मुद्दा तो कुछ नहीं चाहता। जो कुछ चाहता है
वह मुद्दईगिरी चाहता है। मुद्दा तो अवाम के बीच में रहना चाहता है। अवाम के बीच
में,उसे जो सुख,चैन,शांति मिलती है। भला धरना-प्रदर्शन,अनशन स्थल पर कहां मिलती
है। वहां तो कोलाहल होता है। पुलिस,मीडिया की आवाजाही रहती है। लेकिन मुद्दईगिरी
उसे घसीटकर धरना-प्रदर्शन,अनशन,स्थल पर ले आता है। यहां से निजात नहीं मिलती तो
जंतर-मंतर,इंडि़या गेट,लिया जाता है। यहां से भी पार नहीं पड़ती तो लोकसभा,राज्यसभा
में लिया जाता है। मुद्दईगिरी मुद्दे का तब तक पिंड नहीं छोड़ता। जब तक खुद
सुर्खियों में आ नहीं जाएं। कुछेक मुद्दे तो बेचारे मुद्दों जैसे दिखते जरूर
हैं,पर मुद्दे होते नहीं। उनको भी तिकड़म-वकड़म करके मुद्दों की बिरादरी में शामिल
कर देता है। एक बार मुद्दों की बिरादरी में शामिल हो गया और मुद्दईगिरी ने दबोच
लिया। फिर उसकी हालत भी धोबी के कुत्ते जैसी हो जाती है,जो न घर का न घाट का रहता
है।
आप सोच रहे होंगे। मुद्दईगिरी ही मुद्दे को
क्यों घसीटता है? मुद्दे को मुद्दईगिरी नहीं घसीटेगा तो क्या आप हम घसीटेगे। भाई साहब!
आप हम ही घसीटते तो अवाम के बीच कोई मुद्दा नहीं रहता। यह तो शुक्र
करों की मुद्दईगिरी है। भले ही खुद के भले के लिए मुद्दईगिरी मुद्दे पर मुद्दागिरी
करता हो। नेता मुदत सिंह की तरह तो नहीं है,जो मुद्दे को भाषण की चाशनी में डूबोकर
उस का ऐसा मुरब्बा बना देता है। समझ में ही नहीं आता। मुद्दे से निजात दिला रहा
हैं या फिर मुरब्बा खिला रहा है। खैर छोड़ों।
सच्चा मुद्दईगिरी वहीं है,जो मद्दे से निजात
दिलाने से पूर्व उसे मीडिया से कवरेज करवाता है। उसके बाद विषय विशेषज्ञों से विश्लेषण
करवाता हैं। विश्लेषण के दौरान तर्क-वितर्क होती हैं। जिसमें तर्क-तर्क नहीं रहती
और वितर्क-विर्तक हो जाती है। कई बार लाठीचार्ज से भी भेंटवार्ता हो जाती है।
किंतु लाठीजार्च की शुभ घड़ी में,जो मुद्दईगिरी करने में पारंगत होता है। वह लाठी
से चार्ज नहीं होता। वह अपनी टोपी किसी ओर के सिर पर रखकर रफूचक्कर हो लेता हैं।
जिसके सिर पर टोपी होती है। उसकी लाठीचार्ज से भेंट होती है। लाठीचार्ज भेंटवार्ता
में जिसकी भेंटपूजा ज्यादा होती है। वह लाठीचार्ज से ऐसा चार्ज होता है। फिर अस्पताल
से ही डिस्चार्ज होता है।
कुछ भी कहों,जो भी किसी भी मुद्दे पर
मुद्दईगिरी करता हैं। सबसे पहले अपना उल्लू सीधा करता है। मुद्दे का क्या है? उसे निजात
मिले या ना भी मिले। उसका श्रेय मिलना चाहिए। श्रेय मिल गया तो समझों कुछ ना कुछ
मिल गया। जब कुछ ना कुछ मिल जाता है तो बहुत कुछ के लिए तिकड़म करता है। बहुत कुछ
प्राप्ति के उपरांत सब कुछ के लिए,कुछ ऐसा तिकड़म करता है। मुद्दे का सबकुछ उसे
ही मिल जाए। पर सबकुछ मिलना आसान थोड़ी है। सबकुछ के लिए ‘कुछ’ नहीं,बहुत कुछ करना पड़ता है। यह कुछ भी ना कुछ भी करवा
देता है। राजा को रंक और रंक को राजा बना देता है। कुछ में बहुत कुछ छिपा है,जो ‘कुछ’
का ‘कुछ’ रहस्य भी जान गया। वह मुर्दा व्यक्ति को भी मुद्दा बना देता है। उसको
तो मुद्दे से मतलब है। फिर चाहे मुद्दा जिंदा हो या मुर्दा। लेकिन हो मुद्दा।
मुद्दों का क्या है? इनका
आवागमन तो जारी रहता है। एक परलोक नहीं पहुंचता। उससे पहले दूसरे का आविर्भाव हो
जाता है। मुल्क में मुद्दों की भरमार है। कोई इस पार है,तो कोई उस पार है और कई
आर-पार है। जो आर-पार है,वे सदाबार हैं। जैसे महंगाई और भ्रष्टाचार। यह दोनों
बेलगाम घोडे़ हैं। जिधर मन करता है उधर ही दौड़ पड़ते हैं। इनकी राह में जो भी आता
हैं। उसे यह अपने पैरों तले कुचल देते हैं। इन पर तो वह भी सवार नहीं होता,जो अश्वरोही
होता है। ये दोनों घोड़े तो चाबुक मारने पर भी काबू में नहीं आते,बल्कि बिदक जाते
हैं। और इनसे तो मुद्दईगिरी भी डरता है। वह भी ऐसे मुद्दों पर मुद्दईगिरी करता
हैं। जिन पर करना कुछ भी ना पड़े और पूरा का पूरा श्रेय खुद को मिले। इन बेलगाम
घोड़ों पर लगाम तो अवाम ही लगा सकती है। अवाम के पास वह चाबुक है,पर उसका इस्तेमाल
नहीं करती। जिस दिन चाबुक उठा ली। उस दिन ये घोड़े तो क्या इनके बाप भी
हिनहिनाएंगे तक नहीं। मुद्दईगिरी का क्या है? उसे तो किसी
ना किसी मुद्दे पर मुद्दईगिरी ही करना है। किसी भी मुद्दे का नेस्तनाबूद तो आप और
हम ही कर सकते हैं।
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