31 Jan 2017

विशेष छूट का विज्ञापन

एकाध दिन से देख रहा हूं कि धर्मपत्नी अखबार के पन्ने पलट-पलट कर, एक-एक विज्ञापन को बड़े गौर से देख रही है। जबकि ओर दिनों अखबार को देखना तो दूर उस पर नजर भी नहीं मारती है। उसे  यह भी पता नहीं रहता है कि आज के अखबार में मुख्य समाचार क्या छपा है? मुझे तो लगता है कि एकाध विज्ञापन की कटिंग भी काट कर रख रखी होगी। मैं धर्मपत्नी से जिक्र इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि जहां तक बचा जाए बचना चाहिए। पर धर्मपत्नी से बचना मुश्किल है।
सुबह-सुबह ही बोल दिया-अजी! सुनते हो। यह देखों! साड़ी का विज्ञापन। विशेष छूटआकर्षक इनामके साथ है। सीमित समय के लिए है। चलो शॉपिंग करने चलते है। ऐसा मौका बार-बार नहीं आता है।
मैंने कहा-आज मेरा मूड नहीं है। किसी ओर दिन देख लेंगे।
यह सुनकर वह झुंझलाती हुई बोली-किसी ओर दिन कब? ऐसा बढिय़ा ऑफर निकल जाएंगा तब। तुम्हें क्या पता। मैं कब से एक-एक विज्ञापन को देख रही हूं। कई विज्ञापनों की तो कटिंग भी काट कर रख रखी है। लेकिन इस विज्ञापन में जो है,उन में कतई नहीं है। बड़ी मुश्किल से तो आज इतना बढिय़ा ऑफर आया है। उसके लिए भी किसी ओर दिन के लिए टाल रहे हो।
मैंने कहा- ऑफर का क्या है। ऑफर तो आते-जाते रहते है।
धर्मपत्नी बोली- ऐसे ऑफर बार-बार नहीं आते सीमित समय के लिए आते हैं। एक तो दो साड़ी की खरीद पर एक साड़ी मुफ्त में मिल रही है। ऊपर से सुनिश्चित उपहार अलग से है। हो सकता है प्रथम प्राइज हमारे ही निकल आए। तुम किस्मत तो अजमाते हो नहीं। तुम्हें क्या पता ऑफर व उपहार के बारे में।
मैंने कहा-ऑफर वगैरह के चक्कर में मत पड़ों। तुम्हें इससे भी अच्छी साड़ी दिला दूंगा।
आप बात को टालने की कोशिश मत करों। यह देखों! साफगोई लिखा है,सुनिश्चित उपहार।’- धर्मपत्नी उस विज्ञापन को दिखाती हुई बोली।
मैंने कहा- यह सब तो ठीक है। लेकिन तुम समझ नहीं रही हो।
धर्मपत्नी बोली-अजी! मैं तो अच्छी तरह से समझ भी रही हूं और देख भी रही हूं। मुझे अब कुछ नहीं सुनना है। आप तो यह बताओं कि मेरी साथ शॉपिंग करने चले रहे हो या मैं खुद ही जाओं।
मैंने कहा-मैं तो नहीं चल रहा। तुम्हें जाना है,तो जाओं।
धर्मपत्नी बोली- मुझे तो पहले ही पता था कि तुम मेरे साथ नहीं चलोंगे। तुम मक्खीचूस जो ठहरे।यह कहकर वह बाजार के लिए रवाना हो गई। मैं भी उसके पीछे-पीछे चल दिया। वहां जाकर आंखों देखा लाइव कास्ट,मैं आपको बताता हूं।
धर्मपत्नी जी बाजार में उस दुकान पर गई,जिसका उसने विज्ञापन देखा है। वहां जाते ही उसने दुकानदार को विशेष छूटआकर्षक इनामका ऑफर याद दिलाया। ऑफर सुनकर दुकानदार  मुस्कुराया और धर्मपत्नी से कहा-बहिनजी! बैठये। इसे आपकी ही दुकान समझये। लीजिए,ठंठा पानी पीजिए।यह सुनकर धर्मपत्नी भी पुलकित हो गई। दुकानदार उसे एक से बढक़र एक साड़ी दिखाता है। एक-एक साड़ी का ऑफर बताता है। इस साड़ी पर यह ऑफर है। इस साड़ी पर यह आकर्षक इनाम है। है। हर साड़ी का अलग-अलग ऑफर सुनकर,धर्मपत्नी जी कंफ्यूज हो गई। कौनसी साड़ी लूं?और कौनसी नहीं लू? मुझे फोन लगाती है और कहती है-अजी! आप यहां पर आ जाए। यहां तो ऑफर्स की भरमार है।

मैंने कहा-ऑफर्स की भरमार तो होगी ही। जल्दी करों कहीं विशेष छूटआकर्षक इनामका ऑफर निकल नहीं जाए।यह कहकर मैंने फोन काट दिया। 

28 Jan 2017

झोलाछाप डॉक्टर सेवाराम


बात उन दिनों कि है,जब गांव में सरकारी अस्पताल नहीं था। तब दूर दराज से आया डॉक्टर सेवाराम ने क्लीनिक खोला था। उसने आते ही जो मुनादी की थी। वह अब भी बरकरार है। क्लीनिक के उद्घाटन अवसर पर गुड़ खिलाया था। उसकी वसूली आज तक जारी है। जबकि अब तो गांव में सरकारी उप स्वास्थ्य केन्द्र भी खुल गया है। एक मेल नर्स व एक एएनएम बैठती है। दोनों मरीजों की प्रतिक्षा में सरकारी कुरसी तोड़ते हैं। इनका भी कसूर क्या है? सरकारी कुरसी तोडऩे के लिए ही होती है। तबी तो नई कुरसी आएंगी। जिनके नसीब में सरकारी कुरसी नहीं हैं। वे घर पर भी कुरसी नहीं तोड़ सकते। घर की कुरसी तोडऩे की थोड़ी होती है। वह तो बैठने की होती है। गांव के सरकारी अस्पताल की कुरसी टुटने से बच सकती है। मरीज उधर से इधर आए तब। क्योंकि मरीजों के साथ कुरसी का भी इलाज होता है। वह भी तो गांव के सरकारी अस्पताल में स्वस्थ व चिरायु जीवने जीने आयी है। अन्यथा ओर कहीं भी जा सकती थी। मसलन,गांव की सरकारी स्कूल में जा सकती थी। ग्राम पंचायत भवन में जा सकती थी। डाकघर में जा सकती थी। नजदीकी पुलिस थाना में जा सकती थी।


डॉक्टर सेवाराम टू इन वन है। इनसानों के साथ पशुओं का भी इलाज करता हैं। मोटरसाइकिल के एक बगल में पशु दवा बैग और दूसरी बगल में इनसान दवा बैग लटका रहता है। ग्राहक का कब फोन आ जाए और कब जाना पड़ जाए। इसलिए आपातकालीन सेवा भी करनी पड़ती है। फोन आते ही मोटरसाइकिल के  किक मार चल देता है। यहां ग्राहक मरीज है और मरीज ग्राहक है। दुकानदार के लिए ग्राहक भगवान होता है और मरीज के लिए डॉक्टर भगवान स्वरूप होता है। अत:यहां पर डॉक्टर और मरीज दोनों भगवान स्वरूप हैं,एक-दूसरे के लिए। आप भले ही मोटरसाइकिल को एम्बुलेंस कह सकते है। रहित सायरन एम्बुलेंस,पर इसके साइलेंसर की ध्वनि ही दूरध्वनि है। जिसके सामने एम्बुलेंस सायरन की ध्वनि भी दब जाती है। मरीज क्लीनिक पर आए,चाहे डॉक्टर सेवाराम मरीज के घर पर जाए। कोई अतिरिक्त फीस नहीं। फीस दवाइयों में ही एडजस्ट कर ली जाती है। मोटरसाइकिल सहित अन्य खर्चा-पानी भी दवाइयों में पहले ही एड़ कर देता है। यह एड़ करता है और सरकारी अस्पताल में एडमिट करते हैं। सरकारी और झोलाछाप डॉक्टर में यहीं फर्क हैं। जो इस फर्क को पहचान गया वह हाई डोज से बच गया। जो नहीं पहचान पाया वह लूट गया और लूट लिया जाता है। और कई बार तो जान भी गवानी पड़ जाती है।


अनभिज्ञ व निरक्षर की दृष्टि में जो सुई लगाता है,वहीं डॉक्टर साहब! है। चाहे वह कम्पाउडर,नर्स ही क्यूं ना हो? या फिर देहात में फर्जी क्लीनिक खोलकर बैठा झोलाछाप डॉक्टर सेवाराम ही क्यूं ना हो? इनकों तो इलाज से मतलब है। डॉक्टर की गे्रड या डिग्री से नहीं। इनकी दृष्टि सोच,समझ की शक्ति से पहले ही परे होती है। अगर बची,खुची दृष्टि सोचने,समझने में लगा भी दी तो झोलाछाप दृष्टि बोल पड़ती है। इतना सोच-विचार मत कर। मुझ पर विश्वास है ना फिर काहे को टेंशन लेता है। ये ले तीन दिन की दवा,इसमें से सुबह-शाम लेनी है। ये एक बखत लेनी है और ये खाली पेट लेनी है। तीन तरह की, तीन रंग की,तीन पुडिय़ा है। याद नहीं रहे तो ऐसा करना। लाल पुडिय़ा सुबह-शाम की है और पीली पुडिय़ा एक बखत की है। सफेद वाली खाली पेट की है। इसके बाद भी कोई दिक्कत आए तो यहां चले आना।अनभिज्ञता व विश्वास चीज ही ऐसी है। एक बार जिसकी आंखों पर विश्वास की पट्टी बंध गई। उसे उतारना मुश्किल है। क्योंकि यह पट्टी बंधती नहीं बांधी जाती है। झोलाछाप डॉक्टर के पास जो मरहम पट्टी होती है वह यहीं तो काम आती है। और गांव के सरकारी अस्पताल में रखी मरहम पट्टी रखी-रखी एक्सपायरी डेट हो जाती है। यह तो हम भी जानते है कि मरहम पट्टी घाव भरने का कार्य करती है। पर जब मरहम पट्टी सरकारी एवं झोलाछाप के नाम से बंधती है। तब नाम के अनुरूप ही काम करती है।

डॉक्टर सेवाराम पता नहीं क्या जादू-टोना करता है? लोग जरा सा ताप बुखार होते ही सेवाराम की शरण में चले जाते हैं। जो बीमार नहीं हैं,वे चाय-पानी पीने आ जाते हैं। जब कोई केश बिगड़ता है तो इन्हीं को बुलाता हैं। यह दौड़े चले आते हैं। ले-देकर मामला रफा-दफा भी करवा देते हैं। देहात में पांच व्यक्तियों की बात सर्वप्रिय मानी जाती हैं। ताकि गांव की बात गांव तक रहे। कोर्ट-कचहरी तक नहीं जाए। अगर कोई डॉक्टर सेवाराम के खिलाफ पुलिस तक चल भी गया तो उससे पहले सेवाराम की सेवा हाजिर हो जाती है। इसका का नेटवर्क तगड़ा है। मेडिकल सतर्कता दल के आने से पूर्व ही भनक लग जाती हैं और उनके आने से पहले ही क्लीनिक बंद कर भग जाता है। यह मिलता नहीं और इस पर कार्यवाही होती नहीं। 

27 Jan 2017

पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है



मैं अपने पड़ोसी के बारे में क्या बताओं और क्या नहीं बताओंवह जब चाहे,तब चला आता है। नहीं समय देखता है और नहीं किसी से पूछताछ करता है। सीधा गेट खोलकर अंदर घुस आता है। जो चाहे उसको,उस वस्तु को उठाकर लिया जाता हैं। पूछते है,तो ऐसा बहाना बनाता है कि यकीन नहीं होतो भी यकीन करना पड़ता है। वह बोलता है,साहब! एक पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है। यह सुनकर मेरा सातवें आसमान में चढ़ा पारा भी उतर जाता है। नहीं उसे शर्म आती है और नहीं वह झिझकता है। बल्कि मुस्कुराता हुआ,सामान लेकर खिसकता है। उधार मांगकर लून,तेल,लकड़ी,हल्दी-मिर्च,मसाला तो आए दिन ले जाता हैं। कभी-कभी साग-सब्जी,दूध-दही,छाछ का भी प्रस्ताव रख देता हैं। महीने में एक-दो बार हजार-पांच सौ रूपए भी मांग लेता हैं । खुद से बात नहीं बनती है,तो बीवी,बच्चों को भेज देता हैं।

वह बहुत चतुर है। पहले उसने मेरी उंगुली पकड़ी। फिर उंगुली पकड़ते-पकड़ते पहुंचा पकड़ लिया। अब पता नहीं क्या पकडऩे की फिराक में हैमुझे भय हैकहीं गर्दन नहीं पकड़ ले। किसी दिन गर्दन पकड़ ली तो क्या होगाजो मांगेगा वह देना पड़ेगा। नहीं तो जान से हाथ धोना पड़ेगा। लेकिन वह ऐसा कदाचित  नहीं करेगा। क्योंकि वह मुझको अपना एटीएम समझता है। और वह अपने एटीएम को क्यों क्षति पहुंचाएंगाबल्कि वह तो सुरक्षित रखेगा। मैं ही तो उसका एक पड़ोसी हूं,जिसके घर बेरोकटोक चला आता है। और कुछ ना कुछ लेकर ही जाता है। मुझे याद नहीं पड़ता कि वह कभी खाली हाथ वापस गया, जब भी गया कुछ न कुछ लेकर ही गया।

मैं कई दफा उसको भला-बुरा भी कह चुका हूं। पर,वह एक कान से सुनता है और दूसरे कान से निकाल देता है। पूछता हूं तो ऐसा जवाब देता है कि दोबारा पूछने का मन ही नहीं करता। कहता है,‘साहब! बगैर काम की बात सुनने से क्या फायदाकाम की बात सुननी चाहिए। जिससे कोई ना कोई कार्य तो सिद्ध हो।’ मेरे इस पड़ोसी से सिवाय नुकसान के मुझे कोई फायदा भी तो नहीं। उसको किसी कार्य के लिए कहू तो टालमटोल कर जाता है। मेरे कार्य से पहले अपना कार्य बता देता है कि मैं फला कार्य में व्यस्त हूं। एक घंटे के लिए बाइक लेकर जाएंगा और तीन-चार घंटे बाद लौट आए तो गनीमत है। कई बार तो सुबह लेकर जाएंगा और देर शाम को वापस करने आएंगा। बाइक में पेट्रोल भी तब भरवाता होगा। जब रिजर्व में आ जाती होगी। उससे पंचर हो जाए तो उसके पैसे भी मेरे से वसूलने की सोचता है।

ऐसे पड़ोसी से कैसे पिंड छुड़ाऊंयह मेरी समझ में नहीं आता। किसी से राय-मशवरा करता हूं,तो वे लोग भी यहीं कहते हैं कि भाई! तुम भी कैसी बात करते हो। पड़ोसी के प्रति जो मन में भ्रम है,उसे निकाल दो। एक पड़ोसी ही पड़ोसी के काम आता है।

6 Jan 2017

संकल्प पहले ही दिन फेल


नूतन वर्ष पर,प्राय:जो संकल्प लेते हैं। वे थर्टी फर्स्‍ट  की रात जमकर एंजॉय करते होंगे। उनके लिए यह अंतिम रात होती है उस संकल्प की। सालभर का कोटा एक ही रात में पूरा कर लेते होंगे। मन ही मन सोचते हैं कि एक तारीख से सुबह जल्दी उठेंगे और भगवान का स्मरण करेंगे। अपने से बड़ों का सम्मान करेंगे। घर के आप-पास सफाई रखेंगे। जल विदोहन नहीं करेंगे। सहिष्णुता की भावना रखेंगे। कुछेक तो बाकायदा डायरी में अंकित करते हैं। इस वर्ष से अमुख चीज का त्याग करूंगा और अमुख का सेवन करूंगा। एकाध दिन तो वे अपनी दिनचर्चा में एकाएक आए बदलाव से खुश दिखते हैं। ज्यों-ज्यों दिन बीतते है और पूर्व भांति ही सामान्य होने लगते हैं। संकल्प-वंकल्प भूल जाते हैं।
मेरे परम मित्र जेठाराम ने थर्टी फर्स्‍ट  की रात को तीन संकल्प लिए थे। पहला संकल्प सुबह जल्दी उठूंगा और भगवान का स्मरण करूंगा। दूसरा संकल्प दारू नहीं पीऊंगा और तीसरा संकल्प लिया था-झूठ नहीं बोलूंगा।  थर्टी फर्स्‍ट  की रात को बारह बजे तक तो जमकर पार्टी की उसके बाद बधाई एवं शुभकामनाओं के आदान-प्रदान में चार बज गए। पांच बजे आकर सोया और आठ बजे उठा। नौ बजे भगवान का स्मरण किया। पहला संकल्प पहले ही दिन फ्लॉप हो गया।

शाम को वर्माजी के घर पर पार्टी थी। वर्माजी ने जेठाराम से कहा-आओं मित्र! पैग-सैग लगाते हैं।
यह सुनकर जेठाराम मुंह पर हाथ लगाते हुए बोला-वर्माजी! मैंने तो रात से दारू पीना छोड़ दिया है।
वर्माजी मुस्कुराते हुए बोले-रात में ही छोड़ी है तो रात में पी भी लो।
जेठाराम बोला-नहीं,नहीं,नहीं। मैंने संकल्प लिया है।
वर्माजी बोले- भाई! संकल्प ही तो लिया है। फेरे थोड़े लिए है। लोग तो फेरे लेने के बाद भी एक-दूसरे को छोड़े देते हैं। क्या तुम संकल्प नहीं तोड़ सकतेआज-आज पी लो कल से फिर से संकल्प ले लेना।
जेठाराम कुछ बोल पाता उसके पहले ही वर्माजी ने उसके हाथ में  दारू से भरा गिलास थमा दिया। और कहा- सोच-विचार मत करों। जल्दी से गटक जाओं। दूसरा पैग भी लेना है।
जेठाराम राम दुविधा में पड़ गया और सोचने लगा। भला एक बार पीने से क्या होता हैऐसा करता हूं। अब-अब पी लेता हूं। इसके बाद से नहीं पीऊंगा। सोचते-सोचते एक पैग गटक गया। वर्माजी से बोला- दूसरा पैग बनाओं। वर्माजी!
वर्माजी पैग बनाते हुए बोले- यह हुई ना तो दोस्ती वाली बात।
जेठाराम पार्टी खत्म करके घर लौटा तो श्रीमतीजी तुनुक कर बोली-आपने तो दारू नहीं पीने का संकल्प लिया था। फिर दारू क्यूं पीकर आए हो।
जेठाराम बोला-संकल्प तो लिया था। पर क्या है ना कि वर्माजी मान ही नहीं रहे थे। उनका मान रहने के लिए पीली।
यह सुनकर श्रीमतीजी ओर तुनुक गई और बोली-एक तो संकल्प तोड़ा है और ऊपर से झूठ और बोल रहे हो। आपने झूठ नहीं बोलने का संकल्प लिया था। वह भी तोड़ दिया।
यह सुनकर जेठाराम निरुत्तर हो गया और सोचने लगा संकल्प नहीं लेता तो ही अच्छा रहता । नूतन वर्ष के संकल्प पहले ही दिन फ्लॉप हो गए।

4 Jan 2017

स्ट्रीट लाइट का फ्यूज चिंतन

लो एक-दूसरे से पूछ रहे हैं। फ्यूज कैसे हुईकिसी ने फ्यूज कर दिया या फिर अपने आप हो गई। फ्यूज हुई है या खराब। अभी तक इसका पुष्टिकरण होना शेष है। अभी तो फ्यूज ही मानकर चल रहे हैं। उस दिन भी इस तरह की बात हो रही थी। जिस दिन विद्युत पोल के संग रिश्ता जुड़ा था। तब भी सब अपना-अपना राग अपनी-अपनी ढपली बजा रहे थे। वह भी रहित लय,सुर,ताल मिलाए। एक जनाब! कह रहा था कि लाइट की रोशनी चहंूओर फैले। इस तरह से मुंह करना। दूसरा कह रहा था कि इसकी रोशनी सिर्फ ओर सिर्फ रोड़ पर आनी चाहिए। नेताजी कह रहा था कि भैया इस तरह से लगाओं की इसकी रोशनी से सबके घर रोशन हो जाएं। इन सबकी बात सुनकर स्ट्रीट लाइट लगाने वाला कन्फ्यूज हो गया था। बड़ी मुश्किल से लगाकर गया था,बेचारा।

लो जी! अध्यक्ष जी गए। यह कहकर किसी ने सबका ध्यान खींचा। अध्यक्ष जी ने आते ही समिति के एक सदस्य से पूछा-‘अरे,भाई! चाय-नाश्ते की व्यवस्था  की है या नहीं। अगर नहीं की है,तो पहले चाय-नाश्ता लेकर आओं।’ एक महाशय बोला- ‘स्ट्रीट लाइट फ्यूज नहीं हुई है,फ्यूज की गई है।’ किसने की है फ्यूज। यह भी तुम जानते होंगे। किसी ने उससे पूछ लिया। उसने उत्तर दिया-‘मुझे क्या पताकिसने की है फ्यूज। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ है। इसलिए बोल दिया भाई! वरना मुझे क्या लेना-देना?’ यह सुनकर एक बंधु बोला-‘भाई साहब! लेना-देना कैसे नहीं हैक्या तुम मोहल्ले के वासी नहीं हो?’ इतना सुनकर वह निरूत्तर हो गया।

अल्पाहार के बाद फिर से बैठक प्रारम्भ हुई। इस बार अध्यक्ष जी ने अनुशासनात्मक रवैया अपनाया। हाथ-जोडक़र निवेदन किया और कहा-‘एक-एक आदमी से राय-मशवरा किया जाएंगा। सबके सुझाव रजिस्टर में अंकित किए जाएंगे। उसके उपरांत ही अंतिम निर्णय लेंगे। आपकी क्या राय है?’ सब एक स्वर में बोले यह ठीक है। किसी ने तर्क दिया तो किसी ने विर्तक दिया। एक महाशय ने अपना ही दुखड़ा रो दिया। पत्नी से हुई अनबन की कहानी सुना दिया। स्ट्रीट लाइट फ्यूज क्या हुईउसकी पत्नी ने उसका जीना हराम कर रखा है। बोलता है स्ट्रीट लाइट जलती थी,तो मेरे आंगन में रोशनी खिलती थी। जिससे हमारे एकाध बल्ब जलने से बच जाते थे और लाइट की बचत होती थी। यह सुनकर लोगों को हंसी गई। लेकिन एक नवयुवक ताव में आकर बोला-‘अध्यक्ष जी! भाषण-बाजी ही होती रहेगी। या फिर स्ट्रीट लाइट को दुरुस्त कराने की भी सोचेंगे।अध्यक्ष जी बड़ी शालीनता से बोले-‘भैया धैर्य रखों। उस संदर्भ में ही मीटिंग की है।अध्यक्ष जी की बात पूर्ण भी नहीं हुई थी कि  एक प्रश्न उछलकर आया। ‘लगता है होना-जाना तो कुछ है नहीं। स्ट्रीट लाइट को फ्यूज ही रहने दो। फ्यूज रहने से कम-से-कम मक्खी-मच्छर तो नहीं होंगे।
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