27 Jun 2018

महंगाई,भ्रष्टाचार दोनों बेलगाम घोड़े


मुद्दा तो कुछ नहीं चाहता। जो कुछ चाहता है वह मुद्दईगिरी चाहता है। मुद्दा तो अवाम के बीच में रहना चाहता है। लेकिन मुद्दईगिरी उसे घसीटकर धरना  स्‍थल पर ले आता है। कुछेक मुद्दे तो बेचारे मुद्दों जैसे दिखते जरूर हैं,पर मुद्दे होते नहीं। उनको भी तिकड़म-अकड़म लगाकर मुद्दों की बिरादरी में शामिल कर देता है। एक बार मुद्दों की बिरादरी में शामिल हो गया फिर उसकी हालत भी धोबी के कुत्‍ते जैसी हो जाती है,जो न घर का न घाट का रहता है। 
महंगाई,भ्रष्टाचार
सच्‍चा मुद्दईगिरी वहीं है,जो मद्दे से निजात दिलाने से पूर्व उसे मीडिया से कवरेज करवाता है। विषय विशेषज्ञों से विश्‍लेषण करवाता हैं। विश्‍लेषण के दौरान तर्क-तर्क नहीं रहती और वितर्क-‍विर्तक हो जाती है। सच्‍चा मुद्दईगिरी वहीं है,जो लाठीजार्च की शुभ घड़ी में,अपनी टोपी किसी ओर के सिर पर रखकर रफूचक्‍कर हो लेता हैं। जिसके सिर पर टोपी होती है। उसकी लाठीचार्ज से भेंट होती है। लाठीचार्ज भेंटवार्ता में जिसकी भेंटपूजा ज्‍यादा होती है। वह लाठीचार्ज से ऐसा चार्ज होता है। फिर अस्‍पताल से ही डिस्‍चार्ज होता है।
कुछ भी कहों,जो भी किसी भी मुद्दे पर मुद्दईगिरी करता हैं। सबसे पहले अपना उल्‍लू सीधा करता है। मुद्दे का क्‍या है? उसे निजात मिले या ना भी मिले। उसका श्रेय मिलना चाहिए। श्रेय मिल गया तो मुर्दा व्‍यक्ति को भी मुद्दा बना देता है। उसको तो मुद्दे से मतलब है। फिर चाहे मुद्दा जिंदा हो या मुर्दा। लेकिन हो मुद्दा।
मुद्दों का क्‍या है? इनका आवागमन तो जारी रहता है। एक परलोक नहीं पहुंचता। उससे पहले दूसरे का आविर्भाव हो जाता है। मुल्‍क में मुद्दों की भरमार है। कोई इस पार है,तो कोई उस पार है और कई आर-पार है। जो आर-पार है,वे सदाबार हैं। जैसे महंगाई और भ्रष्‍टाचार। यह दोनों बेलगाम घोडे़ हैं। जिधर मन करता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। इनकी राह में जो भी आता हैं। उसे यह अपने पैरों तले कुचल देते हैं। इन पर तो वह भी सवार नहीं होता,जो अश्‍वरोही होता है। ये दोनों घोड़े तो चाबुक मारने पर भी काबू में नहीं आते,बल्कि बिदक जाते हैं। और इनसे तो मुद्दईगिरी भी डरता है। वह भी ऐसे मुद्दों पर मुद्दईगिरी करता हैं। जिन पर करना कुछ भी ना पड़े और पूरा का पूरा श्रेय खुद को मिले। इन बेलगाम घोड़ों पर लगाम तो अवाम ही लगा सकती है। अवाम के पास वह चाबुक है,पर उसका इस्‍तेमाल नहीं करती। जिस दिन चाबुक उठा ली। उस दिन ये घोड़े तो क्‍या इनके बाप भी हिनहिनाएंगे तक नहीं। मुद्दईगिरी का क्‍या है?इसलिए बस वो मौके की तलाश में रहता है। जैसे कोई तनिक सा अवसर मिला मुद्दईगिरी शुरू। खास बात यह कि मौका और अवसर ऐसा वैसा नहीं होना चाहिए।मौका ऐसा हो जिससे पूरा लाभ उसे ही मिले। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्‍या फायदा। उसे तो किसी ना किसी मुद्दे पर मुद्दईगिरी ही करना है। किसी भी मुद्दे का नेस्‍तनाबूद तो आप और हम ही कर सकते हैं।

20 Jun 2018

रायचंदों के वेश में छलचंदों से दूर रहे


इस मुल्‍क में फ्री कुछ मिले ना मिले लेकिन ‘राय’ अवश्‍य मिल जाती है। यहाँ ‘राय’ देने वाले रायचँदो की कमी नहीं हैं। ये तो राह चलते राहगीर को भी राय दे देते हैं। फिर चाहे इनकीराय’ में ‘राई’ भर भी राय नहीं हो। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन रायचँदो की  हैड़ ऑफिस या कोई ब्रांच ऑफिस नहीं होता हैं। और ना ही इन तक पहुंचने के लिए गूगल मैप की जरूरत हैं। ये तो हर नुक्‍कड़,गली,मोहल्‍ले,में अहर्निश विराजमान हैं।  ये हम-आपकी तरह नहीं हैं,जो मौका मिलने पर भी छोड़ देते हैं। ये तो मौके का भरपूर फायदा उठाते हैं तथा मौका-ए-वारदात पर ही राय का रायता फैला देते हैं।

अगर हमारे देश में रायचँद नहीं हो तो यह मानों देश ही नहीं  चले। देश की तो छोड़ों। अपना घर ही नहीं चले। आप मानों या ना मानों,आज अपना घर या देश चल रहा हैं ना तो रायचँदों की वजह से चला रहा हैं। किसी ओर कि तो कह नहीं सकता पर हमारे रायचँद की राय सर्वमान्‍य है। यह अलग बात है कि उसकी राय में राय कम राय का फैलाव इस कान से उस कान तक होता है।
अच्‍छा कुछ रायचँद तो राय देते-देते इत्‍ते एक्‍सपर्ट हो जाते हैं कि रायचँद से सलाहकार बन जाते हैं। सलाहकार बनने के बाद ये ‘राय’ नहीं, ‘सलाह’ देते हैं। वह भी शुल्‍क लेकर। इस भ्रम में मत रहना कि रायचँद से बने सलाहकार,सलाह के साथ उस राय के अच्छे-बुरे परिणाम में ‘साथ’ भी देते हैं। ये सलाह तो दे देते हैं लेकिन 'साथकभी नहीं देते। इन्‍हें तो दी गई सलाह की शुल्‍क से मतलब हैं। शुल्‍क है तो सलाह है। इनके यहाँ निःशुल्‍क तो अभिवादन भी नहीं हैं। शुल्‍क से तो आप इनके सीलिंग फैन की हवा भी ले सकते हो। एक गिलास पानी भी पी सकते हो।
बात रायचँदों की राय की हो रही थी तो उसी पर आते हैं। दरअसल रायचँद मानव के जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक राय देते हैं। इसमें कोई दोहराय नहीं हैं। बच्‍चा गर्भ में होता है तभी से दाई-माई दस तरह की राय इस तरह से देने लगती हैं जिन्‍हें सुनकर बच्‍चे कि माँ कन्‍फ्यूज हो जाती है। किस की राय माननी चाहिए और किसी को इग्‍नोर किया जाए। कुछ इसी तरह व्‍यक्ति के मृत्‍यु के उपरांत होता हैं। रायचँद चिता पर लेटे हुए मुर्दे को फूँकने की भी दस तरह की राय देने लगते हैं। उस वक्‍त मुखाग्‍नि देने वाला कन्‍फ्यूज हो जाता हैं और कन्‍फ्यूजन में मुख के बजाय पैरों की ओर मुखाग्नि दे देता हैं। 
वैसे हमारे मुल्‍क में तकरीबन रायचँद तो हम-सभी हैं लेकिन यहां रायचँदों के वेश में छलचँदों की भी कमी नहीं हैं। ये चँद चालाक छलचँद ही समाज के नाम पर समाजचँद,जाति के नाम पर जातिचँदधर्म के नाम पर धर्मचँदइंसानियत के नाम पर हैवानचँदबनकर बैठ हैं। इन चँदों की तो राय ही नहींपरछाई भी खतरे से कम नहीं। ये तो ऐसा दिग्‍भ्रमित करते हैं कि जिसके दिमाग में जंग लगी होती है वह भी इनकी राय की राह पर चलने को आतुर हो जाता हैं। इसलिए भाईयों,बहनों,देवियों,सज्‍जनों आपसे अपील है...। बस अपील है....। बाकी आपकी मर्जी।

12 Jun 2018

मानसून के पहले आने की चर्चा


केरल में मानसून समय से पहले आ गया है। यहां समय से पहले आने वाले को कौतूहल भरी निगाहों से निहारते हैं। अक्सर लेट आने वाला सरकारी कर्मचारी यदि किसी दिवस निर्धारित समय से पहले आ जाए, तो चर्चा का विषय बन जाता है। यदि ट्रेन निर्धारित समय से पहले पहुंच जाए, तो चर्चा का विषय बन जाती है। हमारे यहां तो मेहमान तय वक्त से पहले आ जाए, तो बवाल हो जाता है। एक दिन पहले कहां से आ टपका! एक दिन पहले आना इतना अटपटा लगता है, जैसे दूधवाला महीने से पहले पैसे मांगने आ गया हो। मानसून के पहले आने की चर्चा 

मौसम विभाग के मुताबिक, मानसून तीन दिन पहले आ गया। यहां तीन दिन पहले आना तो चर्चित विषय बन जाता है। बादलों तक को खबर हो जाती है। अबकी बार धरावासियों को उस नेता की तरह बेवकूफ बनाना मुश्किल है, जो चुनाव में बादलों की तरह गरजता तो खूब है, पर जीतने के बाद पांच साल में बरसता एक बूंद भी नहीं है। अबकी बार गरजने से पार नहीं पड़ेगी, बरसना पड़ेगा।
लेकिन मानसून जल्दी क्यों आ रहा है? सोचा, इसका जवाब मानसून से ही क्यों न पूछा जाए? बरसते हुए मानसून से ही पूछा- अबकी समय से पहले कैसे?
आप भी क्या पूछ रहे हो? पूछने वाली बात पूछिए। यह सुनकर मैं एक बार तो ठिठक गया। मैंने अपने आप से पूछा- कहीं मानसून को डिस्टर्ब तो नहीं कर दिया?
मैं बोला- पूछने वाली बात ही पूछी है। इस पर वह हंसने लगा। फिर गंभीर होते हुए बोला- धरावासियों की यही तो प्रॉब्लम है। समय से पहले आ जाएं, तो सवाल पूछते हैं, और लेट हो जाएं, तो जी भर कोसते हैं।.
मेरे मुंह से निकल गया। आप वक्त पर आ जाया करें। सवाल पूछने का और कोसने का सवाल ही नहीं रहेगा। यह सुनकर वह कुपित होते हुए बोला- पहले अपने गिरेबान में झांककर देखो। खुद वक्त के कितने पाबंद हो? कभी टाइम से कोई काम किया भी है? .मोहनलाल मौर्य.

7 Jun 2018

राय के रायचँद


इस मुल्‍क में फ्री कुछ मिले ना मिले लेकिन रायअवश्‍य मिल जाती है। यहाँ रायदेने वाले रायचँदो की कमी नहीं हैं। ये तो राह चलते राहगीर को भी राय दे देते हैं। फिर चाहे इनकी रायमें राईभर भी राय नहीं हो। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इन रायचँदो की  हैड़ ऑफिस या कोई ब्रांच ऑफिस नहीं होता हैं। और ना ही इन तक पहुंचने के लिए गूगल मैप की जरूरत हैं। ये तो हर नुक्‍कड़,गली,मोहल्‍ले,में अहर्निश विराजमान हैं। बस इन्‍हें तो एक बार सेवा का मौका भर मिल जाए।ये तो खुद मौके की तलाश में रहते हैं। ये हम-आपकी तरह नहीं हैं,जो मौका मिलने पर भी छोड़ देते हैं। ये तो मौके का भरपूर फायदा उठाते हैं तथा मौका-ए-वारदात पर ही राय का रायता फैला देते हैं।
राय के रायचँद
ऐसा नहीं कि जमाने के चलन के मुताबिक सोशल मीडिया पर आप-हम ही सक्रिय नहीं हैं। रायचँद भी ऑनलाइन उपलब्‍ध हैं। यहाँ भी यह ऑनलाइन रायचँद हैं। हालांकि सोशल मीडिया पर इनकी राय की पब्लिक पोस्‍ट एक के बाद एक आती-जाती रहती हैं। कुछ तो कुछेक लाइक,कमेंट लेकर चलती बनती हैं तो कुछ लाइक,कमेंट के बाद भी इतराती रहती हैं। इनकी भी अपनी-अपनी‍ किस्‍मत हैं। फेसबुक पर  रायचँद नित्‍य रायकी एक अलहदा राय के साथ आते हैं और देर रात तक ऑनलाइन उपलब्‍ध रहते हैं। वाट्सएप पर तो ये गुड मॉर्निंग,गुड आफ्टरनून,गुड़ इवनिंग,गुड़ नाइट भी किसी ना किसी तरह की राय के साथ ही करते हैं। इंस्‍टाग्राम पर तो इनकी बात ही निराली हैं। यहाँ इनकी कोई राय माने या ना माने इनको तो बतानी है तो बताते हैं। ये तो इत्‍ते शातिर है कि टि्वटर पर उसकी तय शब्‍द सीमा में भी घुसकर अपनी राय का ढिंढोरा पीटते रहते हैं।
अगर हमारे देश में रायचँद नहीं हो तो यह मानों देश ही नहीं  चले। देश की तो छोड़ों। अपना घर ही नहीं चले। आप मानों या ना मानों,आज अपना घर या देश चल रहा हैं ना तो रायचँदों की वजह से चला रहा हैं। किसी ओर कि तो कह नहीं सकता पर हमारे रायचँद की राय सर्वमान्‍य है। सर्वप्रिय है। यह अलग बात है कि उसकी राय में राय कम राय का फैलाव इस कान से उस कान तक होता है।
अच्‍छा कुछ रायचँद तो राय देते-देते इत्‍ते एक्‍सपर्ट हो जाते हैं कि रायचँद से सलाहकार बन जाते हैं। सलाहकार बनने के बाद ये रायनहीं, ‘सलाहदेते हैं। वह भी शुल्‍क लेकर। इस भ्रम में मत रहना कि रायचँद से बने सलाहकार,सलाह के साथ उस राय के अच्छे-बुरे  परिणाम में ‘साथभी देते हैं। ये सलाह तो दे देते हैं लेकिन 'साथ' कभी नहीं देते। इनकी दी गई सलाह से चाहे सुलह हो या विद्रोह हो। चाहे घोटाला हो या मोटापा हो। चाहे भ्रष्‍टाचार हो या कोई बेरोजगार हो। किसी पर अत्‍याचार हो। चाहे महँगाई की मार हो या चाहे बीमार हो। इन्‍हें तो दी गई सलाह की शुल्‍क से मतलब हैं। शुल्‍क है तो सलाह है। इनके यहाँ निःशुल्‍क तो अभिवादन भी नहीं हैं। शुल्‍क से तो आप इनके सीलिंग फैन की हवा भी ले सकते हो। एक गिलास पानी भी पी सकते हो।
बात रायचँदों की राय की हो रही थी तो उसी पर आते हैं। दरअसल रायचँद मानव के जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक राय देते हैं। इसमें कोई दोहराय नहीं हैं। बच्‍चा गर्भ में होता है तभी से  दाई-माई दस तरह की राय इस तरह से देने लगती हैं जिन्‍हें सुनकर बच्‍चे कि माँ कन्‍फ्यूज हो जाती है। किस की राय माननी चाहिए और किसी को इग्‍नोर किया जाए। कुछ इसी तरह व्‍यक्ति के मृत्‍यु के उपरांत होता हैं । रायचँद चिता पर लेटे हुए मुर्दे को फूँकने की भी दस तरह की राय देने लगते हैं। उस वक्‍त मुखाग्‍नि देने वाला कन्‍फ्यूज हो जाता हैं और कन्‍फ्यूजन में मुख के बजाय पैरों की ओर मुखाग्नि दे देता हैं। 
वैसे हमारे मुल्‍क में तकरीबन रायचँद तो हम-सभी हैं लेकिन यहां रायचँदों के वेश में छलचँदों की भी कमी नहीं हैं। ये चँद चालाक छलचँद ही समाज के नाम पर समाजचँद,जाति के नाम पर जातिचँद, धर्म के नाम पर धर्मचँद, इंसानियत के नाम पर हैवानचँद, बनकर बैठ हैं। इन चँदों की तो राय ही नहीं, परछाई भी खतरे से कम नहीं। ये तो ऐसा दिग्‍भ्रमित करते हैं कि जिसके दिमाग में जंग लगी होती है वह भी इनकी राय की राह पर चलने को आतुर हो जाता हैं। इसलिए भाईयों,बहनों,देवियों,सज्‍जनों आपसे अपील है...। बस अपील है....। बाकी आपकी मर्जी।

6 Jun 2018

सियासी तपिश से बेहाल लोकतंत्र


समझ में नहीं आता चुनावीं मौसम में ही ईवीएम से गड़बड़ियों का भूत क्यों निकलता हैपहले कहां मर जाता हैं। पहले क्याउसे भी कोई भूत पकड़े रखता है,जो चुनावी मौसम में छोड़ देता है। लोकतंत्र हैंहो सकता है। गड़बड़ी को गड़बड़ी पकड़ ले। कान में फूंक मार दे,अभी कहां निकल रही है। बाहर तो भीषण गर्मी पड़ रही है। टेंपरेचर हाई हो रहा है। आग बरस रही है।  मतदान के दिन निकलेंगे। ठीकरा किसी के भी सिर पर फोड़ देंगे।सियासी तपिश से बेहाल लोकतंत्र

ईवीएम से गड़बड़ियों  का भूत निकलता है तो निकले। लेकिन ठीकरा तो अपने सिर पर फोड़े।सियासती एक दूसरे के सिर पर ठीकरा फोड़ते हैं तो बीच-बचाव में लोकतंत्र को आना पड़ता है। बीच-बचाव में सियासती तो अपना सिर बचा लेते और लोकतंत्र का सिर फूट जाता है। लोकतंत्र का सिर फूटता है तो लोकतंत्रवादी भी मरहम पट्टी नहीं करवाते।
पिछले दो-तीन साल में ईवीएम जितनी बदनाम हुई है। उतनी तो मुन्नी भी बदनाम नहीं हुई होगी। कभी छेड़खानी के आरोप लगे है तो कभी इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठे हैं। लेकिन लू पहली बार लगी है। इन दिनों मौसमी टेम्परेचर इतना बढ़ रहा है कि पंखे,कूलर व एसी गले में फांसी का फंदा लटकाए हुए हैं। इनसे भीषण गर्मी बर्दाश्त नहीं हो रही हैं। यह तो गर्मी से इतने तंग आ गए हैं। इनका बार-बार खुदकुशी करने का मन करता है। लेकिन हर बार घंटा आध घंटा स्विच ऑफ करके बचा लिया जाता है।  
यह तो शुक्र है की ईवीएम के लू ही लगी। गर्मी से तंग आकर खुदकुशी नहीं की। वरना सवाल ही नहीं उठतेसुलगते भी। जब सवाल सुलगते हैं तो आग उगलते हैं। उगलती आग किसी को भी निगल सकती। मौसमी टेम्परेचर की तरह सियासी टेम्परेचर भी इतना बढ़ रहा हैं। जिससे लोकतंत्र को मुंह पर दुपट्टा बांधकर चलना पड़ रहा है।
अभी तो  सियासी लू 2019 तक तीव्रगति से चलेंगी। संभावना है आमचुनाव तक तो सियासी टेम्परेचर अड़तालीस डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुँच जाएगा। अड़तालीस डिग्री सेल्सियस में लोकतंत्र का क्या हाल होगाइसका अंदाजा भी नहीं लगा सकते। फिर भी लोकतंत्र जनतंत्र के लिएअड़तालीस डिग्री सियासी सेल्सियस  रेगिस्तान में सेना के जवान की तरह तैनात रहता है।

ईवीएम लू की चपेट में आई  तो उसकी दूसरी ईवीएम बहन उसकी जगह आ गई। कल को लोकतंत्र लू की चपेट में आकर बीमार पड़ गया तो इसकी जगह कौन आएगालोकतंत्र के तो कोई भाई-भतीजा भी नहीं है,जो आ जाएगा। सियासत की तरह कुटुंब परिवार भी नहीं है,जो पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत में मिली सियासत की सीढिया चढ़कर चला आएंगा।  लोकतंत्र तो इकलौता है। 
सच पूछिए तो वे भी पूछने नहीं आएंगे,जो बात-बात में कहते हैं,लोकतंत्र खतरे में हैं। लोकतंत्र की हत्या हो रही है। जब वाकई में खतरे में होता है ना तब कोई भी खतरा मोल नहीं लेता। सब पतली गली से निकल लेते हैं। लोकतंत्र में लोककी हत्या हो जाती है। लेकिन तंत्रके खरोच भी नहीं आती हैं।

3 Jun 2018

मंत्रीजी तो बिजी है


माननीय के मंत्री बनने की अभी घोषणा ही हुई है। अभी तो शपथ भी नहीं ली। पदभार भी नहीं संभाला। आप चले आए मंत्रीजी से मिलने। न गुलदस्‍ता लाए और न मिठाई। खाली हाथ बधाई देकर श्रीगणेश करेंगे तो अशुभ होगा श्रीमानजी! ये तो मंत्रीजी है। खाली हाथ मिलेंगे तो दुआ-सलाम भी कबूल नहीं होगी। आश्‍वासन का तो सवाल नहीं। जो मिल जाएंगा।
‘आप कौन है भाई साहब!’ मंत्रीजी तो बिजी है
‘मैं मंत्रीजी का निजी सचिव हूं और अभी बहुत बिजी हूं। आज तो मंत्रीजी भी बिजी हैं। कल शपथ लेंगे। परसों पदभार संभालेंगे। उसके बाद से कार्यकर्ता व नागरिकों की ओर से जगह-जगह अभिनंदन समारोह होंगे। समारोह भी क्षेत्रीय तथा गैर क्षेत्रीय होंगे। अब मंत्रीजी क्षेत्रीय नहीं रहे। प्रादेशिक हो गए हैं। राजनैतिक समारोह तो होंगे ही। समाज स्‍तरीय भी होंगे। नेताजी मंत्री बनने से पूर्व अपने समाज के उच्‍चस्‍तरीय नेता रहे है। उनके समाज वाले भी तो मंत्रीजी का मंत्री स्‍तरीय सम्‍मान करेंगे न। अभी तो कई दिनों तक मंत्रीजी फूल मालाओं से लदे रहेंगे। बाजे-गाजे से चलेंगे। चलते-चलते ही दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करेंगे। लोगों से मिलेंगे-जुलेंगे। कोई हाथ मिलाएंगा,कोई गले लगेगा। कोई दूर से ही हाथ हिलाकर बधाई, शुभकामनाएं प्रेषित करेंगा। जनसभा स्‍थल पर सम्‍बोधित करेंगे, वादे करेंगे। तालिया बजेगी। जय-जयकार होगी। जिंदाबाद के नारे लगेंगे। कार्यकर्ता सेल्‍फी लेंगे। सेल्‍फी फेसबुक पर टांक कर लाइक कमेंट्स बटोरेगे। ये देखकर मंत्रीजी मन ही मन प्रमुदित होंगे। ऐसा कीजिए श्रीमानजी! अब तो आप जाए और फिर कभी आइएंगा। अब तो मंत्रीजी से मिलने-जुलने का सिलसिला चलता ही रहेगा। और हां मेरी बात का बुरा मत मानिएंगा। मैं तो मंत्रीजी के आदेशों की अनुपालन कर रहा हूं। अनुपालन करना ही मेरी ड्यूटी है। मैं अपनी ड्यूटी में जरा सी भी कोताही नहीं बरता।’
यह सुनकर श्रीमानजी ने औपचारिक रस्‍म-अदायगी में विदाई लेने से अच्‍छा बिना मिले-जुले ही घर आना ही मुनासिब समझा। वे घर चले आए। मंत्रीजी की शपथ,पदभार,अभिनंदन के ढाई वर्ष उपरांत वह फिर जा पहुंचा। रोज मंत्रीजी से ना जाने कि इतने ही मेल-मुलाकात करने आते हैं। किस-किस को याद रखे। कब तक रखे? क्‍यों रखे? जरूरत नहीं। जिन्‍हें जरूरत है वे हमें याद रखें। यहीं सोचकर निजी जी ने परिचय पूछा। ‘मैं मंत्रीजी के क्षेत्र का ही एक वोटर हूं। नेताजी तो मंत्री बनते ही फूल गए और एक वोटर से किए वायदे भूल गए। विकास की राह देखते-देखते गांव के आम रास्‍ते सिकुड़ गए। पेयजल संकट से गले सूख गए। सरकारी अस्‍पताल अभाव में फोड़ा,फुंसी भी घाव बन गए। समय पर इलाज ना होने से कई असमय चल बसे। सरकारी स्‍कूल के अभाव में बच्‍चें अपना उज्‍ज्‍वल भविष्‍य दो कोस पैदल चलकर बना रहे हैं। और निजी स्‍कूल वाले लूटमारी का उत्‍सव मना रहे हैं। जिसमें अभिभावक शिरकत करके लूट रहे हैं। फिर चाहे शिरकत करने के पीछे मजबूरी हो या प्रतिस्‍पर्धा। बिजली के तो पूछिए मत। बिजली तो मनचली हो रही है। इस मनचली बिजली ने किसान को दुखी कर रखा है। अब और क्‍या बताए और क्‍या ना बताए? चुनावीं घोषणा पत्र तो हमें पॉश इलाके का सपना दिखाता हैं। हमारे गांव के तो भाग्‍य विधाता मंत्रीजी ही है। अंदर जाने दीजिए और गांव का भाग्‍य चमकाने में सहयोग कीजिए। ग्रामवासियों की ओर से दुआएं मिलेगी।’
 
‘देखिए वोटरजी! पहले तो जल-पान कीजिए। उसके बाद संवाद कीजिए। सभी वायदे याद हैं। वे तो कब के ही पूरे हो गए होते। बीच-बीच में कभी पंचायतीराज चुनाव,कभी शहरी निकाय चुनाव तो कभी उप चुनाव जो आ जाते हैं। उप चुनाव तो महाचुनाव होता है। इसमें नींद हराम हो जाती है। पार्टी की नाक का सवाल जो रहता है, जिससे बचाने के लिए दिन-रात उसी क्षेत्र में डेरे डाले रहना होता है। अब जल्‍द ही वायदे पूरे होंगे। ऐसा है कि आज तो मंत्रीजी बिजी हैं। कल दौरे पर रहेंगे। परसों मीटिंग में रहेंगे और उसके बाद निजी कार्य से बाहर रहेंगे। इसके बाद कभी भी आइए,स्‍वागत है आपका।’ यह कहकर निजी सचिव मंत्रीजी की कैबिन में चला गया।
वोटरजी मुंह लटकाए चला आया। कुछ समय बाद एक रोज खुद के पुत्र विकास के ‘विकास’ के लिए जा पहुंचा। निजी सचिव जी से बोला,‘पुत्र का शारीरिक एवं मानसिक विकास तो गया है। लेकिन आर्थिक विकास मंत्रीजी की इनायत से हो जाए तो विकास खुद का एवं अपने बाल-बच्‍चों का विकास अच्‍छे से कर लेगा।’ सुनकर निजी सचिव वहीं बोला, जो बोलता आया था, ‘आज तो मंत्रीजी बिजी हैं। अंदर कॉन्‍फ्रेंस चल रही है। कल चुनावीं रणनीति की मीटिंग। परसों से दिल्‍ली जाएंगे। टिकट पर तलवार लटक गई है। परसों के बाद से तो क्षेत्र में रहेंगे। चुनाव नजदीक है। ऐसा कीजिए,वहीं मुलाकात कर लीजिए। और हां चुनाव में मंत्रीजी का ध्‍यान रखिएगा।’
उसके बाद जाने कितने परसों निकल गए मंत्रीजी नहीं आए। लगता है टिकट पर तलवार लटक गई होगी। इसलिए दिल्‍ली में ही अटक गए। अब चाहे अटके, चाहे वोट के लिए दर-दर भटकें। वादे तो कब के ही हवाई किले में कैद हो गए। अब तो कम ही टाइम बचा है।  एक बार फिर से वायदे,घोषणाओं की मुनादी में। अब चाहे निजी जी बिजी रहे या मंत्रीजी। चुनावीं घोषणा और पुत्र विकास का ‘विकास’ तो होने से रहा।
चुनावीं दौर में दौरा करते हुए एक रोज मंत्रीजी वोटर के घर पधारे। गृह प्रवेश से पूर्व निजी सचिव जी ने मंत्रीजी के कान में वोटर जी की शिकवा-गिलवा बता दी। मंत्रीजी ने निजी सचिव जी की कानाफूसी सुनकर जाते ही रूठे वोटर को मनाने के लिए गले लगा लिया। यह देखकर वोटरजी शिकवा-गिलवा भूल गया और मंत्रीजी की पार्टी का झंडा उठा लिया। जिंदाबाद! जिंदाबाद! के नारे लगाने लगा। ताकि अबकी बार दिखाए गए सुनहरे स्‍वप्‍न साकार हो जाए। और गांव का भाग्‍य चमक जाए। गांव का भाग्‍य तो पता नहीं कब चमकेगा। लेकिन एक बार फिर से मंत्रीजी का भाग्‍य चमक गया और वे भारी बहुमत से विजयी होकर मंत्री बन गए। और मंत्री बनते ही पूर्व की भांति बिजी हो गए।