख्यात अपराधी की तरह हाथ नहीं लगने वाला है।
खिड़की से एक बार फिर से नजर बच्‍चों की ओर घुमती है,जिन्‍हें देखकर सहज अंदाज लगाया जा सकता है। आज बच्चें बस्ते के बोझ तले से उन्मुक्त हुए हैं। रोज कॉफी-किताबों से भरा बस्ता पीठ पर लादकर सुबह स्कूल जाते हैं और दोपहर को लौटकर आते ही हॉमवर्क करने में जुट जाते हैं। खेलने-कूदने का टाइम ही नहीं मिलता। संडे का दिन है और झमाझम बारिश हो रही। इसलिए बच्चें छुट्टी का भरपूर फायदा उठा रहे हैं। सावन मास में हो रही झमाझम बारिश में बच्चें ही क्या? बड़े,बुढ़े पीछे नहीं रहते। वे भी बच्चों की तरह अठखेलियां करते दिख जाते हैं। फिर वे तो बच्चें ही हैं।
एक बार फिर खिड़की से दृश्य बदलता है और देखता हूं कि रघु काका अपनी झोपड़ी पर फटा-पुराना तिरपाल टांकने में लगा है। उसकी देह थर-थर कांप रही है फिर भी बार-बार तिरपाल को टांक रहा है और तिरपाल हर बार नीचे गिर रहा है। झमाझम बारिश के आगे तिरपाल उस तरह ही नहीं टिक पा रहा है। जिस तरह दंगल में रहित दांव-पेच वाला पहलवान नहीं टिक पाता है। रघु काका भी तिरपाल टांकते-टांकते पस्‍त हो गया है। अब वह बीड़ी फूंकना चाह रहा है। पर हर एक नई सींक बीड़ी सुलगाने में नाकामयाब हो रही हैं। लगता है झमाझम बारिश ने माचिस और सींक के अटुट बंधन को तोड़ दिया है।

यहां से नजर मास्टर आनंदीलाल पर जा टिकती है। मास्टरजी अपने कमरे में बैठे हुए है और हाथ में अखबार लेकर अखबार में देश-दुनिया की सैर कर रहे है। अखबार की देश-दुनिया की सैर के बीच-बीच में झमाझम बारिश को इस कधर ताक रहा है। जैसे चालान काटते हुए ट्रैफिक हवलदार ताकता है। मास्टरजी के सामने रहने वाली शारदा काकी के घर में बारिश का पानी भर आया है। जिस तरह देश से भ्रष्टाचार नहीं निकल पा रहा है। उसी तरह शारदा काकी से घर से बारिश का पानी नहीं निकल पा रहा है। वह पानी को निकालने का भरपूर जतन कर रही है। लेकिन पानी है कि जित्ता निकलता है उससे कहीं ज्यादा घुस जाता है। इसी बीच शारदा काका और दीनू काका की आवाज आती हैं। वे दोनों हेला देकर अपने-अपने बच्‍चों को बुला रहे हैं। उनके बच्‍चों को उनकी आवाज उनकी एवं साथी बच्‍चों की हाऊ हुल्‍लड़ सुनाई नहीं दे रहा हैं। मैं खिड़की से अब भी देख रहा हूं। बारिश थम चूकी है। लेकिन बच्चें अब भी धमाचौकड़ी में मशगूल हैं। दीनू काका छत पर आ पहुंचा है और रघु काका चिलम सुलगा रहा है। मास्टर आनंदीलाल अखबार में देश-दुनिया की सैर कर चुका है और शारदा काकी अब भी पानी निकालने में जुट हुई है। 

12 Aug 2017

अफवाह...आखिरकार अफवाह है

हर अफवाह सच में परिवर्तन होने का ख्वाब देखती है। जो कभी पूरा नहीं होता है। इन दिनों चोटी काटने की अफवाह भी इसी वहम में है कि मैं भी अफवाह न रहकर सच में परिवर्तन हो जाऊं। इसलिए सच के मार्ग पर चलने के लिए उतावली हो रही है। लेकिन सच की राह इससे कोसों दूर है। वहां तक पहुंचेगी,उससे पहले ही दम तोड़ चुकी होगी। क्योंकि किसी भी तरह की अफवाह के पैर नहीं होते। वह तो दूसरों के कंधों पर सवार होकर कुछ दिन दौड़ लेती हैं। दूसरे भी इसका ज्यादा दूर तक बोझ उठा नहीं पाते हैं। वे तो क्या है कि अंधविश्वास के चलते अपने कंधों पर बैठा लेते हैं अन्यथा वे ही अपने समीप नहीं आने दे। जैसे ही इनकी आंखों पर से अंधविश्वास का चश्मा उतरता है। वे खुद ही कंधों पर बैठी अफवाह को झट से नीचे पटक देते हैं।
सच की डगर पर दौड़ना आसान थोड़ी है। बल्कि इस डगर पर तो चलना तक मुश्किल है,क्योंकि यह रास्ता इत्ता विकट होता है कि कदम-कदम पर खतरा होता है और इस पर जित्ते घुमाव आते हैं। उतने घुमाव शायद ही किसी मार्ग पर आते होंगे। घुमाव भी इत्ते नजदीक-नजदीक होते हैं कि एक घुमाव पार करके आधा किमी चले नहीं कि दूसरा घुमाव आ जाता है। और प्रत्येक घुमाव पर खतरा नहीं खतरे का बाप होता है। जिससे भेंट होने पर पूरी अदब से भेंटवार्ता होती है। इस मार्ग पर तो इंसान ही चलने से कतराता है। अफवाह नाम की चीज की तो हिम्मत नहीं,जो इस मार्ग पर चल सके। वह तो क्या है कि सच के मार्ग पर चलने का ख्वाब देख लेते है। ख्वाब देखना और ख्वाब को पूरा करने में दिन-रात का अंतर है। जो अफवाह नाम की चीज के लिए तो कतई असंभव है।
चोटी वाली अफवाह जो ख्वाब देख रही है। वह ख्वाब ही रहेगा। वैसे भी ख्‍वाब कहते हैं कि कभी पूरे नहीं होते हैं। वह अपने मनसूबे में कभी भी कामयाब नहीं होगी। वजह साफ है कि वह जिस कधर सच के मार्ग पर चढ़ने के लिए उतावली हो रही है। उसी कधर कतरा भी रही है। चोटी वाली अफवाह ही क्या? हर अफवाह भली भांति जानती है कि सच के मार्ग पर चलना किसी भी अफवाह कि बस की बात नहीं। यह चोटी वाली अफवाह होने को तो अब से पहले ही रफूचक्कर हो लेती। पर क्या है कि कुछेक लोग अंधविश्वास की ज्योति को बुझने नहीं देते। उसे जलाए रखना चाहते है। इसी वजह से यह हावी हो रही है और अंधविश्वास की गलियों में घूम रही है। अंधविश्‍वास की गलियां काफी अंधेरी होती हैं। इसमें प्रकाश का कहीं कोई नामोनिशां नहीं होता है। हां,यदि प्रकाश की एक किरण भी इसमें पहुंच जाए,तो सारा अंधविश्‍वास धरा का धरा रह जाता है। चोटी कटवा अफवाह के पीछे भी शायद यही मनोविज्ञान काम कर रहा है। देखना कुछेक दिन उपरांत अंधविश्वास की गलियों में ही दम तोड़ देंगे। इसके बाद फिर कोई नई अफवाह का जन्म होगा। कुछ दिन तक होहल्‍ला मचेगा। फिर शांत।  दरअसल क्या है, इस तरह की अफवाहें आती है और कुछ दिन अफवाह फैला कर चली जाती है। यह सच है कि अफवाह आखिरकार अफवाह होती है।

10 Aug 2017

सुनूंगा तो अंतरात्मा की ही सुनूंगा

उसकी अंतरात्मा हमेशा उसे सही राह दिखाना चाही। लेकिन वह हर बार सुनी की अनसुनी कर देता। अंतरात्मा कचोटती रह जाती। इसी का फायदा उठाकर नेताजी की अंतरात्मा सुन लेती है। उसकी अंतरात्मा की आवाज को और सुनकर नेताजी के भाषण में उपयोग कर देती है। इस बात का भान नेताजी को भी नहीं है। वे भी असमंजस में हैं। पीए द्वारा लिखा गया भाषण माइक पकड़ते ही बदल कैसे जाता है? यह नहीं तो पीए समझ पा रहा है और ना ही नेताजी के समझ में आ रहा है। इसे आम आदमी तो भली भांति समझ ही नहीं पाता और ना ही अमल कर पाता है। इसलिए हर बार ठगा जाता है और नेताजी जीतता जाता है।
आम आदमी की तो अंतरात्मा भी आम आदमी की तरह ही भोली-भाली होती है। जिससे ना सियासी दाव-पेंच आता है और ना ही अवसरवादी नेता की तरह दल बदलना आता है। बस,उसे तो दो वक्त की रोजी-रोटी की कसरत आती हैं। जिसे पूरी करके अपने स्वामी और उसके परिवार का पेट भरती है और मतदान दिवस पर मतदान करना नहीं भूलती है। इसी तरह किसान की अंतरात्मा कर्ज माफी के लिए सरकार से पुकार करती है। परन्तु उसकी पुकार कुछ तो पहले से ही कर्ज तले दबी हुई होती है और रही सही पुकारते-पुकारते दम तोड़ देती है।

नित्य नेताजी के पास भांति-भांति अंतरात्माएं दुख,दर्द,दया-याचना लेकर पहुंचती हैं। तब नेताजी की अंतरात्मा है कि गहरी नींद में सोई हुई रहती है। जगाने पर भी नहीं जागती है। उसकी तो आंखे तब खुलती हैं,जब नेताजी की कुरसी खतरे में होती है। तब तो गहरी नींद आ रही हो,तब भी नहीं सोएंगी। बल्कि फट से जागकर जट से कुरसी बचाने की जुगत में जुट जाएंगी। कुरसी के लिए चाहे इस्तीफा ही क्यूं ना दिलवाना पड़े,दिलवाएंगी। नेताजी को उसी कुरसी पर फिर से बैठाने के लिए। चाहे दुश्मन से ही हाथ क्यूं ना मिलाना पड़े,मिलाएंगी। और रातों-रात सियासी खेल खेलकर सुबह तो शपथ दिलवा देती है।
यह सब देखकर उसकी अंतरात्मा उसे जगाती है,जो अपनी अंतरात्मा की आवाज हर बार सुन कर अनसुनी कर देता है। अब उसने भी ठान लिया है। सुनूंगा तो अंतरात्मा की ही सुनूंगा। अन्यथा किसी की नहीं सुनूंगा। अब उसकी तो अंतरात्मा प्रफुल्लित है,पर नेताजी की अंतरात्मा दुखी है। जिस अंतरात्मा की सुनकर वह नेताजी के लिए, यह सब कर रही थी। अब आगे नहीं कर पाएंगी। इसलिए दुखी होकर उसने नेताजी को सब कुछ साफगोई बता दिया है। जो नेताजी के नहीं समझ में आ रहा था। अब वह अच्छी तरह से समझ में आ गया है। पर अब समझने से क्या फायदा है? क्योंकि अब तो उसकी अंतरात्मा जो कुछ भी बताएंगी उसी को बताएंगी और नेताजी की अंतरात्मा सुनकर भी ना सुन पाएंगी। इसी मलाल में नेताजी और उसकी अंतरात्मा हैरान है।

लेकिन नेताजी ने भी ठान लिया है। अब तो सुनूंगा तो अंतरात्मा की सुनूंगा। चाहे कुछ भी करना पड़े। इसके लिए चाहे किसी की अंतरात्मा ही उधार क्यों ना लेनी पड़े। लेने के लिए मय ब्याज रकम चूकाऊंगा। या फिर उसकी की अंतरात्मा ही क्यों ना खरीदनी पड़े। जिसकी अंतरात्मा से नेताजी की कल तक राजनीति चमक रही थी।

1 Aug 2017

चाहकर भी नहीं दे सकता इस्तीफा

इनदिनों इस्तीफा देने का दौर चल रहा है। जो बिहार से यूपी जा पहुंचा है। मैं भी सोच रहा हूं क्यों ना इस्तीफा दे दूं और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं बटोर लूं। काफी दिन हो गए न तो कोई बधाई ही दे रहा और न कोई शुभकामना प्रेषित कर रहा है। एक वह दौर था जब इस्तीफा लिया जाता था तो इस्तीफा देना वाला मायूस हो जाता था। एक यह दौर है जिसमें इस्तीफा लिया नहीं दिया जा रहा है और इस्तीफा देने वाला प्रफुल्लित नजर आ रहा है। इसलिए मन कर रहा है क्यों ना मैं भी इस्तीफा दे दूं?

अपुन भी ना क्या-क्या सोच लेता है। मैं बुद्द्धू का बुद्द्धू ही रहा। अपुन इस्तीफा दे दे तो बाहर वाले तो दूर घरवाले भी बधाई नहीं देंगे। घरवालों को इस बात कि भनक भी लग जाए तो घर के अंदर घुसने तक नहीं दे। उनके बधाई देने की तो सपने में भी नहीं सोच सकता। इस्तीफा देने की जरा सी चर्चा भी कर दू तो साले के साले का साला भी हिदायत देने लगता है कि आपके दिमाग में इस्तीफे का विचार आखिरकार आया कैसे? ऐसा आइडिया दिया किसने। इस तरह के तमाम प्रश्रों की बौछार तब तक करता रहेंगा। जब तक उसके प्रश्रों की बौछार से मैं सराबोर नहीं हो जाऊं। वह हिदायत तो ऐसे देगा,जैसे मेरे इस्तीफे से उसके वहां पर भूचाल आ जाएंगा। और वह भूचाल की तबाही से तहस-नहस हो जाएंगा।
अपुन तो चाहकर भी इस्तीफा नहीं दे सकता है। अपुन कोई सीएम नीतीश कुमार तो है नहीं,जो इस्तीफा देते ही भाजपा की तरह घरवाले या बाहरवाले समर्थन का ऐलान कर देंगे और बहुमत साबित करने पर समर्थन भी दे देंगे। अपुन के लिए तो पड़ोसी गंगाराम भी समर्थन नहीं करने वाला। हां कभी अपुन का भी एक वक्त था। जब एक नहीं कई पड़ोसी समर्थन करने के लिए तैयार रहते थे। पर आज अपुन की स्थिति भी वैसी है,जैसे कांग्रेस की है। क्या करें? समय सबका आता है। आज उनका है और हो सकता कल भी उनका हो। लेकिन परसो हमारा हो।

इस्तीफा देने का भी एक सही वक्त होता है। क्योंकि की वक्त में बड़ी ताकत होती है। जो वक्त की ताकत को मध्यनजर रखकर इस्तीफा देता है। (जैसे कि सीएम नीतीश कुमार ने दिया है।) वहीं राजनीति में फिर से सत्ता पर काबिज हो जाता है। वह भी उसी पद पर जिस पर रहते हुए इस्तीफा दिया गया था। वैसे तो मैंने भी बहुत से लोगों को इस्तीफा देते हुए देखा हैं। सोच-समझकर इस्तीफा देने वाले भी देखे हैं और आनन-फानन में दिया गया इस्तीफा भी देखा है। लेकिन जिस तरह से सीएम नीतीश कुमार ने इस्तीफा दिया है। वह तो इस्तीफों के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। जिससे कि आने वाली राजनीतिक पीढ़ी को प्रेरणा मिल सके। महागठबंधन से जुड़ा हुआ नाता तोड़ते ही उनसे गठजोड़ कर लेना चाहिए। जिनसे फिर कभी नहीं जुड़ने की कसम खा ली थी।