6 Mar 2019

खुले में शौच मुक्त की धुंधली तस्वीर


यह एक ऐसे गाँव की खुले में शौच मुक्त की तस्वीर हैं। जिसे स्वच्छ भारत मिशन का चश्मा लगाकर देखते हैं तो खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) स्वच्छ दिखाई देती है। चश्मा उतारकर देखते है तो धुंधली दिखाई देती है। यह स्वच्छ भारत मिशन के चश्मे का कमाल है या हमारी दृष्टि कमजोर है। हम भ्रमित हो गए। सोचा क्यूँ ना खुद का चश्मा लगाकर देखा जाए। भ्रम दूर हो जाए।
हमने हमारा चश्मा लगाकर देखना आरंभ किया। गाँव की चारों दिशाओं में खुले में शौच मुक्त के बड़े-बड़े बोर्ड लगे हुए थे। जिन पर लिखा हुआ था,'जरा मुस्कुराइए,आप खुले में शौच से मुक्त हैं।' हम भी मुस्कुराए। चलो कम से कम बोर्ड पर तो खुले में शौच से मुक्ति मिली। और लगे बोर्डो की छवि  भी स्वच्छ दिखी। लगे बोर्डों को देखकर यह तो यकीन हो गया था कि हमारी दृष्टि कमजोर हो गई है। चश्मे का नंबर कभी भी बढ़ सकता है। एक नया चश्मा ऑप्टिकल शॉप से आँखों पर चढ़ने के लिए झाँक भी रहा था। उसे देखकर मेरे नाक पर बैठकर दोनों कान पकड़े हुए मेरा चश्मा दुत्कारा था। उससे कह रहा था,'अबे ताकना-झांकना बंद कर,अभी तो चार साल ही बीते है। सरकार भी पाँच साल में बदलती हैं। अभी तो सालभर बाकी है। जरूरी नहीं सालभर बाद भी अगले पाँच वर्ष के लिए मैं ही यथावत रह जाऊं।
यहाँ से चलकर हमने घरों पर दूर से ही नजर डाली तो स्वच्छ भारत मिशन का 'एक कदम स्वच्छता की ओरके बजाय दो कदम आगे दिखाई दिए। स्वच्छ भारत मिशन के तहत घर-घर में शौचालय बने हुए थे। उन पर लाभार्थी का नाम और अनुदान राशि स्पष्ट लिखी हुई थी। लाभार्थियों ने अनुदान का भुगतान कर लिया हैं  या नहीं यह तो उनकी बैंक पासबुक ही बता सकती है। आजकल किसी अजनबी को बैंक पासबुक दिखाना यानी कि खाते में से पैसे उड़ाना है। ऐसा बैंक वालों ने लाभार्थियों को बोल रखा हैं। बैंक वालों ने बोला है तो ठीक ही बोला हैं। क्योंकि लॉटरी के नाम पर बहुत से लूट चुके हैं।
लेकिन हमने कई शौचालयों को बिल्कुल नजदीकी से देखा तो 'स्वच्छ भारत मिशनके कदम डगमगाते हुए दिखे। मन में विचार कौंधा। ऐसे कैसे हो सकता हैशायद चश्मे पर धूल चढ़ी गई होगी है। चश्मे को रुमाल से साफ किया,फिर देखा। तो भी कदम डगमगाते हुए दिखे। हम हैरत में पड़ गए। यह हमारी आँखों का धोखा है या हमारा चश्मा मजे ले रहा है। हमने एक नौजवान का नौजवान चश्मा लगाकर देखा,एक जने के शौचालय में उपले शोभा बढ़ा रहे थे। दूसरे के में बकरी मिमिया रही थी। तीसरे के में तो सीट ही नहीं थी। चौथे के शौचालय तो था पर गड्ढा नहीं था। पाँचवें का सब कुछ ही गड़बड़ था। यह पाँच ही नहीं। बल्कि ऐसे पाँचों की संख्या पाँचों सौ से भी ऊपर दिखी। इनके शौचालय शौच के लिए न उपयोग होकर बाकी सभी कार्यों में उपयोग हो रहे थे। 
ऐसे भी दिखे जिनके घर में सुविधायुक्त शौचालय होते हुए भी वे रोज मुँह में नीम की दातुन दबाएं और हाथ में लोटा लिए खुले में खुलेआम शौच कर खुले में शौच मुक्त की धज्जियां उड़ा रहे थे। जब धज्जियां उड़ती है ना तब रंगीन तस्वीर भी ब्लैक एंड वाइट लगती है। यह तो फिर भी धुंधली दिख रही थी। जिन आँखों से धुंधली तस्वीर दिख रही थी। उसके  धुंधलेपन का मुझे तो राज समझ में आ गया था। पर उन समझदारों को कौन समझाएगा? जिनके सुविधायुक्त शौचालय होते हुए भी उपयोग नहीं कर रहे। मेरा मानना है कि कोई भी योजना हो। वह सरकार के बलबूते से ही फलीभूत नहीं होती। आमजन की भागीदारी ही उसे फलीभूत करती है।

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