29 Sept 2017

अच्‍छाई बुराई से जीत नहीं पाती

अच्‍छाई बुराई से जीत नहीं पाती
प्रतिवर्ष रावण दहन के समय बुराई पर अच्‍छाई की विजय भवःहोती आई है। उसके बावजूद भी अच्‍छाई विलुप्‍त और बुराई जाग्रत रहती है। समझ में नहीं आता कि जब रावण के साथ बुराई जलकर राख हो जाती है तो अगले ही दिन बुराई कहां से चली आती है और अच्‍छाई दुम दबाकर कहां भाग जाती है। बुराई से मुकाबला क्‍यों नहीं करती?  इसमें जरूर बुराई की ही चतुराई होगी या दुस्‍साहस होगा। चतुराई  तो क्‍या होगी? जिसकी बातों में आ जाती होगी। दुस्‍साहस ही होगा। जिसे देखकर अच्‍छाई की पतलून ढीली हो जाती होगी। फिर पतलून पकड़कर साइड में कहीं खड़ी हो जाती होगी या फिर घर ही चली आती होगी। क्‍योंकि पतलून को टाइट भी करना होता है। जो बीच बाजार में संभव नहीं। इतनी देर में बुराई अपना काम तमाम करके चलती बनती है। पीछे क्‍या है? बस,उसकी चर्चा आम होती है। जो होती रहती है।

मुझे तो विजयादशमी के दिन भी कभी कहीं अच्‍छाई नज़र नहीं आई। उस दिन भी ना कहीं ना कहीं बुराई अपना आतंक फैला रही होती है। अगले दिन अखबार में छाई होती है। दशहरा के दिन ‘विवाहिता की धारदार हथियार से हत्‍या’, ‘नाबालिग से बलात्‍कार और आरोपी फरार’,‘अपहरण हुए मासूम की मिली लाश’ कुछ इस तरह ही हैडलाइन होती है। जो बुराई की प्रतीक है। जिन्‍हें सुबह-सुबह अच्‍छाई भी चाय सुड़कती हुई पढ़ती है। अफसोस करके मन मसोस लेती है,पर मुंह नहीं खोलती और ना कुछ बोलती। बस,चुप रहती है। कई दफा तो इसके सम्‍मुख ही बुराई हावी होती रहती है और यह मुंह ताकती रहती है। पता नहीं अच्‍छाई बुराई से क्‍यों डरती है? जबकि जीत उसकी ही होती है। बस,देर हो सकती है। पर अंधेर नहीं।
यह सच है कि जंहा बुराई है,वहीं आसपास अच्‍छाई भी होती है। लेकिन अच्‍छाई तो देख बुराई को मुंह फेर लेती है। जबकि उस वक्‍त मुंह फेरने के बजाय मुंहतोड़ जवाब दे। फिर देखना बुराई तो भागती हुई जाएंगी और दुबारा आने की हिमाकत भी नहीं कर पाएंगी। पर ऐसा अच्छाई कर नहीं पाती। कर पाती है तो मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाती होगी। समझा-बुझाकर कर ही वहां से खुद ही खिसक लेती होगी। यह देखकर बुराई मन ही मन खुश होती होगी। क्‍योंकि बुराई की चर्चा तो आग की तरह फैलती है और अच्‍छाई धीरे-धीरे पनपती है। जबी तो बुराई बुरे काम करके निकल लेती है। बुरे काम करके धमकी ओर देती है। जबान खोली तो जबान काट दूंगी। काटकर खूंटी के टांग दूंगी। यह सुनकर ज़बान पर दहशत का ताला लग जाता है। ताले की चाबी हाथ में होते हुए भी दहशत का ताला खोलने की हिम्‍मत नहीं होती। क्‍योंकि हिम्‍मत को बदनामी दबोच लेती है। शायद इसलिए जबान पर लटकता हुआ दहशत का ताला चिढ़ता है,क्‍या बिगाड़ लिया?

जब बुराई का कुछ बिगड़ता नहीं तो बुराई ओर बिगड़ती चली जाती है। एक ना एक दिन ऐसी बिगड़ जाती है कि सरेआम शर्मसार कर देती है। कमबख्‍त को उस वक्‍त शर्म भी तो नहीं आती। शर्म क्‍यों आएंगी? उस वक्‍त तो मजा आता होगा। दूसरों की इज्‍जत उछालने में। लेकिन बुराई लाख चाहे खुश हो ले। अंत तो उसका बुरा ही होता है और अच्‍छाई की तो सदैव ही विजय भवःहोती है। 

23 Sept 2017

भैया इंग्लिश का जमाना है

चिंटू तुझे कित्‍ती बार मना किया है। भैया इंग्लिश का जमाना है  हिंदी में बात नहीं करते। इंग्लि‍श मीडियम के बच्‍चे इंग्लिश में वार्ता करते हैं। चलों अंकल को अपना नाम बताओं। अंकल जी माई नेम इज चिंटू। यह सुनकर अंकल जी प्रसन्‍न हो गया और कहा- वैरी गुड बेटे। इसी तरह से अंकल ने चिंटू से मम्‍मी-पापा का नाम पूछा और चिंटू ने तपाक से बता दिया। जब चिंटू से देश के प्रधानमंत्री के बारे पूछा कि बताओं अपने देश का प्रधानमंत्री कौन है? यह सुनकर चिंटू मौन हो गया और मुंह में उंगुली चबाने लगा। चिंटू की मम्‍मी बोली भैया इंग्लिश में पूछों-अंकल इंग्लिश में पूछे उससे पहले चिंटू ने सिर हिलाकर मना कर दिया।
भैया इंग्लिश का जमाना है 
यह देख, चिंटू की मम्‍मी ने जट से चिंटू की प्रिंसीपल को फोन लगाया। प्रिंसीपल ने फोन उठाया और कहा- हैलो कौन? मैं चिंटू की मम्‍मी बोल रही हूं। हां मैडम बोलिए। चिंटू को प्रधानमंत्री का नाम तक मालूम नहीं हैं। आप क्‍या खाक पढ़ाते है। मैडम ऐसी बात नहीं है। तो कैसी बात ? वह भी बता दीजिए। पहले तो आप शांत हो जाए। क्‍या शांत-शांत लगा रखा है। फीस तो मोटी लेते हो और बच्‍चों को मम्‍मी पापा के नाम रटवाकर वाहवाही लूटते हैं। तुमसे अच्‍छे तो हिंदी मीडियम वाले ठीक है,जो बच्‍चों को पढ़ाते भले ही कम हो। लेकिन वे जित्‍ती फीस लेते हैं उत्‍ता ज्ञान तो देते हैं। यह कहकर चिंटू की मम्‍मी ने फोन काट दिया।

भैया आप बैठए। मैं आपके लिए चाय लाती हूं। भैयाजी चिंटू को अपने पास बोलकर पूछने लगे बताओं चिंटू तुम्‍हें ओर क्‍या क्‍या आता है? पॅायम आती है। टेबल आती है। गिनती आती है। ओर क्‍या आता है? बस यहीं आता है। अच्‍छा तो कोई पॉयम सुनाओं। मछली जल की रानी है,जीवन उसका पानी है। हाथ लगाओं डर जाएंगी,बाहर निकालों मर जाएंगी। चिंटू यह तो हिंदी की पॉयम है। अंग्रेजी में सुनाओं। अंकल इंग्लिश में नहीं आती। इंग्लि‍श में क्‍यों नहीं आती है बेटे? अंकल जब मैडम पॉयम सुनाती है ना तो मेरी समझ में नहीं आती है। समझ में क्‍यों नहीं आती? अरें,अंकल समझ में तो मैडम के भी नहीं आती। तुम्‍हें कैसे पता मैडम के समझ में नहीं आती। अंकल पिंटू ने बताया था।

इत्‍ते में चिंटू की मम्‍मी चाय लेकर आ गर्इ। भैयाजी चाय सुड़कते हुए बोले-भाभाजी चिंटू को इंग्लिश मीडियम स्‍कूल से अच्‍छा है हिंदी मीडियम में पढ़ाओं। इसकी हिंदी में अच्‍छी पकड़ है। अरे, भैया आप क्‍या बोल रहे है? हिंदी के दिन गए। अब तो जमाना ही इंग्लिश का है। वह कमला है ना जो खुद निरक्षर है पर अपने बच्‍चे को इंग्लिश मीडियम स्‍कूल में भेजती है और बहादूर की लड़की तो फराटे दार इंग्लिश बोलती है। जबकि बहादूर को सही ढ़ग से हिंदी भी नहीं आती। भाभाजी आपने मेरी बात समझी नहीं। बच्‍चे को उसकी हॉबी के मुताबिक पढ़ाना चाहिए। मनोविज्ञान भी यही कहता है। कौन क्‍या कहता है? यह महत्‍तव नहीं रखता। आजकल शहर तो शहर गांवों बच्‍चे भी इंग्लिश मीडियम स्‍कूलों में पढ़ने जाते हैं। भैया प्रतिस्‍पर्धा का युग है। यह सुनकर भैयाजी तो चुप हो गए। लेकिन चिंटू का क्‍या होगा ?

10 Sept 2017

काश जुकाम न लगे

भाई साहब! कित्ती ही सावधानी बरत लो। जुकाम तो हो जाती है। होने के बाद निकल भी जाती है। लेकिन हैरान करके रवानगी लेती है। जुकाम की फितरत है कि दबे पाव आती है और आते ही कब्जा जमाती है। जहां इसकी दाल गल जाती है,वहां से जल्दी सी निकलती नहीं और जहां दाल गल नहीं पाती,वहां से पतली नाक से निकल लेती है। इसके आने जाने का कोई शेड्यूल तो होता नहीं। कब कहां किस मोड़ पर आ ठहरे और कब किस मोड़ पर साथ छोड़ दे कोई पता नहीं। जुकाम आतंकी की तरह होती है,जो नासिका की सरहद पर से छींक दागती है तो नासिका से निकलने वाला पदार्थ ओष्ठ पर आकर गिरता है। कई दफा तो ओष्ठ से लुढ़कर मुंह में घुसने का प्रयास करता है,पर उसके मनसूबे पर रूमाल फिर जाता है। क्योंकि रूमाल नासिका का सच्चा साथी है,जो उसकी हरदम हिफाजत करता है।काश जुकाम न लगे
जब भी नासिका और जुकाम के बीच जंग छिड़ती है तबी सबसे पहले रूमाल ही मुकाबला करता है। दवा,घरेलु नुस्खे तो बाद में आते हैं। वे भी ड्यूटी पर होते हैं तो आते हैं अन्यथा अपने डिब्‍बे में सुस्त रहते हैं। बेचारा रूमाल ही मुकाबला करता रहता है। लड़ते-लड़ते नासिका पदार्थ से लथपथ भी हो जाता है,फिर भी हार नहीं मानता। अकेला ही जंग के मैदान में डटा रहता है। जंग के समय तो रूमाल जेब में कम और नासिका क्षेत्र के आस-पास ज्यादा ड्यूटी देता है। ताकि दुश्मन का नेस्तनाबूद करता रहे। लेकिन दुश्मन है कि अपने मनसूबों से बाज ही नहीं आता। जबकि उसे हर बार मुंहतोड़ जवाब दिया जाता है। साला आदत से लाचार है। उसे पता नहीं जब कभी आमने-सामने की टक्कर हो गई ना तो साले का आचार डाल दिया जाएंगा।                            
काश जुकाम न लगे

भाई साहब! जुकाम भी ना कई बार तो इत्ती कुपित हो जाती है कि पूरी नासिका घाटी लाली हो जाती है और नासिका मार्ग से लेकर गला मार्ग में कफ्र्यू लग जाता है। जिससे आवागमन बंद हो जाता है। जब नासिका और गला मार्ग का आवागमन बंद होता है। तब ना दिमाग की बत्ती जलाने पर भी नहीं जल पाती है। जब दिमाग की बत्ती गुल होती है ना तो देह अंग हड़ताल पर उतर आते हैं। उनकी मांग होती है कि दिमाग की बत्ती जलाओं और हमें बचाओं। उस वक्त दिमाग की बत्ती कैसे जलाए। क्योंकि हालात इत्ती नाजुक होती है कि डॉक्टर द्वारा दी गई दवा भी काम करना बंद कर देती है। जब तक दिमाग की बत्ती नहीं जलती, देह अंग ना तंग करते रहते हैं और अपनी मांग पर अटल रहते हैं। वैसे इनकी मांग भी जायज है। क्योंकि दिमाग की बत्ती गुल होने पर देह अंगों के भी अंधेरा छा जाता है।
यह तो शुक्र है कि जुकाम स्थायी नहीं रहती। कुछेक दिन रहकर चलती बनती है। अगर स्थायी रहने लग जाए,तो समझों नासिका का नाश तय है और दिमाग का दही। जब दिमाग का दही बनता है तो क्रोध छाछ बनने में भी देर नहीं लगती। क्रोध छाछ ऐसी छाछ है जिसे पीने पर काया तृप्त नहीं,बल्कि सीने में जलन होती है। सीने के जलने से,जो धुआं निकलती है वह तड़फ से भरी होती है और तड़फती धुआं इत्ती घुलनशील होती है कि व्यक्ति घुट-घुटकर दम तोड़ देता है। वैसे जुकाम की मनसा तो होती है स्थायी रहने की पर मेडिकल साइंस खदेड़ देती है। 
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 मैं तो सलाम करता हूं,उनको जिनके जुकाम होती रहती हैं और वे परवाह तक नहीं करते। पस्त होकर खुद-ब-खुद ही चलती बनती है। इससे एक बात तो समझ में आती है,जुकाम होते ही जुकाम का काम तमाम कर दो या फिर उसकी परवाह ही मत करों। लेकिन मैं तो जरा सा बेपरवाह हो जाता हूं,तब ही मुझे तो ससुरी खाट पर लेटा देती और सिर पर चढ़कर तांडव मचाती है। जब यह तांडव करती है ना मेरे तो दिमाग में घंटी बजने लगती है और कान के पर्दे हिलने लगते है। तब मैं सीधा डॉक्टर साहब के पास जा थमता हूं। फिर भी ना मेरा पीछा नहीं छोड़ती। जी तो करता है ससुरी का टेंटुआ दबा दू,पर उसमें भी मेरा ही नुकसान है। इसीलिए मैं तो दवा-पानी से ही टरकाने का प्रयास करता हूं। सच तो यह है कि मैं जुकाम से दुखी हूं। इत्ता दुखी हूं कि घर में ही दुबका रहता हूं। कहीं आता-जाता ही नहीं। क्योंकि जहां भी जाता हूं,वहीं टोक देते है। कहते है- मोहन भाई! अभी तुम्हारी जुकाम निकली ही नहीं। उन्हें कैसे समझाऊं। मुझे जुकाम होती रहती है। यह भी नहीं कि मैं दवा नहीं लेता। अंग्रेजी,देशी,घरेलु नुस्खे सब अजमा चुका हूं। अब तो प्रभू से प्रार्थना करता हूं काश जुकाम न लगे।

8 Sept 2017

जेल गए बाबा की कहानी

बाबा के अनुयायी बाबा की कहानी सुनाते हैं। जिसके कहानी समझ में आ गई वह बाबा का अनुयायी हो गया और जिसके समझ में नहीं आई वह सोचने पर मजबूर हो गया। कहानी जो मजबूर हो गया समझों वह भी एक दिन बाबा का अनुयायी बन गया और अनुयायी बनने के बाद फिर वह भी बाबा की कहानी सुनाता है और एक नया अनुयायी बनाता है। जो नया-नया अनुयायी बनता है और बाबा के आश्रम में पहुंचता है वह बाबा के दर्शन करके अपने आपको धन्य समझता है। उसे लगता है जैसे साक्षात भगवान के दर्शन हो गए। बस,उसी दिन से बाबा को भगवान मान बैठता है और बाबा भी अपने आपको भगवान समझ बैठता है।

कहते है कि पैसा भगवान तो नहीं है,लेकिन भगवान से कम भी नहीं है और बाबा के पास तो करोड़ों हैं। करोड़ों ही अनुयायी हैं। जिसके पास करोडों में पैसा और अनुयायी हो वह अपने आपको भगवान तो समझेगा ही। किंतु अनुयायी कहानी में यह सब नहीं सुनाता है। कहानी में तो कल्याण और कल्याण से जुड़ी कल्याणी होती है। कल्याण आश्रम में और कल्याणी का कल्याण गुफा में होता है। जहां बाबा होता है और कल्याणी होती है। उस वक्त बाबा राजा और कल्याणी बाबा की रानी होती है। क्योंकि गुफा किसी राजमहल से कम नहीं है। बल्कि ज्यादा ही है। गुफा राजमहल में कल्याणी रानी जबरन बनती है या फिर किसी जादू-टोने से सम्मोहित होती है यह तो बाबा ही जानता है। कहानी
बाबा का चरित्र कहानी में विचित्र होता है। लेकिन कहानी में यह तब आता है जब अनुयायी नहीं,मीडिया सुना रहा होता है। क्योंकि अनुयायी तो वहीं सुनाती है,जो बाबा बताता है और हकीकत मीडिया सामने लाता है। जब बाबा की पोल खुलती है और बाबा गिरफ्त में होता है। तब ना बाबा के अनुयायी बाबा को बचाने के लिए आश्रम पहुंच जाते हैं। तोड़फोड़ करते हैं। वाहन फूंकते हैं। क्षति पहुंचाते हैं। खुद भी क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। फिर उनकी क्षतिपूर्ति अस्पताल में होती है और जिनकी अस्पताल में नहीं होती उनकी श्मशान में होती है। उनसे पूछते है तो कहते हैं कि यह तो बाबा को फंसाने का षड्यंत्र है। उन्हें यकीन नहीं होता। यकीन हो भी कैसे? भक्त होते तो यकीन कर लेते पर वे ठहरे अंधे भक्त। अंधे भक्त तो बाबा के वक्तव्य पर ही यकीन करते हैं। मुझे तो लगता है इन्हें यकीन तब भी नहीं हुआ होगा। जब बाबा आश्रम से जेल पहुंच गए। खैर,बीस साल की सजा हुई है,इत्ते दिनों में यकीन हो ही जाएंगा।
लेकिन फिर कोई ऐसा बाबा पैदा हो जाएंगा। क्‍योंकि भारत तो बाबा प्रधान देश है। जिसमें एक जेल जाता है और दूसरा आता है। इनका क्‍या जाता है। लूट तो भोली भाली जनता जाती है। जो बाबा के अनुयायी से उसकी कहानी सुनकर ही बाबा के आश्रम पहंच जाती हैं। वहां जनता की अस्‍मत फिर लूट ली जाएंगी,वह लाज शर्म के मारी अपनी कहानी बंया नहीं कर पाती है। ऐसे में बाबाओं का हौंसला बढ़ जाता हैं। जबकि बाबाओं को वहीं पर सबक सीखाना चाहे।








5 Sept 2017

कभी नहीं घटे,शिक्षक का आदर-सत्‍कार

शिक्षक का नाम मन-मस्तिष्क में आते ही हमारे समाज में एक अलग रूपरेखा निर्मित हो जाती है। शिक्षक समाज, देश का पथप्रदर्शक होता है। एक शिक्षक देश को बना सकता है, तो देश का विनाश भी कर सकता है। देश का भविष्य कैसा होगा, यह शिक्षकों के हाथों में समाहित होता है। गुरु का स्थान हमारे पुरातन संस्कृति में भगवान से बढ़कर बताया गया है। तभी तो यह उक्ति प्रचलित है, गुरु गोविंद दो खड़े, काके लागु पाय,बलिहारी गुरु आपसे गोविंद देऊ बताए।शिक्षक घर,परिवार,समाज में आदरणीय व सम्माननीय स्थान रखता है। माता-पिता के बाद शिक्षक ही बच्चों के भविष्य का निर्माण करता है। छात्रों को अच्छे संस्कार से अवगत कराता है। एक गुरु की तुलना हम एक कुम्हार और जौहरी से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक कुम्हार बिखरी हुई मिट्टी को समायोजित करते हुए उसे घड़े का आकार देता है, वहीं काम एक शिक्षक समाज और देश के लिए करता है। बड़ों के प्रति आदर-सत्कार व सेवा-भावना  की प्रेरणा शिक्षक से ही मिलती हैं। एक शिक्षक की दृष्टि में सभी छात्र समान होते हैं, और वह सभी का भला चाहता है। वह अपने शिष्यों को सही-गलत व अच्छे-बुरे की पहचान करवाते हुए उनकी नींव मजबूत करता हैं और उन्हें एक साचे में ढालकर कामयाबी की सीढ़ी तक पहुंचाता हैं। ताकि वे अपने मंजिल तक पहुंच जाएं। किताबी ज्ञान के साथ नैतिकता की शिक्षा देकर अच्छे चरित्र का निर्माण करता है।

शिक्षक की तुलना उस संचालक से की जा सकती है,जिसके बिना जीवन रूपी गाड़ी का कोई औचित्य नहीं। जिस प्रकार महंगी से महंगी गाड़ी, बिना संचालक के बैलगाड़ी के समतुल्‍य है, उसी तरह बिना गुरु के जीवन का कोई सार्थक मूल्य नहीं। लेकिन वर्तमान परिवेश में शिक्षा जगत व्यापार बन गया है। गुरु-शिष्य के बीच वे संबंध अब नही रहे, जो गुरुकुल परम्परा या प्राचीन समय में थे। आज के कई शिष्य तो अपने शिक्षक के चरण छूने में भी शर्म महसूस करते हैं, तो कई शिक्षक भी अपने छात्रों का शारीरिक और मानसिक शोषण करते हैं। दूसरे अर्थों में आज गुरु-शिष्य की वास्तविक परिकल्पना ही नज़र नहीं आती। शिक्षक भी जब शिष्य के स्तर पर आकर छात्रों से व्यवहार करने लगते हैं, फिर उनकी व्यवहारिकता और प्रभावित होने लगती है। आज अगर गुरु-शिष्य का संबंध मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रह गया है। तो यह रवायत भी सही नहीं है। सभ्य समाज में गुरु को ईश्वर से भी बड़ा माना गया हैं। वह परम्परा समाज से गुम नहीं होनी चाहिए। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को अपना गुरु मानकर उनकी मूर्ति को अपने सक्षम रख धनुर्विद्या सीखी, लेकिन आज न द्रोण जैसे शिक्षक है, और न ही एकलव्य जैसे छात्र। आज तो छात्र शिक्षा को खरीदी जाने वाली वस्तु, और शिक्षक ने शिक्षा को व्यवसाय बना दिया है। किंतु इन सब के इतर आज भी हमारे समाज में ऐसे शिक्षक हैं। जिन्होंने हमेशा समाज के सामने एक अनुकरणीय मिशाल पेश किया है। जिनकी हम जितनी सराहना करें, वह कम ही होगी। 
देश के द्वितीय राष्ट्रपति डा.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में मनाया जाने वाला शिक्षक दिवस हर वर्ष 5 सितम्बर को एक पर्व की तरह मनाया जाता है। जो शिक्षक समुदाय की गरिमा को बढ़ाता है। भारत में प्राचीन काल से ही गुरु-शिष्य की परम्परा चली आ रही है। जो आज भी विद्यमान है। लेकिन अब धन के बल पर शिक्षा लेने और देने का कारोबार फल-फूल रहा है। जिसमें ज्ञान अर्जित नहीं होता,बल्कि परीक्षा में उत्तीर्ण होने के फार्मूलों के साथ रटाया जा रहा है। बदलते समय के मुताबिक जरूरत किताबी ज्ञान के साथ व्यवहारिक,सुसंस्कारी,मनोवैज्ञानिक ज्ञान की शिक्षा देने की है। जिससे आज के छात्र में भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति का भी अंतर्भाव रहे। इसके अलावा शिक्षक दिवस पर अपने टीचर को गुलाब का पुष्प या कोई उपहार देने से बढ़कर हैं, आज की छात्र पीढ़ी उनका आदर-सम्मान करें,  और उनके द्वारा बताएं गए मार्ग पर चले। तब शिक्षक दिवस मनाने का महत्त्व अधिक सार्थक सिद्ध होगा। क्योंकि टीचर का संबंध केवल शिक्षा तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वह तो हर मोड़ पर अपने शिष्य का हाथ थामने के लिए आमादा रहता है। 
जहां कहीं भी शिष्य विचलित होता है या अपनी राह से भटकर दूसरी राह पर चलने लगता है। तब टीचर को बहुत दुख होता है। क्योंकि उसके द्वारा,जो बीज रोपकर पौधा धीरे-धीरे पेड़ बनने के लिए आमादा था। वह पेड़ बनने से पूर्व टूटने के कगार होता है तब सबसे ज्यादा दुख टीचर को ही होता है। इसी स्थिति में उसी पथ पर वापस लाले के लिए शिष्य को अपने पास बुलाता है और समझाता है। जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है और यह एक शिक्षक का कर्तव्य भी है। कई बार शिक्षक अपने शिष्यों को डांट-फटकार देता है, तो कई छात्र कुपित हो जाते हैं। छात्र कुपित होने की बजाय यह जानने की कोशिश करें कि उसने क्या गलती की है? जो टीचर ने मुझे डांटा है। साथ ही साथ आज गुरु- शिष्य की परम्परा को पुनर्जन्म की आवश्यकता भी है,जिससे समाज को सही दिशा मिल सके। शिक्षा मात्र पठन और पाठन का जरिया न रहकर, आपसी स्नेह, और विचारों के प्रवाह की धारा बन सके, जो आज टूटता दिख रहा है। उसे टूटने से बचाया जाए।