मोहनलाल मौर्य
वह ‘बुरा न मानों होली है’ कहता हुआ घर से निकला है। रंग-गुलाल हाथ में हैं तथा मन में भड़ास की भावना है। वह जिस पर रंग-गुलाल लगाकर भड़ास निकालने के फिराक में है उस पर भी कोई ना कोई भड़ास निकालने के लिए आतुर है। वह भी कह देगा, ‘बुरा न मानों होली है।’होली पर्व पर होता भी ऐसा ही है। जिसके रंग-गुलाल लगाना चाहते हैं,उसके तो लगता नहीं। किसी ओर के लग जाता है। होली खेलने का मजा भी तभी आता है जब इसके उसके रंग लगता है। फिर मजे-मजे में भड़ास तो स्वत: ही निकल जाती है। होली की होली भड़ास की भड़ास
भड़ास निकालने वाले का सलीका अलहदा होता है। उसकी विशेषता हस्तकौशल में परिपूर्ण होता है,उसके हाथों में अपेक्षाकृत ज्यादा रंग-गुलाल होता है। पहले आलिंगन प्रवृत्ति अपनाता है। उसके उपरांत होली खेलते-खेलते भड़ास निकाल लेता है। अपनी भड़ास पूर्ण नहीं हो। जब तक रंग-गुलाल लगाता रहता हैं। किसके रंग-गुलाल लगाना है और किससे नहीं। यह नहीं देखता,जो मिल गया वहीं सही। अलबत्ता कई बार विपरीत हो जाता है। सेर को सवा सेर मिल जाता है। जब सेर सवा सेर से मुखातिब होता है। तब भड़ास तो भाड़ में घुस जाती है और दोनों रंग-गुलाल की बौछार से सराबोर हो जाते हैं। फिर होली खेलते-खेलते हमजोली हो जाते हैं।
हमजोली मिलकर टोली बनाते हैं। टोली बनाकर हल्ला-गुल्ला करते हुए घर-घर होली खेलने जाते हैं। होली पर टोली की टोली आती देखकर जो दरवाजा बंद कर लेता है। उसको रंगने के लिए अपने-अपने हथकंडे अपनाते हैं। जिसका हथकंडा लगा गया और दरवाजा खुल गया। वह दरवाजा खुलते ही रंग-गुलाल लगाता है और भड़ास निकालने वाला रंग-गुलाल की आड़ में होली खेलते-खेलते भड़ास भी निकाल लेता है।
मन की भड़ास निकालने का सुअवसर होली पर्व पर जो मिलता है। ऐसा अवसर ओर दिन कहां मिलता है? मन से भड़ास निकल जाती है और तन पर रंग-गुलाल चढ़ जाती है। मन-तन की अभिलाषा पूर्ण हो जाती है। जो प्राय: हो नहीं पाती। मन की अभिलाषा पूर्ण होती है तो तन की नहीं होती और तन की होती है तो मन की नहीं होती। जब मन-तन की अभिलाषा एक साथ पूर्ण होती है। तब उसके लिए वह दिन होली दिवाली से कम नहीं होता। जब दिन ही होली का मिल रहा है तो वह अभिलाषा पूर्ण क्यों नहीं करेगा? वह तो अवश्य करेगा। सालभर से वह इसी दिन के इंतजार में तो रहता है। कब होली आए और कब भड़ास निकालु।
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