मानसून की मेहरबानी से झमाझम बारिश हो रही
है। सड़क जल से लबालब है। उसमें बच्चे कागज की कश्ती तैरा-तैराकर धमाचौकड़ी मचा रहे हैं। मैं खिड़की में से इस नैसर्गिक
सौंदर्य को निहार रहा हूँ। रामू काका साइकिल पर चले आ
रहे है। वे एकदम से रपटकर इस तरह गिरते हैं, जैसे गठबंधन से बनी सरकार एकाएक टूटकर गिर जाती है। यह
देखकर बच्चे खिलखिलाने लगते हैं। काका को उठाने के लिए बच्चे हाथ बढ़ाते हैं उससे
पहले वह खुद ही लड़खड़ाते हुए चल देता है। इनके पीछे चली आ रही आंटी के हाथ से छाता ऐसे उछल कर गिरा, जैसे कि उसका भी मन झमाझम बारिश में भीगने को मचल रहा हो।
यह तो शुक्र है कि एक बच्चे ने झट से पकड़कर छाता आंटी को सौंप दिया। अन्यथा छाता
झमाझम बारिश का पूरा आनंद लेता। इसी तरह सब्जी वाले की रेहड़ी से आलू, टमाटर,टिंडे झमाझम
बारिश में भीगने के लिए अपने ऊपर रखी खाली बोरी से बाहर
निकल रहे थे।
इस दरमियान एक बच्चे की कश्ती डूबने लगती है। वह अपनी डूबती कश्ती को उसी तरह बचाने का
पुरजोर प्रयास करता है। जिस तरह लोकतंत्रवादी लोकतंत्र को बचाने के लिए प्रयास
करते हैं। उसका प्रयास उसी भाँति विफल हो जाता है,जिस भाँति एक
लोकतंत्रवादी का हो जाता है। बच्चा थोड़ी देर
तो रोता है। उसके बाद बच्चों के संग नई कागज की कश्ती बनाकर धमाचौकड़ी मचाने में
मशगूल हो जाता है।
यहां से मेरी नज़र एकाएक दीनू काका पर जा टिकती हैं, जो छत से टपकते पानी से उसी
तरह परेशान है। जिस तरह लोग दिन-ब-दिन बढ़ती महंगाई से परेशान हैं। उसके सारे
बिस्तर भीग गई गए हैं। और खुद भी भीग गया है। जिस तरह महंगाई का कोई हल नहीं निकल पा रहा है। उसी तरह दीनू काका को इस झमाझम
बारिश में छाता नहीं मिल पा रहा है। सीबीआई की तरह घर के सभी सदस्य छाते को खोजने में लगे हुए हैं। छाता है कि
किसी कुख्यात अपराधी की तरह न जाने कहां छुपा हुआ
है। घर के बीहड़ इलाके तक में ढूंढ लिया पर हाथ नहीं लग रहा। छाता मिल जाए तो छत का जायजा कर आए। जायजा हो जाए तो कुछ ना
कुछ जुगाड़ ही कराए।
यहीं से मेरी नजरें उनके पड़ोसी की रसोई पर
जा टिकती हैं। भाई साहब जी झमाझम बारिश में इस तरह से कढ़ाई
में से गरमा-गरम पकौड़ी निकाल कर भाभी जी को
खिला रहे थे। जिन्हें देखकर कर मेरे
भी मुंह में पानी आ गया और पकौड़ी खाने के लिए जी ललचाने लगा। लेकिन ललचाता जी उस
लड़की को देखकर झूमने लगा, जो अपनी बालकनी में से हाथ
निकालकर झमाझम बारिश के संग झूम रही थी। बौछारे उसके तन-मन को छूकर इतनी
प्रफुल्लित हो रही थी कि धरा पर ही नहीं गिर रही थी।
खिड़की से दृश्य बदलता है देख रहा हूँ कि
मास्टर आनंदीलाल जी कुर्सी पर बरामदे में बैठे हुए हैं और अखबार में देश-दुनिया की सैर पर हैं। देश-दुनिया की सैर सपाटे के
बीच-बीच में झमाझम बारिश को इस कधर निहार रहे हैं, जैसे की चालान काटते हुए ट्रैफिक
हवलदार निहारता है। मास्टरजी के सामने रहने वाली शारदा काकी के घर में भरा बारिश का पानी उसी तरह नहीं निकल रहा है। जिस तरह देश से भ्रष्टाचार नहीं निकल रहा है। वह उसी तरह
बारिश के पानी को घर से बाहर निकालने में जुटी हुई है। जिस तरह से एसीबी वाले
भ्रष्टाचार को निकालने में लगे रहते हैं। पर वह जितना पानी निकाल रही है उससे
ज्यादा घुस रहा है।
मैं खिड़की से देख रहा हूं कि झमाझम बारिश थम
चुकी है। लेकिन बच्चें अब भी धमाचौकड़ी में मशगूल हैं। दीनू काका छत पर आ पहुंचा
है। मास्टर जी अखबारी
देश-दुनिया की सैर कर पलंग पर खर्राटे भर रहे हैं। पकौड़ी वाले भाई साहब जी कढ़ाई
मांज रहे हैं और भाभी जी छत पर जाकर सेल्फी दर सेल्फी ले रही है। फेसबुक पर
चिपकाने के लिए। बालकनी वाली लड़की बालकनी से गायब है।शारदा काकी सरपंच को कोस रही है। उसने प्रधानमंत्री आवास का
आश्वासन दिया था लेकिन बनवाया नहीं। और मैं गरमा-गरम चाय के मजा ले रहा हूँ।
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