अच्छाई बुराई से जीत नहीं
पाती
प्रतिवर्ष रावण दहन के समय बुराई पर अच्छाई की
विजय भवःहोती आई है। उसके बावजूद भी अच्छाई विलुप्त और बुराई जाग्रत रहती है।
समझ में नहीं आता कि जब रावण के साथ बुराई जलकर राख हो जाती है तो अगले ही दिन
बुराई कहां से चली आती है और अच्छाई दुम दबाकर कहां भाग जाती है। बुराई
से मुकाबला क्यों नहीं करती? इसमें जरूर बुराई की ही
चतुराई होगी या दुस्साहस होगा। चतुराई तो क्या होगी? जिसकी बातों में आ जाती होगी। दुस्साहस ही
होगा। जिसे देखकर अच्छाई की पतलून ढीली हो जाती होगी। फिर पतलून पकड़कर साइड में
कहीं खड़ी हो जाती होगी या फिर घर ही चली आती होगी। क्योंकि पतलून को टाइट भी
करना होता है। जो बीच बाजार में संभव नहीं। इतनी देर में बुराई अपना काम तमाम करके
चलती बनती है। पीछे क्या है? बस,उसकी चर्चा आम होती है। जो होती रहती है।
मुझे तो विजयादशमी के दिन भी कभी कहीं अच्छाई
नज़र नहीं आई। उस दिन भी ना कहीं ना कहीं बुराई अपना आतंक फैला रही होती है। अगले
दिन अखबार में छाई होती है। दशहरा के दिन ‘विवाहिता की धारदार हथियार से हत्या’, ‘नाबालिग
से बलात्कार और आरोपी फरार’,‘अपहरण हुए मासूम की मिली लाश’ कुछ इस तरह ही हैडलाइन
होती है। जो बुराई की प्रतीक है। जिन्हें सुबह-सुबह अच्छाई भी चाय सुड़कती हुई
पढ़ती है। अफसोस करके मन मसोस लेती है,पर मुंह नहीं खोलती और ना कुछ बोलती। बस,चुप
रहती है। कई दफा तो इसके सम्मुख ही बुराई हावी होती रहती है और यह मुंह ताकती
रहती है। पता नहीं अच्छाई बुराई से क्यों डरती है? जबकि जीत उसकी ही होती है।
बस,देर हो सकती है। पर अंधेर नहीं।
यह सच है कि जंहा बुराई है,वहीं आसपास अच्छाई
भी होती है। लेकिन अच्छाई तो देख बुराई को मुंह फेर लेती है। जबकि उस वक्त मुंह
फेरने के बजाय मुंहतोड़ जवाब दे। फिर देखना बुराई तो भागती हुई जाएंगी और दुबारा
आने की हिमाकत भी नहीं कर पाएंगी। पर ऐसा अच्छाई कर नहीं पाती। कर पाती है तो
मुंहतोड़ जवाब नहीं दे पाती होगी। समझा-बुझाकर कर ही वहां से खुद ही खिसक लेती
होगी। यह देखकर बुराई मन ही मन खुश होती होगी। क्योंकि बुराई की चर्चा तो आग की
तरह फैलती है और अच्छाई धीरे-धीरे पनपती है। जबी तो बुराई बुरे काम करके निकल
लेती है। बुरे काम करके धमकी ओर देती है। जबान खोली तो जबान काट दूंगी। काटकर
खूंटी के टांग दूंगी। यह सुनकर ज़बान पर दहशत का ताला लग जाता है। ताले की चाबी
हाथ में होते हुए भी दहशत का ताला खोलने की हिम्मत नहीं होती। क्योंकि हिम्मत को
बदनामी दबोच लेती है। शायद इसलिए जबान पर लटकता हुआ दहशत का ताला चिढ़ता है,क्या
बिगाड़ लिया?
जब बुराई का कुछ बिगड़ता नहीं तो बुराई ओर
बिगड़ती चली जाती है। एक ना एक दिन ऐसी बिगड़ जाती है कि सरेआम शर्मसार कर देती है।
कमबख्त को उस वक्त शर्म भी तो नहीं आती। शर्म क्यों आएंगी? उस वक्त तो मजा आता होगा।
दूसरों की इज्जत उछालने में। लेकिन बुराई लाख चाहे खुश हो ले। अंत तो उसका बुरा
ही होता है और अच्छाई की तो सदैव ही विजय भवःहोती है।
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