उसे प्रकृति से प्रेम है। यह प्रदर्शित करने के लिए,रोज फेसबुक पर लाइव आता है। प्रकृति के बजाय अपने बारे में ज्यादा बताता है। मैंने यह किया। वह किया। एक ही बात को दस बार दोहराता है। फिर भी यह समझ में नहीं आता है कि आखिरकार कहना क्या चाहता है। मगर उसके हर वक्तव्य का एक ही तात्पर्य होता है कि मुझे प्रकृति से प्रेम है।
प्रकृति है कि उसे लाइक तक नहीं करती। प्रकृति का कहना है कि उसने मेरे लिए किया ही क्या है,जो कि उसे अपने लायक समझू। वह तो नालायक है। उसने जिंदगी में कभी एक पौधा तक लगाया नहीं और फेसबुक पर पूरा का पूरा उद्यान दिखा देता है। यह देखिए, मेरे द्वारा लगाया गए उद्यान का मनोरम दृश्य। दूसरों को पेड़-पौधे नहीं काटने की नसीहत देता है और खुद लकड़ियों का व्यापार करता है। फेसबुक पर जल व्यर्थ मत बवाइए का हैशटैग लगाकर जल बचाने की पहल करता है। जबकि खुद ट्यूबवेल चलाकर स्नान करता है। ऐसे प्रेमी से प्रेम करने से अच्छा है कि चारों ओर फैल रहे पर्यावरण प्रदूषण को पीकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लूं। लेकिन मुझे अपने लिए नहीं,इस सृष्टि के लिए जीना है। क्योंकि सृष्टि है तो मैं हूँ और मैं हूँ तो सृष्टि है। इसके जैसे प्रेमी तो न जाने कितने आए और कितने गए। ऐसी प्रवृत्ति के लोग सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए ही फेसबुक पर लाइव आते हैं। रियल लाइफ में कभी लाइव नहीं आते हैं।
यह प्रेमी को थोड़ी पता है। प्रकृति उसे पसंद नहीं करती है। पता होता तो अब से पहले सोशल मीडिया पर बवाल खड़ा कर देता। मैं प्रकृति को अपने आप से भी ज्यादा चाहता हूँ। फिर भी इग्नोर कर रही है। जबकि मैंने प्रकृति के लिए क्या नहीं किया। धरना दिया। प्रदर्शन किया। ज्ञापन सौंपा। रैलियां निकाली। स्कूल व कॉलेजों में सेमिनार आयोजित किए। अखबारों में प्रेस विज्ञप्ति देकर बिगड़ते पर्यावरण पर चिंता व्यक्त की। अखबार में छपी खबर को फेसबुक पर चिपकाकर आमजन को जागरूक किया। नहीं मैं सम्मान का भूखा हूँ और नहीं ही पुरस्कार का प्यासा हूँ। भारत का वासी हूँ। प्रकृति का ही सच्चा साथी हूँ। कुछ इस तरह से फेसबुक पर लाइव आकर बकवाद करता।
पर्यावरण दिवस की पूर्व संध्या पर तो प्रकृति प्रेमी अपना प्रेम उसी तरह इजहार करता है। जिस तरह एक प्रेमी वैलेंटाइन डे पर करता है। प्रकृति के बजाय फेसबुक लाइव के संग बिताए सुनहरे पलों को याद करते हुए लोगों से फरियाद करता है। प्रकृति संकट में हैं। समय रहते नहीं बचाया गया तो बहुत भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। नदियों का गला सूख गया है। कुआँ बावड़ी तो कब की ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुकी हैं। पहाड़ तिल-तिलकर अपनी जान गवा रहे हैं। जल रसातल में डूबकर मरने को तैयार बैठा है। यह फरियाद भी इस तरह से करता है,जैसे कि देश का प्रधानमंत्री देशवासियों को संबोधित कर रहा हो। इस दिन प्रकृति के संग जीने मरने की झूठी कसमें तो इस तरह से खाता है,जैसे कि गाजर मूली खा रहा हो। मगर प्रकृति इसकी रग-रग से वाकिफ है।
भले ही वह खुद के भले के लिए फेसबुक पर लाइव आता हो। मगर हम तो पर्यावरण दिवस के सिवाय प्रकृति के बारे में कभी सोचते भी नहीं है। उससे सुख दुख भी नहीं पूछते हैं। किस हालात में जी रही है। जबकि प्रकृति हमारा पूरा ख्याल रखती है। तो क्यों नहीं इस पर्यावरण दिवस पर प्रण ले कि हम जब तक जिएंगे, तब तक प्रकृति के खरोंच भी नहीं आने देंगे।
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