27 Feb 2020

आरोप-प्रत्यारोप


मेरे अड़ोस में अतिभाषी और पड़ोस में कटुभाषी रहता है। दोनों के आचार-विचार कभी मेल नहीं खाते हैं। अकेले में ही नहीं,मेले में भी मेल नहीं खाते हैं। एक रोज भूल से खा गए। लेकिन खाने के थोड़ी देर बाद ही दोनों को कजबहस की उल्टी होने लगी। उल्टी भी इतनी बार हुई,जिसकी कोई गिनती नहीं। दोनों की उल्टी से कुभाषाई दुर्गंध इतनी आ रही थी कि उनके समीप जाने का मन नहीं कर रहा था। दूर से ही समझाइश के पानी का ग्लास लिए खड़ा था। मगर वो ग्लास को पकड़ नहीं रहे थे।
मैं दुविधा में पड़ गया। दुविधा में सुविधा भी नहीं सूझती है। क्या किया जाएअंततोगत्वा मुझे उनके समीप जाना ही पड़ा। नहीं जाता तो दोनों हाथापाई की दवाई खाकर मर जाते। मर जाते तो मुझे गवाही देनी पड़ती। मैं किसकी गवाही देता। अतिभाषी की देता,तो कटुभाषी के परिजन कड़वे वचन सुनाते और कटुभाषी की देता,तो अतिभाषी के परिजन खरी-खोटी सुनाते। जिन्हें सुनकर मेरे परिजन कुपित हो जाते हैं।  कुपित होने के बाद कुछ भी घटित हो सकता है। घटित होने के बाद अफसोस के सिवाय कुछ कर नहीं सकते। कुछ करें,तो करनी की भरनी भुगतनी पड़ती है। जिसके लिए मैं कभी अग्रणी नहीं रहता।
जाते ही दोनों को संभालने लगा,पर संभलने में आए नहीं। संभलने में नहीं आए तो मैंने अपने मित्र मितभाषी को बुलाया। जिसने कटुभाषी को और मैंने अतिभाषी को संभाला। जब दोनों कि कजबहस की उल्टियां बंद हुई। तब मैंने दोनों से पूछा,‘क्या खाए थे,जो कि कजबहस की उल्टी हो गई।’ दोनों एक साथ बोले,‘आचार-विचार खाए थे।’ मैं बोला,‘आचार-विचार खाने से भी भला कभी किसी के उल्टी हुई है।’
यह सुनकर अतिभाषी बोला,‘इस कटुभाषी का आचार दूषित था।’ कटुभाषी बोला,‘ मेरा आचार नहीं,इस अतिभाषी का विचार दूषित था।’ 
दोनों एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने लगे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आचार दूषित था या विचार। आचार-विचार में से थोड़ा बहुत बचा-खुचा भी नहीं था। जिन्हें सूँघ कर पता लगा लेते कि आचार दूषित है या विचार। 
मैंने अतिभाषी से पूछा,‘तेरा विचार कब का था।’
वह तपाक से बोला,‘ मेरा विचार तो एकदम ताजा था। इसका ही कई दिनों का आचार था।’
‘मेरे आचार को कई दिनों का बताने वाले सच-सच क्यों नहीं बताता है। मेरा विचार कई दिनों का था। तेरे विचार का एक ग्रास खाते मुझे आभास हो गया था कि दूषित है। पर मैं मन मसोसकर इसलिए खाने लग गया था कि किसी के खाने में मीनमेख निकालना शोभा नहीं देता है। अगला बुरा मान जाता है।’
यह कटुभाषी ने कहा,तो अतिभाषी से बगैर बोले रहा नहीं गया और बोला,‘सच तो यह है कि तेरे आचार में न सभ्यता का नमक था,न संस्कृति की मिर्च-हल्दी और न संस्कार का तेल था। न जाने कब से तूने अपने दिमाग़ी डिब्बे में बंद कर रखा था। मैं तो डिब्बे का ढक्कन खोलते ही समझ गया था यह तो बहुत पुराना है। पर मैं तो इसलिए खा लिया था कि तू मेरा विचार बड़े चाव से खा रहा था।’
कटुभाषी बोला,‘मैं और तेरा विचार...। और वह भी बड़े चाव से। कदाचित नहीं। अभी बताया नहीं मन मसोसकर खाया था। तेरे विचार में सुविचार का मसाला तो रत्ती भर भी नहीं था।’ 
दोनों के आरोप-प्रत्यारोप से मुझे प्रतीत हो गया था कि दोनों के ही आचार और विचार दूषित थे। जिन्हें खाने से दोनों को कजबहस की उल्टी हुई थी। मैंने दोनों को समझाया और कहा,‘एक-दूसरे का खाना खाने से पहले अच्छी तरह से देख लेना चाहिए। खाना शुद्ध है या नहीं।’
                                                                मोहनलाल मौर्य

21 Feb 2020

व्यंग्य जगत का चमकता सितारा मोहन लाल मौर्य


मनुष्य अपने भावों को शब्दों के जरिए प्रस्तुत करता है। शब्द को हिंदी काव्यशास्त्र में शक्ति मानकर तीन भागों में विभाजित व स्वीकृत किया गया है। इन तीन में व्यंजना शब्द शक्ति भी शामिल है। व्यंजना में किसी शब्द के अभिप्रेत अर्थ का बोध न तो मुख्यार्थ से होता है और न ही लक्ष्यार्थ से, अपितु कथन के संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ से या व्यंग्यार्थ से प्रकट होता है। व्यंजना को हम सामान्य तौर पर व्यंग्य के रूप में जानते-पहचानते हैं। व्यंजक शब्दों के माध्यम से व्यंग्यकार विसंगतियों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है। व्यंग्य का वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराइयों और कमजोरियों की हंसी उड़ाकर पेश करना होता है। प्रसिद्ध व्यंग्यकार और आलोचक सुभाष चंदर के शब्दों में - व्यंग्य वह गंभीर रचना है जिसमें व्यंग्यकार विसंगति की तह में जाकर उस पर वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध आदि भाषिक शक्तियों के माध्यम से तीखा प्रहार करता है उसका लक्ष्य पाठक को गुदगुदाना न होकर उससे करुणा, खीज अथवा आक्रोश की पावती लेना होता है। अतः व्यंग्य लेखन तलवार की धार पर चलने जैसा है। इसके लिए साहस, समझ और हौसला चाहिए होता है।

व्यंग्य विधा के एक ऐसे ही हस्ताक्षर हैं मोहन लाल मौर्य। राजस्थान के अलवर जिले के चतरपुरा गांव में रहने वाले मोहन लाल मौर्य एक दशक से अपने सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर रचे व्यंग्यों के माध्यम से समाज में जागरूकता ला रहे हैं। साथ ही ग्रामीण समस्याओं के प्रति भी गंभीर होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। अपनी लेखन यात्रा के बारे में बात करते हुए मौर्य कहते हैं - मेरे लेखन की शुरुआत तब से हुई जब मैं ग्यारहवीं में पढ़ता था। तब मैंने अपने समाज के एक पाक्षिक अखबार में 'राजनीति का भंवरा' शीर्षक से कविता भेजी थी। लेकिन वह तो छपी नहीं और किसी और की कविता मेरे नाम से प्रकाशित हो गई। मुझे बधाई भी प्राप्त हुई। वह कविता भी छपी। लेकिन काफी दिनों के बाद में। इसके बाद लंबे अंतराल तक कुछ भी नहीं लिखा। अक्टूबर 2011 से मैंने समाज के ही पाक्षिक अखबार रघुवंशी रक्षक पत्रिका के लिए सामाजिक खबरें, सामाजिक उत्थान एवं सामाजिक कुरीतियों पर आलेख लिखने लगा। इन्हें दिनों से यदा-कदा स्थानीय समाचार पत्रों के पाठक पीठ में भी छपने लगा। 10 फरवरी, 2015 को एक समाचार पत्र में मेरी पहली व्यंग्य रचना 'सम्मान समारोह में शिरकत' प्रकाशित हुई और इसके बाद में साल भर के लिए अंतराल का ताला लग गया। मैं अनवरत व्यंग्य लिखता रहा। न छपने पर कभी भी हताश नहीं हुआ। इस दौरान फेसबुक के जरिए मेरी मित्रता निर्मल गुप्त सर से हुई और उन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया। जिनकों मैं अपना व्यंग्य गुरु मानता हूं।

14 Feb 2020

जहां धन,वहीं प्रेम


आज वैलेंटाइन डे है। प्रेमियों की जेब ढीली करने का उत्सव हैं। अपनी महबूबा पर जी भर के खर्च करेंगे। जितना खर्चा करेंगे,उतना ही प्यार पाएंगे। क्योंकि आजकल प्यार मन से कम,मनी से ज्यादा होने लगा है। जिसके पास मनी है,वह रेस्तरां एवं होटल में सेलिब्रेट करेगा और जिसके पास मनी नहीं है,वह किसी गार्डन में झाड़ी के पीछे बैठकर प्यार भरी बातें करने की कोशिश करेगा। क्योंकि बीच-बीच में प्रेम विरोधियों को भी देखना पड़ता है। भय रहता कहीं कोई विरोधी आकर दबोच नहीं ले। दबोच लिया तो हाथ साफ करके ही जाएंगा।
पता नहीं इनके हाथों में क्यूँ खुजली चलती है,जो कि वैलेंटाइन डे पर ही मिटती है। मुझे तो लगता है कि यह नित्यकर्म के बाद साबुन से हाथ नहीं धोते होंगे। इसलिए इनके हाथों में खुजली चलती है और यह वैलेंटाइन डे पर अपनी खुजली मिटाने के लिए गार्डन दर गार्डन घूमते फिरते रहते हैं। कोई प्रेमी जोड़ा गिरफ्त में आ गया तो सालभर का कोटा एक ही दिन में पूरा करने की कोशिश में रहते हैं। लेकिन इनको सौगात में जो भाँति-भाँति बददुआएं मिलती हैं। उन्हें पाकर जहन्नुम जाने जैसा महसूस करते होंगे।
अच्छा यह प्रेम विरोधी सिर्फ और सिर्फ वैलेंटाइन डे पर्व पर ही विरोध करते हैं। बाकी दिन चाहे इनके सामने खुलेआम प्यार का इजहार कीजिए। बिल्कुल भी रोक-टोक नहीं करेंगे,बल्कि समर्थन करेंगे। कहेंगे कि लगे रहिए,एक दिन कामयाबी अवश्य मिलेगी। इनमें भी एकाध ही होते हैं जो नेतृत्वकर्ता होते हैं। बाकी तो वैलेंटाइन पर भी दिल से विरोध नहीं करते हैं। जबान से करते हैं। जबान पर दबाव रहता है। अपने दल को सुर्खियों में लाने के लिए विरोध का नाटक रचना पड़ता है। नाटक नहीं रचे तो सुबह अखबार में बांचने के लिए अपना नाम नहीं मिलता है। व्यक्ति नाम के लिए क्या नहीं करता है। विरोध ही नहीं,बल्कि अनुरोध भी करता है। पर ऐसे लोग समय के अनुकूल चलते हैं। जिधर नाम होने लगता है,उधर ही हो लेते हैं। इसलिए ऐसी प्रवृत्ति के लोग इधर-उधर ताक-झांक करते रहते हैं।
ऐसा कदाचित भी नहीं है कि वैलेंटाइन के विरोधी प्यार नहीं करते हैं। यह लोग प्यार तो बहुत करते हैं, मगर दिखावा नहीं करते हैं। बस इनके नयन दूसरों के नैन-मटक्का देख नहीं सकते। जबकि खुद पलके भी नहीं झपकाते हैं। एक बार देखने लग गए तो टकटकी लगाए रहते हैं।
प्रेम के पंछियों को माता-पिता,यार-दोस्त व रिश्तेदार उड़ान के लिए प्रोत्साहित करें या नहीं करें,पर रेस्तरां तथा होटल वाले अवश्य करते होंगे। चूंकि वो अपना कारोबार चलाने के लिए शुभाशीष देने में कभी पीछे नहीं रहते हैं। क्योंकि इनके द्वारा एक बार दिया शुभाशीष न जाने कितनी बार फिर से वापस बुलाता है। जब प्रेमी कस्टमर बार-बार आता है तो कारोबार में बढ़ोतरी होती है। बढ़ोतरी होती है तो बढ़ावा देने में इनके होटल से क्या जा रहा है। थोड़ी-सी चीनी और सूप। जिनके बदले में प्रेम और धन आ रहा है। अधुनातन में जहाँ धन है,वहाँ प्रेम है। जहाँ पर धन और प्रेम हैं,वहाँ पर रतन तो दौड़कर चला आता है। रतन आने के बाद होटल में जाना स्वाभाविक है।


वैलेंटाइन डे और सरप्राइज गिफ्ट



प्रेमियों के आदर्श संत वैलेंटाइन को शत-शत नमन,जिन्होंने प्यार का जश्न मनाने के लिए वर्ष का एक दिन प्रेमियों के नाम किया। साथ ही रेस्तरां और होटलों को एक दिन अतिरिक्त रोजगार दिया। गिफ्ट्स और  पुष्प विक्रेताओं की आमदनी में एक सप्ताह के लिए बढ़ोतरी की। इनके लिए यही तो एक ऐसा सप्ताह है,जिसमें उनके लूट-खसोट करने पर कोई प्रतिबंध नहीं। माथापच्ची नहीं। जो प्राइस बता दी,वही मिल जाती है। क्योंकि सरप्राइज़ गिफ्ट की प्राइस कम कराना प्यार पर प्रश्नवाचक लगाना है। प्रश्नवाचक लगने का अभिप्राय ब्रेकअप भी हो सकता है। दमड़ी के चक्कर में ब्रेकअप कोई नहीं चाहता है। इसलिए प्राइस की जो वॉइस कानों में पड़ी,उसे कर्णप्रिय समझकर तुरंत भुगतान इस अनुष्ठान का पहला नियम है।
यह विक्रेता वैलेंटाइन सप्ताह में अपने इष्ट देव की पूजा अर्चना करते हैं या नहीं करते हैं,यह तो इल्‍म नहीं है। लेकिन संत वैलेंटाइन की तो अवश्य करते होंगे। इसी के नाम की अगरबत्ती लगाते होंगे। माला जपते होंगे। ‘ संत वैलेंटाइन महाराज तेरी जय होके उच्चारण से ही उनकी सुबह शुरू होती होगी।
प्यार में कीमत कीमती नहीं होती हैं। प्यार कीमती होता है। प्यार पाने के लिए कीमती से कीमती चीज भी न्योछावर करनी पड़े तो पीछे नहीं हटते हैं,बल्कि उसके लिए यार-दोस्त से पैसे उधार लेकर समर्पित कर देते हैं। जहाँ त्याग है,वहाँ प्यार है। प्यार में सब कुछ जायज है। अपनी जायदाद भी मांगे तो देने में कोई बुराई नहीं है। जब दिल दे ही बैठे हैं तो जमीन जायदाद देने में क्या हर्ज है। बल्कि यह तो प्यार का फर्ज है। जिसको निभाना प्रेमियों का कर्तव्य है। जो अपने कर्तव्यों को भूल जाता है। उससे उसके अधिकार स्वत:ही ब्रेकअप में रूपांतरण हो जाते हैं।
लेकिन आजकल ब्रेकअप होने के बाद दुखों का पहाड़ नहीं टूटता है। बल्कि दूसरे ही दिन किसी और के साथ प्रेम की पहाड़ी की सैर पर निकल पड़ते हैं। हाँ,जो सॉरी का मैसेज करके,कॉल प्राप्त करने के लिए राजी कर ले और कॉल प्राप्त करते ही रोने का नाटक कर ले उसका तो ब्रेकअप बच सकता है। अन्यथा नहीं। क्योंकि प्रेमी जुदाई सह लेते हैं,पर रुलाई नहीं। वैसे भी रुदन किसी को भी अच्छा नहीं लगता है।
वैसे आजकल प्यार करना जितना आसान है। उतना ही उसके खर्चे उठाना मुश्किल है। आँखें चार होते ही चार हजार की शॉपिंग तय हो जाती है। भले ही बंदे के पास भुगतान करने के लिए पॉकेट में मनी नहीं हो और मन मसोसकर गूगल पे या पेटीएम के जरिए भुगतान करना ही पड़े। नहीं किया,तो जो आँखें चार हुई थी, दो ही रह जाती हैं। 
मोबाइल रिचार्ज करवाना पहली प्राथमिकता होती है। अगर पहली प्राथमिकता को तुरंत प्रभाव से पूरा नहीं किया,तो प्रेमिका रूठ जाती है। एक बार रूठी,तो रिचार्ज करवाने के बाद भी नहीं मानेगी। फिर कई दिनों तक मान-मनुहार का दौर चलता है,जो कि भोर से लेकर अर्धरात्रि तक जारी रहता है। यह प्रेम का ऐसा दौर होता है,जिसमें सोना,बाबू,जानू जैसे प्रियतम शब्दों का सर्वाधिक उपयोग होता है।
संत वैलेंटाइन के अनुयायी का प्यार या तो परवान चढ़ता नहीं है या चढ़ता है, तो फिर उतरता नहीं। यह इश्क के सागर में गोते नहीं लगाते हैं,बल्कि उसमें डूबे रहते हैं। कई बार तो सांस लेना भी भूल जाते हैं। जिससे कईयों की तो हृदय गति भी रुक जाती है।