15 Dec 2016

लक्ष्‍मी एक जगह कहां टिकी है ?


एक हजार  500 का नोट नोट नहीं। उनका अन्नदाता था। जो आठ तारीख को चल बसा। प्रधान सेवक कि लीला है,जो बैंक के ग्रास में समा गए। इन दोनों के जाने से इनके परिवार में सन्नाटा छाया हुआ।10,20,50,100 रूपए की स्थिति दयनीय हो गई। यह भी क्या करें नियति का  फैसला तो सिर छुकाकर स्वीकार करना ही पड़ता है। विधि का विधान व नियति के निर्णय से भला कोई बचा है,जो यह बचते। इन्होंने जो त्याग व बलिदान किया है। वह स्मरणीय रहेगा।

पर 1000  5000 की आत्मा को चिर शान्ति तबी मिलेगी। जब इनकी बिरादरी के वे नोट,जो तिजोरी,अलमारी में बंद हैं और वे बैंकलोक तक नहीं पहुंचे हैं। उनकी आत्मा भटक सकती हैं। वे भूत पिशाच बन सकते हैं। फिर यह उन्हीं पर मंडराएंगे। जिन्होंने बैंकलोक नहीं पहुंचाया। पड़ोसी वर्माजी के पास भी एक दशक से 1000 जाति का 786 नामक नोट रखा था। आपातकाल में भी उपयोग नहीं किया। वर्माजी का बाप मरा,तब 1000रूपए की सक्त आवश्यकता थी। पर,वर्माजी ने पूजाघर से बाहर नहीं निकाला। वर्माजी बताते है कि 786 का नोट शुभदायक रहता है। लेकिन आठ तारीख को यहीं शुभदायक नोट दुखदायकता में बदल गया। वर्माजी दुखद तो हुए, पर,उन्होंने पूरे अदब से बैंकलोक पहुंचाया,ताकि उसकी आत्मा को चिर शान्ति मिले। कोई कालाधन कहकर बदनाम नहीं करें। अगर उसे शांति नहीं मिलेगी,तो पता नहीं उसकी आत्‍मा कहां कहां भटकेगी और किस किस को परेशान करेगी । क्‍या पता नए वाले गुलाबी नोट पर ही जा चढ़े।
सृष्टि का नियम है। जो जहां से आया है, वह वहीं जाएंगा। फिर इतना कोलाहल क्योंकतार में हुज्जत क्योंइनके जाने के गम में वे दुखी क्योंलगता है ये लक्ष्मी के परम भक्त है। पर इन भक्तों को कौन बताए कि लक्ष्मी तो चंचल है। एक जगह कहां टिकती है। कभी यहां तो कभी वहां। तिजोरी,अलमारी में इसका भी दम घुटता है। अगरबत्ती की सुवास से इसके नुथने फूल जाते हैं।

तू सोच मत। तर्क-वितर्क मत कर। जा और जाकर लाइन में लग। इनदिनों वहां लक्ष्मी के दशर्न ही नहीं हो रहे, बल्कि ज्ञानदेवी भी अपना ज्ञान प्रवाह कर रही है।  तू भी अपना ज्ञान आदान-प्रदान कर और ज्ञानदेवी का परम भक्त होने का अहसास करा। हो सकता हैतेरे ज्ञान प्रवाह से किसी के ज्ञान चक्षु खुल जाए। तेरा नम्बर उससे पहले आ जाए। एटीएम देव की कृपा हो जाए। यहां कुछ नहीं है,जो है वह लाइन में है। हो सकता बचपन में पिछड़ा,तेरा मित्र ही मिल जाए। सोनम गुप्ता बेवफा है’ वह लडक़ी ही दिख जाए। अब तू यहीं बक-बक करता रहेगा या फिर जाकर लाइन में भी लगेगा। अब ओर विलंब मत कर। जाकर लाइन में लग जा। लाइन में तुझे जो सुकून मिलेगा, वह किसी धार्मिक स्‍थल पर जाने से भी नहीं मिलेगा। जा सुख का आनंद ले।

11 Dec 2016

मेरे अरमान कब पूरे होंगे

बस,बहुत हो गया। अब और सहन नहीं होता। यह भी कोई जीना है। जिसमें ऐशो-आराम हराम है। न मद्यपान न धूम्रपान है। सिर्फ सुनसान है। दो दिन की जिंदगी और चार दिन की चांदनी है। दो दिन तो आने-जाने में निकल जाते हैं। एक दिन आने का और एक दिन जाने का। बची चार दिन की चांदनी। वे भी इधर-उधर के कार्यों में यूं ही कट जाती हैं। यह वक्तव्य मेरे परम मित्र बिट्टू का है। एकाध दिन से वह कुछ इस तरह के दुखड़े गा रहा हैं। कहता है कि यार! लोग खुले आसमान तले उन्मुक्त उड़ रहे हैं। उन्हें देखकर मेरा भी मन करता है। उनकी तरह उड़ान भरने का। जब भी उड़ान भरने को आमादा होता हूं,तो घरवाले पर पकड़ लेते हैं। फडफ़ड़ाता हूं,तो पर काटने दौड़ते हैं। बात-बात पर नसीहत देते हैं। नहीं कहीं जाने देते है और ना कुछ ऐसा-वैसा खाने-पीने देते हैं। यहां,वहां जाने से बीमार हो जाएंगा। यह,वह खाने-पीने से पेट खराब हो जाएंगा। इस तरह के प्रवचन सुनाते हैं। अब तू ही बता,जो व्यक्ति बीमार ही होगा। वह घर बैठे भी होगा। नहीं होगा,तो कहीं पर भी आने-जाने से नहीं होगा। इसी तरह पेट खराब होना होगा,तो ऐसा-वैसा खाना-पीना खाएं बिना भी होगा। शरीर तो नश्वर है। क्रिया-प्रतिक्रिया तो होती रहती है।

देश कब का स्वतंत्र हो गया। पर,मेरी स्वतंत्रता पर अब भी आपका आधिपत्य है। जबकि मैं तो 18 उम्र भी क्रॉस कर गया हूं और मुझे वोट डालने का अधिकार भी मिल गया है। निर्वाचन आयोग द्वारा जारी बाकायदा पहचान पत्र भी है। जब सरकार ने सरकार चुनने का अधिकार दे दिया। तो घरवाले क्यों नहीं समझतेलडक़े के भी कुछ अरमान है। जिन पर मोहर लगाने का अधिकार खुद के हैं। मेरे अरमानों का प्रचार-प्रसार नहीं करने दे,तो कम से कम गोपनीयता पर ही ठप्पा लगा दे। जिससे मेरी जीत तो सुनिश्चित हो जाएंगी। मन में मन मसोस कर जीने का खयाल तो बार-बार नहीं आएंगा। मैं भी तो आज का नवयुवक हूं। और आज के नवयुवकों की तरह़ जीना मेरा भी आधिपत्य है। ये दिल फैशन,हेयर स्टाइल,स्मार्ट मोबाइल मांगता है। बाइक होतो सोने में सुहाग है। यहीं तो पर्सनल्टी के साधन हैं। जिनके उपयोग से बेहतरीन पर्सनल्टी दिखती है। आज के युग में जो दिखता है,वहीं बिकता है। जिस दिन यह सब प्राप्त हो गया। उस दिन से मेरा भी फेसबुक,वाट्सएप,ट्विटर,इंस्टाग्राम पर अकाउंट होगा। नये-नये फेंरड्स होंगे। रोज अलग-अलग ऐंगल से सेल्फी लेकर अपलोड करूंगा। पर,क्या मेरे अरमान पूरे होंगेकहते है कि सच्चा मित्र वहीं है,जो अपने मित्र की भावनाओं को समझे। हो सके तो उन्हें पूर्ण करने की कोशिश भी करें।
 

मैंने बिट्टू से कहा-देख भाई! बात ऐसी है। तेरी इच्छाओं की पूर्ति संभव है।’ कैसे संभव हैउसने उत्कंठातुरता से पूछा। मैंने कहा- तेरे अरमानों का विधेयक’ घरवालों के सदन में रख। जब विचार-विमर्श हो,तब पक्ष-विपक्ष पर नजर रख। कौन तेरे पक्ष में है और कौन विपक्ष में है। अगर विपक्ष का पलड़ा भारी है,तो पहले उसका वजन कम कर। जब पक्ष का बहुमत पूर्ण हो जाए। तब अपने अरमानों का विधेयक’ सदन में रख और पास करवा ले।’ मित्र यह सुनकर चकित रह गया। बोला यार! वाह! क्या बात कहीं है। मैंने तो यह सोचा ही नहीं था। शुभ कार्य में देरी क्योंआज ही श्रीगणेश करता हूं। अक्सर हम सबके घरवालों की सदन शाम को बैठती हैं। वह भी भोजन के वक्त। क्योंकि इस वक्त सब विराजमान रहते हैं। यहीं सुअवसर होता है,कहने-सुनने और घर,गृहस्थी संबंधी योजनाओं पर विचार-विमर्श करने का। इसी समय घर के नियम,कानून बनते-बिगड़ते हैं। फेरबदल होता है। जिसको जो कहना होता है,वह कहता है। जिसको सुनना होता है,वह चुपचाप सुनता है। जो नहीं कहता है और नहीं सुनता है। वह भोजन करके खिसक लेता है। ऐसा पारिवारिक सदन में ही होता है। क्योंकि यहां दल रहित सरकार होती है। पर,पक्ष-विपक्ष यहां भी होता है।



बिट्टू ने यह सोचकर अपने अरमानों का विधेयक’ सदन में रखा। इस बहाने पक्ष-विपक्ष का बहुमत भी ज्ञात हो जाएंगा। और मेरा विधेयक’ भी पास हो जाएंगा। एक बार तो सबके-सब उसकी तरफ कौतूहल भरी निगाहों से देखें। पहले तो गृहस्वामी ने बात को टालने की कोशिश की। पर,किसी ने दबे स्वर में उसकी मांग जायज बता दी। बस,फिर क्या था?बहस आरंभ हो गई। पक्ष पास करवाने पर जोर देना लगा और विपक्ष स्थगित करवाने पर अड़ गया। जैसे-तैसे करके निम्न सदन में पास हो गया। पर,उच्च सदन में आकर रूक गया। इस सदन में पूर्ण बहुमत नहीं होने से वहीं का वहीं अटका है। बिट्टू मन मसोकर कर कह रहा है कि आखिरकार मेरे अरमान कब पूरे होंगेतुम्हारे पक्ष-प्रतिपक्ष के चक्कर में मुझे क्यों घसीट रहे हो। खुद के मतलब का कोई विधेयक होतो,आनन-फानन में पारित कर लेते हो। कानों-कान किसी को खबर तक नहीं लगने देते हो। क्या यहीं तुम्हारा कानून,कायदा हैमेरी बारी आती है,तो पक्ष-विपक्ष में बंट जाते हो। और मैं तुम्हारा मुंह ताकता रह जाता हूं। आखिरकार मेरा कसूर क्या हैयह तो बताओं! भगवान जानें, बेचारे बिट़टू  के अरमान कब पूरे होंगे

30 Nov 2016

दो हजार का नोट और मेरी दिनचर्या- दैनिक जनवाणी

                     दो हजार का नोट और मेरी दिनचर्या

सुबह जल्दी जगा। बैंक खुलने से पहले लाइन में लगा। तब कहीं जाकर नम्बर आया। कड़ी मशक्कत
से एकमात्र दो हजार का नव नूतन नोट ही मिल पाया। पहले तो सेल्फी ली। फिर उसे लेकर दुकान पर भागा। आवश्यक सामान खरीदने हेतु! ताकि यह गुल्लक में जाएं और वहां से कट-पीटकर सौ-सौ के नोट हाथ में आए। सोचा तो यहीं था। पर, दुकानदार ने दो हजार के नोट की शक्ल देखते ही मना कर दिया। मना तो किया,जो किया। सुझाव और दे दिया। भाई! या तो पूरे दो हजार का सामान ले। या फिर छुट्टे लेकर आ।
वहां से मैं मन मसोस कर चला आया। क्योंकि सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। बर्गर खाने का मन हुआ। पर, बर्गर वाले ने बर्गर खिलाने से पहले ही पूछ लिया। छुट्टे तो हैं ना!मैंने कहा- दो हजार का नोट है।’  यह सुनते ही उसने बर्गर जैसा मुंह बना लिया। यहां से सीधा सब्जीमंडी पहुंचा। यहां भी वहीं आलम था। पेट में चूहे कूद रहे थे,यह भी मुझे मालूम था। कचौरी खाने  को जी ललचाने लगा। यहां मैंने चतुराई दिखाई। उसने पूछा- छुट्टे तो हैं ना!मैंने कहा- हां जी! है। आप तो कचौरी दीजिए।उसने कचौरी की प्लेट हाथ में थमाते हुए कहा- पेमेंट कीजिए।मैंने दो हजार का नोट थमाते हुए कहा-यह लीजिए।दो हजार के नोट को देखते कहा-कचौरी वापस कीजिए और यहां से चलते बनिए।
वहां से मैं मुंह लटकाय आ गया। हजामत किए हुए कई दिन हो गए थे। सोचा, क्यों ना दाढ़ी ही करवालु। खाली सीट देखकर उस पर बैठ गया। नाई बोला-पहले सामने जो लिखा हुआ है। उसे पढय़े,फिर बैठए।मैंने गर्दन घुमाई और सामने जो लिखा था,उसे पढ़ा। अभी हम दो हजार व पांच सौ का नया नोट नहीं ले रहे हैं। कृपया हमारी मजबूरी समझए।यह पढक़र मैं चुपचाप ही नाई की दुकान से बाहर आ गया।
चाय पीने की तलब लगी। पर,समस्या वहीं थी। मैंने सोचा,जो होगा सो देखा जाएंगा। चाय तो पीनी है ही। उसने गर्मा-गर्म चाय पिलाई। चाय पीकर मुझे राहत आयी। पर,जब पैसे देने की बारी आयी,तो वह दो हजार को नोट देखकर चाय की तरह उबलने लगा। मैंने उससे कहा-भाई! गर्म क्यों हो रहे हो? पैसे दे तो रहा हूं।वह शांत होते हुए बोला-पैसे तो दे रहे हो। पर, मैं तुम्हे 1995  रूपए कहां से दूं।यह तो शुक्र है,एनवक्त पर पड़ोसी वर्माजी आ गए। और उन्होंने चाय का भुगतान कर दिया।
चाय की दुकान से बाहर निकला ही था कि चप्पल ने धोखा दे दिया। एक चप्पल हाथ में और एक पैर में थी। लडख़ड़ाता हुआ डॉक्टर मोची के पास पहुंचा। इलाज करवाने हेतु। उसने तुरंत दुरुस्त कर दिया। मैंने कहा-कितने रूपए देने है।वह बोला- दो रूपए दे दीजिए भाई!मैं बोला- दो रूपए तो नहीं है। दो हजार का नोट है।मोची बोला- गरीब आदमी के साथ क्यों मजाक कर रहे हो,भाई! नहीं है,तो बाद में दे देना।यह सुनते मैं वहां खिसक लिया। और दो हजार के नोट के चक्कर में दो रूपय उधार छोड़ आया।

25 Oct 2016

पत्नी से क्षमा मांगने में भलाई है- दैनिक जनवाणी



पत्नी ने यूएन अध्ययन की पति को पीटने में भारतीय पत्नियां तीसरे स्थान परवाली खबर क्या पढ़ी? वह तो मेरे पीछे ही पड़ गई। कहती है कि तुम्हें बहुत दिन हो गए मुझे उंगुली पर नचाते हुए। अब मैं बताती हूं,उंगुली पर कैसे नचाते है? कैसे हुकम चलाते है? जरा पास में आओं। उसमे अचानक मां दुर्गा का स्वरूप देखकर,उसके समीप जाने से मुझे डर लगता है। पता नहीं क्या कर बैठे? पत्नी के हाथ में झाडू देखकर शेर की तरह दहाडऩे वाले म्याऊॅ बन जाते हैं। बाहर दादागिरी दिखाने वाले ‘सत्‍यों’ को भी पत्‍नी के आगे मियामियाते हुए देखा है। मेरी तो औकात ही क्या है? जो उसके पास चला जाओं।
मैं सोच रहा हूं कि मेरी पत्नी की तरह सब भारतीय पत्नियों ने जिस दिन झाडू उठा ली। तब क्या होगा? क्या पति हमें पत्नियों से बचाओंकी तख्ती लिए जन आंदोलन करेंगे। सडक़ पर उतरेंगे। जंतर-मंतर पर धरना देंगे। संसद का घेराव करेंगे। हमें पत्नियों से बचाओंहम शामत में है। कहते हुए अपनी बात रखेंगे। धरना-प्रदर्शन कर, शाम को घर जाएंगे तो पत्नियां कहेंगी। आए गए हमारे खिलाफ आंदोलन करके। क्या हुआ? कुछ हुआ। कुछ नहीं होगा। जैसे प्रश्नों की बौछार से पतियों को सराबोर कर देंगी। फिर पति निरुत्तर खड़े रहेंगे। पस्त होकर कहेंगे। तुम्हें जो करना है,करो। लेकिन झाडू मत उठाओं। बेलन मत फेंको। जोर से मत बोलों। पड़ोसी सुन लेगा, देख लेगा। आखिर मेरी भी कुछ इज्जत है। खैर यह सब छोड़ो।
मुझे तो अपनी पत्नी से बचने की जुगत सोचना है। इस वक्त उससे कैसे बचाव किया जाए? उसके समीप चला तो जाओं। पर,पता नहीं वह क्या फेंक मारे। घर में हर वस्तु का जित्ता उसे पता है उतना मुझे नहीं है। क्योंकि दिन-रात घर,बाहर का कार्य तो वहीं करती है। सुबह पांच बजे उठती है और बारह बजे सोती है। रसोई की तो हर चीज से अच्छी तरह से वाकिफ है। चिमटा,चकला,बेलन,झाडू फेंककर मारने में तो उसका निशाना कभी चूकता ही नहीं है। यह तो मेरी किस्मत अच्छी है कि हर बार मैं बाल-बाल बच जाता हूं। लेकिन इस बार बचने का कोई चांस दिखाई नहीं दे रहा है। सिवाह क्षमा मांगने के। चलो क्षमा मांग कर ही देख लेता हूं। कहते है कि क्षमा मांगना  सबसे बड़ी  बहादुरी होती । और जब जान बचाने की बात आए तो माफी मांगने में हर्ज ही क्‍या है?


मैं डरता हुआ पत्नी से क्षमा मांगने गया। उसने कहा-अब तब तो मैं यह समझती रही कि भारतीय पत्नियां मेरी तरह ही होगी। पर,भला हो यूएन अध्ययन वालों जिन्होंने मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिए। अब तुम्हें मैं बताती हूं कि पत्नी पर हुकम कैसे चलाते है? एक बार पास में आओं।मैंने कहा-देवी! मैं क्षमा चाहता हूं। आज के बाद मैं तुम्हें कुछ नहीं कहूंगा। तुम्हें,जो करना है करो।

12 Oct 2016

रावण ने देखा अपना दहन - दैनिक जनवाणी


रावण ने देखा अपना दहन
रावण दहन का लाइव कास्‍ट देखने खुद रावण भी आया है। रामलीला मैदान खचाखच भरा हुआ है। कोलाहल माहौल है। सबकी निगाहें रावण पर टिकी हुई है। माइक से नेताजी के आने की उद्घोषणा हो रही है। चहुंओर उत्साह है। पुतला सज-धज कर तैयार है। इत्ते बड़े रावण को देखकर रावण भी हैरान है। वह भी मन ही मन सोच-विचार कर रहा है. मेरी कद-काठी तो इत्ती नहीं थी। जित्‍ती इसकी है. मेरे तो दंत पीले थे,इसके तो सफेद है। लगता है इसने अच्छी क्वालिटी की टूथपेस्ट यूज की है। इसकी मूंछ वानर की पूंछ से मिलती-जुलती है। इस वानर की पूंछ ने ही तो सत्यानाश किया था,लंका का। सोने की लंका को जलाकर खाक कर दिया था। इस वानर से तो राम बचाएं। राम कैसे बचाएंगाराम का तो मैं शत्रु था। राम की धर्मपत्नी का तो मैंनें अपहरण किया था। मैंनें सीता माता का अपहरण जरूर किया था।लेकिन उसके आत्म सम्मान को रत्ती भर भी ठेस नहीं पहुंचाई। और आज जो मेरा अनुसरण कर रहे हैं। वे अपहरण भी करते हैं। फिरोती भी मांगते है,फिरोती न मिले तो टपका भी देते हैं। और न जाने क्या-क्या करते हैं?कलियुग रावण तो मेरे से दो कदम आगे हैं। फिर लोग इन कलियुग रावणों का तो दहन करते नहीं.मेरा ही करते है.जो कि सरासर अन्‍याय है।

रावण यह सब सोच ही रहा था कि इत्ते में ही नेताजी आ गए। आते ही नेताजी ने पुतले की नाभि में तीर मारा और बम-पटाखों की धड़ाम-धम होने लगी। देखते ही देखते रावण जलकर खाक हो गया। लोग कह रहे थे,‘बुराई पर अच्छाई की विजय हुई। रावण मन ही मन मुस्कुराने लगा। इस दिन हर साल बुराई जलती है। फिर साल भर में इतनी बुराई कहां से आ जाती है। तुम लोगों को मेरे में बुराई दिखती है स्वयं में नहीं। मैं तो इत्ता भी बुरा नहीं था। जित्ते तुम हो। रावण ने पब्लिक की नब्ज टटोलने के लिए,मानव के हृदय में झांक कर देखा तो रावण बैठा था। उसकी न मोटी-मोटी आंखें हैं,न भुजाओं में बल हैं। ललाट पर कोध्र की लकीर नहीं। लेकिन मन में ईर्ष्या,लोभ-लालच,छल कपट भरा पड़ा है।

दशहरा मैदान से रावण सीधा नेताजी के घर गया। नेताजी के मन में झांक कर देखा तो चकित रह गया। यह क्याजिस मन ने अभी मेरी नाभि में तीर मार कर मेरा नेस्तनाबूद किया था और मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की भूमिका अदा की थी। उस मन में  घोटाले की मंशा उछल-कूद कर रही है। बस मौके की ताक में है। यहां से रावण एक सरकारी दफ्तर में घूस गया। वहां के कर्मियों के मन में झांक कर देखा तो होश उड़ गए। यह क्या?यहां तो रिश्‍वत रावण बैठा है। यहां से निकल कर रावण गली में घूसा,तो देखा। कुछ गुण्ड़े एक महिला से बदसलूकी कर रहे हैं और कह रहे है। जो भी है हमारे हवाले कर दो,वरना जान से हाथ धो बैठोगी। महिला भयभीत हो गई और उसने अपने आभूषण गुण्ड़ों के हवाले कर दिया। रावण यह सब देखकर समझ गया और अपने लोक की ओर प्रस्थान कर गया।
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6 Oct 2016

अरे भाई, मुझे भी झूठ बोलना सिखा दो - नवभारत टाइम्‍स

अरे भाई, मुझे भी झूठ बोलना सिखा दो
मोहन लाल मौर्य
मैं कई दिनों से उस झूठकी तलाश में हूं। जिसे बोलकर लोग अपना कार्य आसानी से करवा लेते है। नौकरी पा लेते है। कारोबार चला लेते है। प्रेम-प्रसंग में फंसा लेते है। ब्याह-शादी रचा लेते है। चुनाव जीत जाते है। गबन कर लेते है। रिश्वत ले लेते है। पुरस्कार पा लेते है। अखबार में छप जाते है। टीवी पर दिख जाते है। सुर्खियों में बने रहते है। खास ऐसा ही झूठ मुझे भी बोलना आता तो मैं दर-दर की ठोकर नहीं खा रहा होता। कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ जॉब कर रहा होता। मैं जब भी झूठ बोलता हूं। पकड़ा जाता हूं। एक दफा तो पकड़ा ही नहीं गया। अच्छे से धुनाई भी हुई । वह भी बिना वॉशिंग पाउडर के। वॉशिंग पाउडर मिलाकर करते तो हो सकता है। मुझे थोड़ा बहुत वह झूठबोलना आ जाता। जिसकी मुझे तलाश है।
जिस झूठकी मुझे तलाश है। उस के लिए मैंने बहुत पापड़ बेले। उन तमाम लोगों से मिला हूं। जो झूठ बोलने में पीएचडी कर रखे है। झूठ बोलने के गुर सिखाते है। झूठ की बुनियाद पर अपना कारोबार चलाते है। बेवकूफ बनाते है। इन सभी ने एक ही बात बताई,झूठ बोलने में है बड़ी कठिनाई। लेकिन,जो झूठ बोलकर कमार खाए,तो उसमें क्या है बुराई। तुझे झूठ बोलने से मिलती है,भलाई। तो तू भी झूठ बोल भाई। झूठ बोलने के फायदा-नुकसान क्या है? यह मसलन हम से जान भाई। झूठ बोलकर हो जाती है सगाई। घर में आ जाती है लुगाई। कईयों कि हो जाती है,ठुकाई। किसी की जग हंसाई। हम ने तो झूठ बोलकर कईयों को फंसाया। तेरी तू जान भाई। ऐसा झूठ बोलने वालों ने मुझे बताया। जिसने भी झूठ बोलने का नायाब तरीका बताया। मैंने वहीं अपनाया। जिस पर भी अपनाया। अपने आप को नाकामयाब पाया। नाकामयाब क्यूं पाया। यह मेरी समझ में आज तक नहीं आया। लेकिन मैं हार नहीं मानंूगा। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। झूठ बोलने के लिए रोना भी पड़ता है। और भी न जाने क्या-क्या करना पड़ता है। जो भी करना पड़े। मैं करूंगा। चाहे मुझे दिन-रात जागना पड़े। मैं जागूंगा। किसी के पीछे भागना पड़े। मैं भागूंगा। लडऩे-झगडऩे की नौबत आयी तो वह भी करूंगा। झूकना पड़े तो सिर झूका कर झूकूंगा। क्योंकि जिस दिन झूठ बोलकर कामयाबी पाली। उस दिन से अपने पिता के नाम से नहीं,अपने नाम से जानूंगा। घर,परिवार,समाज में मेरी पहुंच होगी,तो यस-कीर्ति की उपलब्धि से अलंकृत हो जाऊंगा।
किसी ने मुझे यह भी बताया है कि झूठ बोलने के लिए कसम भी खानी पड़ती है। मैं कसम खाने के लिए आमादा हूं। मां-बाप। बीवी-बच्चे। भाई-बहिन। यार-दोस्त। रिस्तेदार। आदि-इत्यादि। कि कसम तो मैं ऐसे खा जाऊंगा। जैसे लोग गाजर-मूली खाते है। झूठी कसम खाने से पहाड़ थोड़ी टूट जाएंगा। लोग तो भरी अदालत में गीतापर हाथ रखकर न जाने कैसी-कैसी और किस-किस की कसम खा जाते है। उन पर न तो पहाड़ टूटता है और नहीं वे पहाड़ तले दबते है। झूठ बोलने वाले तो स्वर्गगामी  मां-बाप की कसम खा जाते है। मुझे आपकी कसम’,‘मेरी कसमखाने में भला मेरा क्या जाता है। बस,मुझे तो वह झूठबोलना आना चाहिए। जिसे बोलकर लोग बड़ी-बड़ी मछली यूं ही फंसा लेते है। मछली आसानी से फंस भी जाती है और उसे पता भी नहीं लगता है। उसे कब और कैसे? किस जाल से फंसाया गया है। ऐसा ही झूठ बोलने का हुनर मुझे सीखना है। सीखने के उपरान्त बड़ी मछली न सही। छोटी-मोटी मछली तो मैं भी अपने जाल में फंसाया करूंगा।
झूठ बोलकर कैसे फंसाते है? इसकी खुफिया जानकारी एक महाशय ने दी। उसने बताया कि झूठ बोलने में न हींग लगती है,न फिटकिरी। रंग चोखा आता है। न तेरे बाप का। न मेरे बाप का कुछ जाता है। जो भी आता है। उसी से आता है। जिसके सम्मुख हम झूठ बोल रहे हैं। झूठ बोलने से अगर कुछ भी नहीं आता है,तो कोई बात नहीं। कम से कम झूठ बोलने का अभ्यास ही हो जाता है। जो आगे काम आता है। अपने आप कोई नहीं फंसता है। उसे फंसाया जाता है। कैसे फंसाया जाता है? यह तरीका भी उसने ही बताया। जिस तरह से बकरे को हलाल करने से पूर्व उसे कुछ खिलाते-पिलाते है। उसके बाद हलाल करते है। उसी तरह से झूठ की कुव्वत से किसी को फंसाना है,तो पहले उसकी अच्छी तरह से खातिरदारी करों। फिर मौका देखकर बातों ही बातों में वह झूठबोल दो। जिससे अपना स्वार्थ सिद्ध होता है। बातों ही बातों में इसलिए,क्योंकि उसे शक नहीं हो कि बंदा झूठ बोलकर अपने को फंसा रहा है।
इसी ने बताया कि आज के युग में कौन झूठ बोल रहा है और कौन सच। यह परखना जरा मुश्किल है। झूठ सच लगता है और सच झूठ। तू तो आंख मूंद कर झूठ बोल। किसी सामने नहीं बोल सकता है,तो मोबाइल पर झूठ बोल। मोबाइल पर तो ज्ञानी से ज्ञानी भी मूर्ख बन जाता है। मसलन,दस- बीस किलोमीटर दूर बैठा व्यक्ति भी मोबाइल पर यही कहता है- दो मिनट में आ रहा हूं। पांच मिनट में पहुंच रहा हूं। नजदीक ही हूं। बस आ गया। इत्ती स्पीड तो हवाई जहाज की नहीं होती। जित्ती इन दो,पांच मिनट वालों की होती है। मैंने सलाह तो मान ली, लेकिन मुझसे  मोबाइल पर भी झूठ नहीं बोला जा रहा. सोचता हूं, झूठ हम बोलते है,बदनाम मोबाइल होता है। वह मोबाइल, जो हमारे सुख-दुख का साथी है। ऐसे साथी को भी हम झूठ बोलने में  क्‍यों शामिल करें। उसने हमारा क्‍या बिगाड़ा है!                          
            


नवभारत टाइम्‍स 06 अक्‍टुबर  2016