16 Feb 2021

वसंत अब ऑनलाइन ही मिलेगा

वसंत वैलेंटाइन सप्ताह में परदेश से आया था। मैंने ही नहीं दीनू काका ने भी देखा था। देखा क्या था,उसने दीनू काका के पैर भी छूए थे। काका ने शुभाशीष भी दिया था-जुग-जुग जियों वसंतराज। यूँ ही आते-जाते रहना। सदा यू हीं मुस्‍कराते रहा करो।’ वसंत समूचे मोहल्ले वासियों का चहेता हैं। हर साल इन्हीं दिनों में घर आता है। कपड़ों का बैग भरकर लाता हैं। वसंत को पीले वस्त्र बहुत पसंद हैं। उसका रूमाल तक पीले रंग का होता है। सब उससे मिलना चाहते हैं। पर जबसे आया है,दिखाई नहीं दे रहा है।

कल रामू काका पूछ रहे थे, ‘सुना है वसंत आया हुआ है?’

मैंने कहा-आपने ठीक सुना है।

यह सुनकर वे बोले-तो फिर वह कहाँ हैमैंने तो उसे देखा ही नहीं और ना वह मुझे मिला है।’ 

इस पर मैंने उन्हें समझाते हुए कहा,‘काकावह आजकल आप से ही नहींकिसी से भी मिलता-जुलता नहीं है। किसी ओर कि तो क्‍या क्‍यूँलेकिन अपुष्‍ट खबर है कि जिनका वह अजीज हैं,उनसे ही रूष्‍ट हैं।

रामू काका चौंके-क्या कह रहे होवसंत ऐसा लड़का नहीं है। वह तो जब भी आता है,सबसे मिलता-जुलता है। बड़े-बुजुर्गों का अदब करता। प्यार-प्रेम की वार्ता करता है। जरूर किसी कार्य में व्यस्त होगा या हो सकता है सर्दी का टाइम हैं खांसी-जुकाम हो गई हो। परदेश का और अपने यहाँ का वातावरण एक जैसा थोड़ी है,अलग-अलग हैं,सूट नहीं किया हो।

काका कि उक्‍त कथ्‍य मेरे गले नहीं उतरा तो मैंने काका से कहा-काकाऐसी बात नहीं। बात कुछ और ही है।’ 

कुछ और क्या है? दारु पानी पीने लग गया क्या? या फिर उसे इश्क का बुखार चढ़ गया क्या? आवारों के साथ आवारागर्दी करने लग गया क्या?’ काका ने जिज्ञासा प्रकट करते हुए पूछा।

मैं बोला,‘ कैसी बात कर रहे हैं। वह गवार नहीं है,जो कि आवारों की संगति में जाकर बैठेगा।’ 

‘ तो वह बैठा कहां पर है।’ 

मुझे पता होता तो मैं अब से पहले उससे मिल नहीं लेता।

यह सुनकर काका बिना किसी वक्‍तव्‍य के ही वसंत की खोज-खबर में वहाँ से चल दिया।

रामू काका वसंत से मिलने उसके घर पहुँचे। पर वह वहाँ नहीं था। उसके माँ-बाप बता रहे थे कि जबसे आया है, मोबाइल के ही चिपका रहता है। पता नहीं क्या हो गया हैदिनभर गुमसुम रहता है। पहले तो खेत-खलियान में भी जाता था। सरसों के पीले-पीले फूल बरसाते हुए आता था। सबसे मिलता-जुलता था। पल दो पल ही सही लेकिन सबसे प्‍यार भरी मीठी-मीठी बातें करता था। सबका दिल जीत लेता था तथा दिनभर खुश रहता था। 

अगले दिन मैं गया तो वसंत अपने कमरे में बैठा व्हाट्सएप पर किसी को लिख रहा था- ‘मैं वसंत हूँ। परदेश से तुम्हारे लिए आया हूँ। एक खास गिफ्ट लाया हूँ। कल मिलेगे और ढेर सारी बातें करेंगे। सुख-दुख की बतलाएंगे।’ तभी उसे कमरे में मेरे दाखिल होने का भान हुआ। उसने गर्दन मेरी आरे घुमाई और बोला-आप और यहाँ। कैसे आना हुआ?’

मैंने कहा-भाई! आपसे मिलने आ गया। आप जबसे आए हो,मिले ही नहीं। आपको रामू काका भी पूछ रहे थे और खुशनुमा मौसमी काकी भी पूछ रही थी। कईयों को तो यकीन नहीं है कि वसंत आ गया है। आखिरकार बात क्या है?’ 

वसंत बोला-बात-वात कुछ नहीं है। अभी तुम जाओं। मैं व्यस्त हूँ। शाम को फेसबुक पर ऑनलाइन मिलते हैं। वहीं वार्तालाप करते हैं।

मैं मन मसोसकर चला आया। रास्ते में रामू काका मिले। उन्होंने पुन: पूछा-वसंत मिला क्यानहीं मिला तो कहाँ मिलेगा?’

मैंने कहा-काका,वसंत तो अब फेसबुक पर ऑनलाइन मिलेगा।

मोहनलाल मौर्य

  


7 Feb 2021

अफसर का सर प्रेम

वह अफसर है। उसे सर बहुत प्रिय है। सर उसके अफसर और सरनेम में भी समाहित है। उसका सरनेम सरासर है और सरासर में तो एक बार नहीं,दो बार सर है। जिसके आगे-पीछे सर ही सर  हो। वह तो सरकार से भी सर कहलवा सकता है। क्योंकि,सरकार भी सर है तो ही है। सरकार में ‘सर’ नहीं हो,तो अकेली ‘कार’ से सरकार कभी नहीं बने। ‘कार’ तो हर किसी के पास होती है। लोगों के पास लग्जरी कार तक होती हैं। फिर भी उनको सरकार का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता है। ऐसा भी नहीं है कि वो प्रयास नहीं करते हैं। प्रयास तो खूब करते हैं,पर सफल नहीं पाते हैं। सफल वही हो पाते हैं,जिनके पास ‘सर’ और ‘कार’ दोनों होते हैं। जिसके पास सरकार होती है या सरकार में होता है। उसका रुतबा असरदार होता है। असरदार इसलिए असरदार होता है क्योंकि उसमें सर है। सर नहीं हो तो अदार ही रह जाए। अदार कोई अर्थ ही नहीं निकलता है। जिसका कोई अर्थ ही नहीं,वह व्यर्थ है।

उसे सर कहकर उसके सिर पर बैठ जाओ। उसके कक्ष में,उसके सम्मुख रखी कुर्सियों पर पसरकर बैठ जाओ,मना नहीं करेगा। मुस्कुराते हुए बातचीत करेगा। उस समय आपको आभासी नहीं होगा कि मैं अफसर के सामने बैठा हूँ। ऐसा महसूस होगा कि मैं तो अपने किसी परिचित के पास आया हुआ हूँ और उससे सुख-दुख की बतला रहा हूँ। उस वक्त यह मत समझ बैठिए कि अफसर तो बहुत ही अच्छा है। अच्छा-वच्छा कुछ नहीं है। यह तो अफसर को सर कहने का कमाल है। 

सच पूछिए तो वह अफसर ही सर सुनने के लिए बना है। सर सुने बगैर तो वह एक पल भी नहीं रह सकता है। उसकी सुप्रभात और शुभरात्रि ही सर सुनने के बाद होती है। वह सर सुनकर मन ही मन में इतना प्रसन्न होता है कि जैसे कि कोई लॉटरी निकलने पर होता है।

उस अफसर की ऑफिस में उसके सिवाय अन्य किसी भी कर्मचारी को कोई सर कह देता है न तो उसके सिर दर्द हो जाता है। उसका कहना है कि ऑफिस में जो सर्वोच्च पद पर आसीन होता हैं,वही सर होता है। बाकी के अधीनस्थ तो अपने-अपने पदों के नाम से ही संबोधित किए जाते हैं। यह जिसका कहना है,वही ऑफिस में सर्वोच्च पद पर आसीन है। यानी कि वही सर है। अगर किसी ने किसी बाबू को सर कह दिया और अफसर ने सुन लिया तो उस व्यक्ति का काम आसानी से हो जाए,संभवतःसंभव नहीं। कई चक्कर काटने पड़ेंगे। अनुनय-विनय करना पड़ेगा।

हाँ,जिसने बाबू को बाबूजी कह दिया और अफसर ने सुन लिया तो उसका काम तत्काल प्रभाव से हो जाता है। उसकी फाइल में किसी दस्तावेज की कमी होने के बावजूद भी फाइल अटकती-भटकती नहीं,बल्कि सीधी अफसर की टेबल पर पहुँच जाती। जिसने अफसर के हर प्रश्न का जवाब यस सर और नो सर में दिया न उसके दस्तावेजों पर तो बगैर देखें व पढ़े हस्ताक्षर कर देता है। 

 

वह अफसर हाजिर हो या गैरहाजिर हो। उसके परिसर में दिनभर सर गुंजायमान रहता है। इसलिए नहीं कि परिसर शब्द में सर है,बल्कि इसलिए रहता है कि परिसर में अफसर हैं। वह हर उस अवसर का पूरा लाभ उठाता है,जिसमें सर होता है। वैसे अवसर में भी सर है। वह दूध भी तभी पीता है,जब उसमें केसर होता है। क्योंकि केसर में सर है। उसे घुसर-पुसर करने वाले लोग बहुत पसंद है। पसंद इसलिए हैं कि घुसर-पुसर में एक बार नहीं,बल्कि दो बार सर है। इसी तरह उसे प्रोफ़ेसर,अनाउंसर व फ्रीलांसर लोग भी बहुत पसंद है। यह लोग भी इसीलिए पसंद है कि उनमें सर समाहित है। वह डांस डांसर का ही देखता है। देखने की वजह सर ही है। स्त्रियों की नाक में नकबेसर व गले में नवसर कैसे भी हो। नए हो या पुराने हो। महँगे हो या सस्ते हो। उन दोनों आभूषणों की तारीफ किए बगैर नहीं रहता है। अगर उन दोनों आभूषणों के नाम में सर नहीं हो न,तो वह कभी तारीफ नहीं करें। 

उस अफसर को चैसर का खेल और टसर के कपड़े इसलिए पसंद है कि उनके नाम में सर है। उसके बगीचे में सबसे ज्यादा नागकेसर के वृक्ष है। वो भी इसीलिए है कि उनके नाम में भी सर है। उसे सर से इतना प्यार-प्रेम है कि वह उस बीमारी से ग्रस्त हैं,जिसके नाम में सर है। वह कैंसर से पीड़ित है।

 


 

3 Feb 2021

झोलाछाप डॉक्टर सेवाराम

डॉक्टर सेवाराम टू इन वन है। इनसानों के साथ पशुओं का भी इलाज करता हैं। मोटरसाइकिल के एक बगल में पशु दवा बैग और दूसरी ओर इंसानी दवा का लटका झोला टू इन वन का प्रमाण है। ग्राहक का कब फोन आ जाए और कब जाना पड़ जाए। इसलिए आपातकालीन सेवा के रूप में मोटरसाइकिल को चौबीस घंटे पास में ही खड़ी रखता है। यहाँ ग्राहक मरीज है और मरीज ही ग्राहक है। दुकानदार के लिए ग्राहक भगवान होता है और मरीज के लिए डॉक्टर भगवान होता है। अत: यहाँ पर डॉक्टर और मरीज दोनों ही भगवान है। एक-दूसरे के लिए।

आप भले ही मोटरसाइकिल को एम्बुलेंस कह सकते है। रहित सायरन एम्बुलेंस। पर इसके साइलेंसर की ध्वनि ही दूरध्वनि है। जिसके सामने एम्बुलेंस सायरन ध्वनि की तो फूँक निकल जाती है। मरीज क्लीनिक पर आए। चाहे डॉ.सेवाराम मरीज के घर पर जाए। कोई अतिरिक्त फीस नहीं। फीस व अन्य खर्चा-पानी पहले ही दवाइयों में ऐड कर देता हैं। यह एड़ करता है और सरकारी अस्पताल में एडमिट करते हैं। इसका तो ‘एड़’ भी एड़मिट से महंगा पड़ता है। लेकिन मरीज को महँगाई की मार से मरने नहीं देता। उधार का इंजेक्शन लगा देता है। जिससे मरीज को बहुत राहत मिलती है। एक बीमार देहाती को राहत मिल गई तो यह मानों उसे पद्मश्री मिल गया। लेकिन जब उधार इंजेक्शन का चार्ज लिया जाता है। तब एक बार तो भला-चंगा भी कोमा चला जाता है। ऐसी स्थिति में उपचार करने की बजाय उसे ‘शर्मिंदा ना करें’ की  टैबलेट देकर घर भेज दिया जाता है। 

अनभिज्ञ व निरक्षर की दृष्टि में जो सुई लगाता है,वहीं डॉक्टर है। फिर चाहे वह नर्स ही क्यूँ ना होदेहात में फर्जी क्लीनिक खोलकर बैठा ऐरा-गैरा नत्थू -खैरा  ही क्यूँ ना होइनकों तो इलाज से मतलब है। ग्रेड व डिग्री से नहीं। थोड़ी बहुत दृष्टि सोचने समझने में लगा भी दी तो झोलाछाप दृष्टि टोक देती है,‘उधेड़बुन में क्‍यूँ अपना दिमाग खपा रहा है। मुझ पर विश्वास है ना,फिर काहे को टेंशन लेता है। ये ले तीन दिन की दवा। इसमें से सुबह-शाम लेनी है। यह एक बखत लेनी है और यह वाली खाली पेट लेनी है। तीन तरह कीतीन रंग की,तीन पुड़िया है। समझ में नहीं आई क्‍याठीक है। देख ऐसे समझ ले। लाल पुडिय़ा सुबह-शाम की है। पीली पुडिय़ा एक बखत की है। और सफेद वाली खाली पेट की है। फिर भी कोई दिक्कत आए तो चुपचाप सीधा यहाँ चले आना। किसी से भी किसी तरह का जिक्र मत करना। जिक्र किया तो फिक्र होगी और फिक्र होगी तो दवा काम नहीं करेगी। दवा काम नहीं करेगी तो स्वस्थ नहीं होगा।समझ गया ना।’ इस तरह से भयभीत कर देता है। चाहकर भी जिक्र नहीं करता।  

अनभिज्ञता में विश्वास चीज ही ऐसी है। एक बार जिसकी आँखों पर विश्वास की पट्टी बँध गई। उसे उतारना मुश्किल है। यह पट्टी बंधती नहीं बांधी जाती है। झोलाछाप के पास जो  मरहम पट्टी करवाने आता है । उसके मरहम पट्टी के साथ-साथ विश्वास की पट्टी भी  बांध देता हैं। मरहम पट्टी से घाव भरे ना भरे। लेकिन विश्वास की पट्टी से जरुर भर जाता है।झोलाछाप की  मरहम पट्टी रखी-रखी एक्सपायरी डेट हो सकती  है। लेकिन विश्वास की पट्टी कभी एक्सपायर डेट नहीं होती । 

हर झोलाछाप डॉक्टर यह भली-भाँति जानता है कि गाँव देहात में  भले ही कुछ मिले ना मिलेपर मरीज पर्याप्त मात्रा में मिल जाते हैं। जिनके इलाज से  दाल-रोटी का बंदोबस्त तो आराम से हो जाता है। गाँवों में वैसे तो कोई बीमारी खास नहीं होती। फोड़ा-फुंसी,खांसी-जुखामसर्दीपेटदर्द ,उल्टी-दस्त व बुखार जैसी बीमारियां होती। जो कि बिना दवा के भी ठीक हो जाती है। लेकिन झोलाछाप कई तरह के रंग बिरंगे कैप्सूल देकर तथा  ग्लूकोज इस तरह से चढ़ाता हैड्रिप  की रफ्तार इतनी धीमी रखता है। एक बूँद आधे घंटे में गिरती हैं। जिसे देखकर मरीज व परिजन को लगता है दवाई बड़ी मुश्किल से शरीर में जा रही है। बीमारी गंभीर है। 

डॉ.सेवाराम पता नहीं क्या जादू-टोना करता है। लोग जरा सा ताप बुखार होते ही सेवाराम की शरण में चले जाते हैं। जो बीमार नहीं हैं,वे चाय-पानी पीने आ जाते हैं। गपशप मारने आ जाते हैं। जब कोई केश बिगड़ता है तो वह इन्हीं को बुलाता हैं। यह दौड़े चले आते हैं। ले-देकर मामला रफा-दफा भी करवा देते हैं। देहात में पाँच व्यक्तियों की बात सर्वप्रिय मानी जाती हैं। ताकि गाँव की बात गाँव तक रहे। कोर्ट-कचहरी तक नहीं जाए। अगर कोई डॉ.सेवाराम के खिलाफ पुलिस तक चल भी गया तो उससे पहले सेवाराम की सेवा हाजिर हो जाती है। जिसकी सेवा है उसकी मेवा तो होनी ही है। मेवा नहीं करें तो सेवा नहीं होती है। सेवाराम का नेटवर्क तगड़ा है। मेडिकल सतर्कता दल के आने से पूर्व ही भनक लग जाती हैं और उनके आने से पहले ही क्लीनिक बंद करके नौ दो ग्‍यारह हो जाता है।

मोहनलाल मौर्य