कई
दिनों से देख रहा हूँ। भाटी जी लाठी को जमकर तेल पिला रहा हैं। लाठी भी तेल
पीकर अंबुजा सीमेंट से बनी दीवार की मानिंद इतनी मजबूत हो गई है कि तोड़ने से भी
नहीं टूटे। जिसके हाथ में इतनी मजबूत लाठी हो। उसकी भैंस की ओर कोई आँख उठाकर देख
ले। किसी की मजाल है। आँख उठाकर देखने की तो छोड़िए,कोई
आँखें झुकाकर भी नहीं देख सकता। ऐसी मजबूत लाठी को देखकर तो पानी में गई हुई,भैंस वापस आ जाए।
लेकिन
भाटी जी के पास तो बकरी का बच्चा भी नहीं है। फिर लाठी को इतनी ठोस करके क्या
करेगा? यह प्रश्न मेरे मन में कौंधा। सोचा
कुत्ता-बिल्ली को भगाने के लिए या चोर-उचक्को को डराने के लिए ठोस किया होगा। क्योंकि हाथ में मजबूत लाठी होती है तो मरियल में भी हिम्मत आ
जाती है। वह भी अकड़ कर चलता है। लाठीधारी से पहलवान भी
डरता है। कहते हैं कि लाठी के आगे तो भूत भी काँपता है। दुम दबाकर भाग जाता है। इस
रहस्य का राज जानने के लिए,मैंने भाटी जी से पूछा। पहले तो
हंसकर टाल गए। फिर से पूछा तो बताया। यह आम लाठी नहीं। खास लाठी है। इसकी ख़ासियत अभी नहीं। कुछ दिनों पश्चात दिखाई देने
लगेंगी। बहरहाल तो परवरिश का
तेल पिला रहा हूँ। संस्कार का तेल पिलाना शेष है। अब मैं इसकी सेवा कर रहा हूँ। बाद में
यह मेरी करेगी। यही सेवा की मेवा है।
मैं
समझ गया था। यह बुढ़ापे की लाठी है। बुढ़ापे की लाठी जितनी मजबूत होती है। बुढ़ापा
उतना ही आसानी से कटता है। इसीलिए तो व्यक्ति बुढ़ापे की लाठी से अथाह प्यार-प्रेम
करता है। ताकि लाठी को किसी घाटी पर भी साथ लेकर चढ़ने को कहें तो आनाकानी नहीं
करें। बल्कि तत्काल चढ़ने के लिए कहे। चलिए चलते हैं।
भाटी
जी की उम्र ढल रही थी और लाठी जवानी के मजे ले रही थी। भाटी जी ने सोचा लाठी कहीं
किसी के प्रेम प्रसंग में नहीं पड़ जाए। प्रेम-प्रसंग में पड़
गई तो बाहर नहीं निकल पाएगी। बाहर नहीं निकली तो बुढ़ापा बिना लाठी के सहारे ही काटना
पड़ेगा।यही सोचकर पाणिग्रहण
संस्कार कर दिया। शादी के कुछ माह बाद भाटी जी द्वारा
पिलाया गया तेल सूखने लगा और नई नवेली द्वारा लगाया गया तेल रमने लगा। देखते ही देखते लाठी गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी। आँखें चुराने वाली आँखे बात-बात में आँख दिखाने लगी। कल तक जुबान नहीं उपड़ती थी। आज कतरनी से भी तेज चलने लगी है। मिमियाने की जगह गरयाने लगी।
हद तो तब
हो गई। जब उसने एक दिन भाटी जी पर लाठी उठा ली। यह देखकर मैं भी आश्चर्यचकित रह गया। सोचने लगा कैसा घोर कलियुग आ गया है। जिस पर
बचपन से लेकर जवानी तक। किसी तरह की कोई आँच नहीं आने दी। आज वही आग बबूला हो रही
है। कल तक जिसके मुखमंडल से सभ्य व संस्कारी बोल प्रस्फुटित होते थे। अब उसी
मुखमंडल से बुरे-भले बोल मुखर होने लगे हैं। ऐसी बुढ़ापे की लाठी से तो लाख गुना
अच्छा है। छोटे-मोटे डंडों के सहारे ही बुढ़ापा काट लिया जाए।
No comments:
Post a Comment