इनदिनों इस्तीफा देने का
दौर चल रहा है। जो बिहार से यूपी जा पहुंचा है। मैं भी सोच रहा हूं क्यों ना
इस्तीफा दे दूं और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं बटोर लूं। काफी दिन हो गए न तो कोई बधाई
ही दे रहा और न कोई शुभकामना प्रेषित कर रहा है। एक वह दौर था जब इस्तीफा लिया
जाता था तो इस्तीफा देना वाला मायूस हो जाता था। एक यह दौर है जिसमें इस्तीफा लिया
नहीं दिया जा रहा है और इस्तीफा देने वाला प्रफुल्लित नजर आ रहा है। इसलिए मन कर
रहा है क्यों ना मैं भी इस्तीफा दे दूं?
अपुन भी ना क्या-क्या सोच
लेता है। मैं बुद्द्धू का बुद्द्धू ही रहा। अपुन इस्तीफा दे दे तो बाहर वाले तो
दूर घरवाले भी बधाई नहीं देंगे। घरवालों को इस बात कि भनक भी लग जाए तो घर के अंदर
घुसने तक नहीं दे। उनके बधाई देने की तो सपने में भी नहीं सोच सकता। इस्तीफा देने
की जरा सी चर्चा भी कर दू तो साले के साले का साला भी हिदायत देने लगता है कि आपके
दिमाग में इस्तीफे का विचार आखिरकार आया कैसे? ऐसा आइडिया दिया किसने। इस तरह के तमाम प्रश्रों की बौछार
तब तक करता रहेंगा। जब तक उसके प्रश्रों की बौछार से मैं सराबोर नहीं हो जाऊं। वह
हिदायत तो ऐसे देगा,जैसे मेरे
इस्तीफे से उसके वहां पर भूचाल आ जाएंगा। और वह भूचाल की तबाही से तहस-नहस हो
जाएंगा।
अपुन तो चाहकर भी इस्तीफा
नहीं दे सकता है। अपुन कोई सीएम नीतीश कुमार तो है नहीं,जो इस्तीफा देते
ही भाजपा की तरह घरवाले या बाहरवाले समर्थन का ऐलान कर देंगे और बहुमत साबित करने
पर समर्थन भी दे देंगे। अपुन के लिए तो पड़ोसी गंगाराम भी समर्थन नहीं करने वाला।
हां कभी अपुन का भी एक वक्त था। जब एक नहीं कई पड़ोसी समर्थन करने के लिए तैयार
रहते थे। पर आज अपुन की स्थिति भी वैसी है,जैसे कांग्रेस की है। क्या करें? समय सबका आता है।
आज उनका है और हो सकता कल भी उनका हो। लेकिन परसो हमारा हो।
इस्तीफा देने का भी एक
सही वक्त होता है। क्योंकि की वक्त में बड़ी ताकत होती है। जो वक्त की ताकत को
मध्यनजर रखकर इस्तीफा देता है। (जैसे कि सीएम नीतीश कुमार ने दिया है।) वहीं
राजनीति में फिर से सत्ता पर काबिज हो जाता है। वह भी उसी पद पर जिस पर रहते हुए
इस्तीफा दिया गया था। वैसे तो मैंने भी बहुत से लोगों को इस्तीफा देते हुए देखा
हैं। सोच-समझकर इस्तीफा देने वाले भी देखे हैं और आनन-फानन में दिया गया इस्तीफा
भी देखा है। लेकिन जिस तरह से सीएम नीतीश कुमार ने इस्तीफा दिया है। वह तो
इस्तीफों के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाना चाहिए। जिससे कि आने वाली
राजनीतिक पीढ़ी को प्रेरणा मिल सके। महागठबंधन से जुड़ा हुआ नाता तोड़ते ही उनसे
गठजोड़ कर लेना चाहिए। जिनसे फिर कभी नहीं जुड़ने की कसम खा ली थी।
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