भाई साहब! कित्ती ही
सावधानी बरत लो। जुकाम तो हो जाती है। होने के बाद निकल भी जाती है। लेकिन हैरान
करके रवानगी लेती है। जुकाम की फितरत है कि दबे पाव आती है और आते ही कब्जा जमाती
है। जहां इसकी दाल गल जाती है,वहां से जल्दी सी निकलती नहीं और जहां दाल गल नहीं पाती,वहां से पतली नाक
से निकल लेती है। इसके आने जाने का कोई शेड्यूल तो होता नहीं। कब कहां किस मोड़ पर
आ ठहरे और कब किस मोड़ पर साथ छोड़ दे कोई पता नहीं। जुकाम आतंकी की तरह होती है,जो नासिका की
सरहद पर से छींक दागती है तो नासिका से निकलने वाला पदार्थ ओष्ठ पर आकर गिरता है।
कई दफा तो ओष्ठ से लुढ़कर मुंह में घुसने का प्रयास करता है,पर उसके मनसूबे
पर रूमाल फिर जाता है। क्योंकि रूमाल नासिका का सच्चा साथी है,जो उसकी हरदम
हिफाजत करता है।काश जुकाम न लगे
जब भी नासिका और जुकाम के
बीच जंग छिड़ती है तबी सबसे पहले रूमाल ही मुकाबला करता है। दवा,घरेलु नुस्खे तो
बाद में आते हैं। वे भी ड्यूटी पर होते हैं तो आते हैं अन्यथा अपने डिब्बे में सुस्त
रहते हैं। बेचारा रूमाल ही मुकाबला करता रहता है। लड़ते-लड़ते नासिका पदार्थ से
लथपथ भी हो जाता है,फिर भी हार नहीं
मानता। अकेला ही जंग के मैदान में डटा रहता है। जंग के समय तो रूमाल जेब में कम और
नासिका क्षेत्र के आस-पास ज्यादा ड्यूटी देता है। ताकि दुश्मन का नेस्तनाबूद करता
रहे। लेकिन दुश्मन है कि अपने मनसूबों से बाज ही नहीं आता। जबकि उसे हर बार
मुंहतोड़ जवाब दिया जाता है। साला आदत से लाचार है। उसे पता नहीं जब कभी
आमने-सामने की टक्कर हो गई ना तो साले का आचार डाल दिया जाएंगा।
काश जुकाम न लगे
काश जुकाम न लगे
भाई साहब! जुकाम भी ना कई
बार तो इत्ती कुपित हो जाती है कि पूरी नासिका घाटी लाली हो जाती है और नासिका
मार्ग से लेकर गला मार्ग में कफ्र्यू लग जाता है। जिससे आवागमन बंद हो जाता है। जब
नासिका और गला मार्ग का आवागमन बंद होता है। तब ना दिमाग की बत्ती जलाने पर भी
नहीं जल पाती है। जब दिमाग की बत्ती गुल होती है ना तो देह अंग हड़ताल पर उतर आते
हैं। उनकी मांग होती है कि दिमाग की बत्ती जलाओं और हमें बचाओं। उस वक्त दिमाग की
बत्ती कैसे जलाए। क्योंकि हालात
इत्ती नाजुक होती है कि डॉक्टर द्वारा दी गई दवा भी काम करना बंद कर देती है। जब
तक दिमाग की बत्ती नहीं जलती, देह अंग ना तंग करते रहते हैं और अपनी मांग पर अटल रहते
हैं। वैसे इनकी मांग भी जायज है। क्योंकि दिमाग की बत्ती गुल होने पर देह अंगों के
भी अंधेरा छा जाता है।
यह तो शुक्र है कि जुकाम
स्थायी नहीं रहती। कुछेक दिन रहकर चलती बनती है। अगर स्थायी रहने लग जाए,तो समझों नासिका
का नाश तय है और दिमाग का दही। जब दिमाग का दही बनता है तो क्रोध छाछ बनने में भी
देर नहीं लगती। क्रोध छाछ ऐसी छाछ है जिसे पीने पर काया तृप्त नहीं,बल्कि सीने में
जलन होती है। सीने के जलने से,जो धुआं निकलती है वह तड़फ से भरी होती है और तड़फती धुआं
इत्ती घुलनशील होती है कि व्यक्ति घुट-घुटकर दम तोड़ देता है। वैसे जुकाम की मनसा
तो होती है स्थायी रहने की पर मेडिकल साइंस खदेड़ देती है।
मैं तो सलाम करता हूं,उनको जिनके जुकाम
होती रहती हैं और वे परवाह तक नहीं करते। पस्त होकर खुद-ब-खुद ही चलती बनती है।
इससे एक बात तो समझ में आती है,जुकाम होते ही जुकाम का काम तमाम कर दो या फिर उसकी परवाह
ही मत करों। लेकिन मैं तो जरा सा बेपरवाह हो जाता हूं,तब ही मुझे तो ससुरी
खाट पर लेटा देती और सिर पर चढ़कर तांडव मचाती है। जब यह तांडव करती है ना मेरे तो
दिमाग में घंटी बजने लगती है और कान के पर्दे हिलने लगते है। तब मैं सीधा डॉक्टर
साहब के पास जा थमता हूं। फिर भी ना मेरा पीछा नहीं छोड़ती। जी तो करता है ससुरी
का टेंटुआ दबा दू,पर उसमें भी मेरा
ही नुकसान है। इसीलिए मैं तो दवा-पानी से ही टरकाने का प्रयास करता हूं। सच तो यह
है कि मैं जुकाम से दुखी हूं। इत्ता दुखी हूं कि घर में ही दुबका रहता हूं। कहीं
आता-जाता ही नहीं। क्योंकि जहां भी जाता हूं,वहीं टोक देते है। कहते है- मोहन भाई! अभी तुम्हारी जुकाम
निकली ही नहीं। उन्हें कैसे समझाऊं। मुझे जुकाम होती रहती है। यह भी नहीं कि मैं
दवा नहीं लेता। अंग्रेजी,देशी,घरेलु नुस्खे सब
अजमा चुका हूं। अब तो प्रभू से प्रार्थना करता हूं काश जुकाम न लगे।
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